रामलीला काशी की

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कैसे बनारस रामलीला मनाती थी ।

वर्षा के थमने के बाद क्वार का महीना लगते ही लगता है जैसे हरसिंगार के फूल की तरह राम रंग मेरे मन में झरझर बरस रहा हो और मेरा बचपन आज भी उसी तरह लौट आता है जब सोनू को राम, मोनू को लक्ष्मण तथा गुड्डी को सीता के रूप में ठुमक ठुमक कर अभिनय करते हुए देखता हूं। रामलीला का रस बचपन से ही जैसे मेरी नस नस में समा गया है।
पिछले वर्ष दशहरे के दिन अवधपति राम की नगरी अयोध्या में रहने का सुयोग मिला था। वहां मां दुर्गा के सजे मंडपों को देखकर लगता ही नहीं था कि यह अयोध्या नगरी है। इन पूजा मंडपों को देखकर ऐसा अहसास हुआ, जैसे रामलीला राम की नगरी को छोड़कर शिव की नगरी की वासी हो गई है और इसी के साथ मुझे बहुत याद आया अपना बनारस, जहां दशहरे से लगभग दस दिन पूर्व ही एक एक मुहल्ला जैसे रामलीलामय हो जाता है। यद्यपि दुर्गा पूजा ने रामलीला को प्रभावित किया है, लेकिन आज भी रामनगर की रामलीला, चेतगंज की नककटैया और नाटी इमली के भरत मिलाप की तुलना किसी से नहीं की जा सकती। लाखों की भीड़ होना इन लीलाओं के लिए सहज बात है। तुलसी ने भी राम की कथा को रचने के लिए काशी को ही उपयुक्त स्थल समझा था और राम को समूची भारतीय संस्कृति के केंद्र में प्रतिष्ठित किया और पूरे उत्तर भारत को राममय बना दिया। उन्होंने राम और शिव का तालमेल बैठाया।
काशी की रामलीला कब और किसने प्रारंभ की, यह एक अत्यंत विवादास्पद विषय है, लेकिन प्रायः अब इस सत्य को स्वीकार कर लिया गया है कि काशी में तुलसीदासजी के मानस के लीला प्रवर्तक मेघा भगत रहे हैं। मेघा भगत के विषय में कहा जाता है कि वे तुलसीदासजी के समकालीन थे। वे उनके अनन्य सेवक थे। तुलसीदासजी की मृत्यु के पश्चात मेघा भगत बहुत शोकाकुल रहा करते थे। कभी वे आत्महत्या के लिए भी तत्पर हो गए थे, तब तुलसीदासजी ने उन्हें किसी प्रकार समझाकर रोका। कहा जाता है, तुलसीदासजी की श्राद्ध क्रिया के बाद अर्धरात्रि को उन्हें सहसा ऐसा बोध हुआ कि हनुमानजी उन्हें अयोध्या जाने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। वे अयोध्या पहुंचकर सरयू नदी के तट पर बैठकर ध्यान मग्न हो गए। सहसा उसी समय दो सुंदर बालक खेलते खेलते वहां आए और अपने धनुष बाण को सहेजकर चले गए। मेघा भगत दोनों धनुष बाण की रखवाली करते रहे, सुबह से शाम हो गई, लेकिन दोनों बालक धनुष बाण लेने वापस नहीं लौटे। देर रात्रि तक वे वहीं बैठे रहे। थोड़ी सी झपकी आई, तो ऐसा लगा जैसे कोई उनके कान में कह गया कि कलयुग में भगवान का दर्शन होना मुश्किल है। तुम काशी चले जाओ और रामलीला का आयोजन करो। भरत मिलाप के समय दर्शन होगा। स्वप्न भंग होते ही वे काशी की ओर चल पड़े। मेघा भगत द्वारा प्रचलित वही रामलीला “ चित्रकूट की रामलीला “ के नाम से प्रसिद्ध है।
चित्रकूट की रामलीला अश्विन कृष्ण नवमी से प्रारंभ होती है। पहले दिन मुकुट पूजा होती है। इसके बाद राज्याभिषेक की तैयारी से लीला प्रारंभ होती है। विजय दशमी के पश्चात भरत मिलाप, धनुष बाण का झांकी, सनक सनंदन उपदेश तथा दशावतार की लीलाएं क्रमशः दिखाई जाती हैं। इन लीलाओं में नाटी इमली में होने वाला भरत मिलाप सबसे महत्वपूर्ण होता है, ऐसा विश्वास किया जाता है, कि इसी भरत मिलाप में मेघा भगत को भगवान राम के साक्षात दर्शन हुए थे।
काशी के अस्सी मोहल्ले की रामलीला भी गोस्वामी तुलसीदासजी द्वारा प्रारंभ की गई थी, इसके अभिनय स्थलों में अयोध्या लंका आदि नाम थे। आज संवाद प्रधान इस लीला में केवल मानस का प्रयोग किया जाता है। राम राज्याभिषेक से प्रारंभ कर सोलह दिनों तक यह रामलीला होती है, अब दो दिन और बढ़ा दिये गए हैं। मुकुट पूजन और भगवान की झांकी के बाद लीला द्वादशी से प्रारंभ होती है। मानस की चैपाइयों को ही पात्र खड़ी बोली में अनुवाद करके बोलते हैं।
काशी की लाट भैरव की रामलीला भी बहुत पुरानी है। कुछ लीलाएं वहां फर्श पर होती हैं। काशी की चित्रकूट और लाट भैरव की रामलीला में कौन प्राचीन है, यह कहना बहुत मुश्किल है। लोगों का ऐसा अनुमान है कि तुलसादासजी पहले हनुमान फाटक पर ही रहा करते थे, इसलिए उन्होंने पहले लाट भैरव की रामलीला ही प्रारंभ की होगी। इस स्थान को पुराणों में “काशी खंड“ कहा गया है। एक अनुमान यह भी है कि पहले लाट भैरव और चित्रकूट की रामलीलाएं एक ही रही होंगी। अश्विन कृष्ण नवमी के दिन मुकुट पूजन से यहां की लीला आरंभ होती है। पहली लीला राज्याभिषेक की तैयारी होती है। संवाद बोले जाते हैं। यहां की लीला कई स्थलों पर होती है। स्वरूप बारह से चैदह वर्ष के ब्राहमण बालक होते हैं।
काशी की रामनगर की लीला सुप्रसिद्ध है। इसका प्रारंभ काशी राज महाराज बलवंत सिंह ने किया था। उस समय लीला दस बारह दिनों तक चलती थी। उनके पुत्र उदित नारायण सिंह के समय में लीला का महत्व बढ़ा। एक जनश्रुति के अनुसार उनके पुत्र अस्वस्थ थे। फिर वे अस्सी की रामलीला देखने गए थे। वहीं राम के स्वरूप ने उन्हें एक माला दी। महाराज ने जब वह राजकुमार को पहनाई तो वह स्वस्थ हो गए। दूसरी जनश्रुति यह है कि महाराज को कोई संतान नहीं थी। रामप्रसाद रामायणी के यहां से उन्होंने अश्विन मास में रामलीला कराकर संतों का समागम कराया। उसके पश्चात उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई। फिर महाराज ने लीला का विस्तार किया। लीला इक्कीस दिनों की होने लगी। इसके बाद महाराज ईश्वरी नारायण सिंह ने अपने गुरू काष्ठ जिह्नवा स्वामी, मित्र भारतेन्दु बाबू तथा महाराज रघुराज सिंह के सहयोग से रामलीला के संवादों को लेखबद्ध कराया। सभी पात्रों को संवाद स्मरण कराया जाने लगा। फिर ईश्वरी नारायण सिंह ने ही रामनगर में अयोध्या, जनक फुलवारी जनकपुर, पंचवटी, अशोक वाटिका, पम्पापुर आदि को लीला के अनुरूप बनवाया। ये स्थान मीलों तक फैले हुए हैं। वर्तमान काशीराज नियमित रूप से अपने राजकुमार के साथ लीला भूमि में उपस्थित होते रहते हैं। काशीराज आज भी इस लीला की गरिमा को बनाए रखने का पूरा प्रयास कर रहे हैं।
रामनगर की लीलाओं में क्षीरसागर की झांकी, रामजन्म की झांकी, विराट दर्शन और राज्याभिषेक की झांकियां प्रसिद्ध हैं। राम बारात, विजयादशमी के दिन राम लक्ष्मण के साथ महाराज की सवारी तथा भरत मिलाप आदि भी यहां की आकर्षक लीलाओं में हैं।
                                                       डा॰ देवीप्रसाद कुंवर।


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