लॉकडाउन ३.० का ग्यारहवां दिन, समाज के आखिरी पायदान पर बैठे देवदूतों के नाम

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कल के हमारे बहुत सारे “क्यों” पर, हमें ढेरों साधुवाद मिल रहे हैं और उम्मीद करते हैं, कि सोई हुई सरकारें भी अगर इन “क्यों” को सुन ले, तो सबका भला हो सकता है। इन “क्यों” को आगे बढ़ाने से पहले, आज बात, देश के उन पचास लाख से भी अधिक देवदूतों की, जो प्राणियों, पर्यावरण और धरती के लिए तो बेहद जरुरी हैं ही, लेकिन फिर भी समाज और व्यवस्था ने उन्हें सदैव आखिरी पायदान पर बिठा, अछूता, अभावग्रस्त और तिरस्कृत ही रखा। एक संस्था ने बॉम्बे हाईकोर्ट में इनके बुनियादी अधिकारों के लिए, अर्जी दाखिल की है, लेकिन वहां भी सरकार और ठेकेदारों के बीच नूराकुश्ती जारी है। यह कितनी बड़ी विडंबना है कि इनके पक्ष में ढेरों कानून और प्रावधान होने के बावजूद, इन देवदूतों को ना तो साफ़ पानी मिलता है और ना ही हाथ धोने का साबुन, बल्कि इन्हे तो बिना ग्लोव्स या सुरक्षा किट्स के, नंगे हाथों से ही, सारे जोखिम उठाते हुए अपना काम करना पड़ता है। फेफड़ों, स्किन और अन्य ढेरों बीमारियों के अलावा सीवेज टेंक्स में इनके मरने की ख़बरें आम हैं। काम ख़तम होने के बाद, हाथ साफ़ करने के नाम पर सिर्फ दो तीन बूंदें सेनिटाइजर की इनके हाथो पर छिड़क दी जाती हैं, जबकि इनमे से कई तो अस्पतालों में सफाई करने, मरीजों का तापमान लेने, रजिस्टर में जरुरी जानकारी भरने से लेकर, संभावित संक्रमित मरीज का सेम्पल लेने और उसे लेब तक पहुंचाने जैसा जोखिम भरा काम भी कर रहे हैं और यही कारण है कि इनमे से लगभग बीस प्रतिशत लोग आज इस बीमारी से संक्रमित भी हो चुके हैं।

हम डॉक्टरों, नर्सों या अन्य देवदूतों की बात नहीं कर रहे हैं, भारत में उनकी फजीहतों पर तो विधाता भी हैरान है, हम बात कर रहे हैं आज, सफाईकर्मियों की, जो भरी गर्मीं में लगातार हर जगह, अपना देवीय कर्म किये जा रहे हैं और दुर्भाग्य यह है कि उन्हें इस करोना संक्रमण काल में भी, जबकि साफ़ सफाई सबसे जरुरी, दुष्कर और जानलेवा कार्य है, ना तो कोई इनकी तकलीफ समझ पा रहा है और ना ही सुरक्षा के जरुरी संसाधन इन्हे उपलब्ध करवाए जाते हैं। यथोचित वेतन, जानलेवा संक्रमण काल का इंसेंटिव, मानसम्मान, सुख आराम तो बहुत दूर की बात है। दुःख तो तब और बढ़ जाता है, जब स्थायी कर्मियों की ढीढता और लापरवाही के चलते, सरकारें इन व्यवस्थाओं को ठेके पर दे देती है, और इस प्रक्रिया में व्यवस्था, अपने चहेते ठेकेदारों को शामिल कर लेती हैं, फिर ये शोषक कॉन्ट्रेक्टर, इनसे अस्थायी दैनिक वेतनकर्मी के आधार पर आधी अधूरी राशि पर काम करवाते हैं और इनकी मज़बूरी का अनर्गल फायदा उठा, अपने घर भरते रहते हैं। हालांकि मुग़लकाल और उसके उपरान्त, समाज की बेरुखी के चलते यह व्यवस्था, कर्मभेद की जगह वर्णभेद का सियासी रूप लेती चली गई, जिससे देश लगातार छूतअछूत के दलदल में उतरता चला गया, नहीं तो रामायण काल से भील निषाद और शबरी का महात्म्य सबको ज्ञात है, वाल्मीकि कौन थे, फिर वो क्यों पूजनीय हैं? आज भी इन सबके बिना सनातन हिन्दुकुश में शादी ब्याह तो दूर, देवीपूजन तक नहीं होते, किस घर में कुम्हार की बनाई लक्ष्मीजी और उसके मिटटी के दियों के बिना दीवाली मन जाती है, बताइये? अंग्रेजों ने इस व्यवस्था “फूट डालो और राज करो” को अपने शासन को निर्विघ्न सफलतापूर्वक चलाने का मुख्य मुद्दा बनाया और आज़ादी पश्चात् वोटबेंकिय लोलुप्सों ने भी इसे अपने स्वार्थ के लिए जारी रख, विभाजित समाज बनाने में ही ज्यादा रूचि दिखाई, बनिस्बत इनकी उचित देखभाल करने, इन्हे शिक्षा और स्वास्थ्य देने और इनका भला करने के और तभी से यह सफाई व्यवस्था, ठेकेदार यानी जमादार साहब, शासकों और उनके नुमाइंदों की रखैल बनी घूम रही है।इनकी अर्जी पर आज नहीं तो कल, सुनवाई हो ही जायेगी, लेकिन क्या समाज और व्यवस्था में बैठे लोगों की जबाबदेही नहीं बनती, कि अब तो कम से कम इनका थोड़ा सा ख्याल करें? यह लोग आपकी ही फैलाई हुई गंदगी को, आपके ही स्वास्थ्य लाभ के लिए, खुद की जान जोखिम में डाल कर साफ़ कर रहे हैं, और वो भी तब, जब आप व्यवस्था को कोसते हुए, खुद अपने आलीशान घरों की ठंडक में आराम कर रहे हैं। तो “क्यों” ना इनकी थोड़ी सी मदद, होंसला अफजाई ही कर दी जाये? सरकारें इन्हे यथोचित पारिश्रमिक और स्वास्थ्य संबंधी उपकरण प्रदान करें, इसके लिए समाज दबाव बना सकता है, आधुनिक संचार तंत्र, मोबाइल फोन के चलते इनका अनुचित तरीके से काम करने वाले फोटो, सरकार को, मीडिया को भेजकर, आम नागरिक, सरकार और ठेकदारों पर दबाव बना सकते है, ताकि इन्हें जरुरी सफाई उपकरण और बुनियादी सहूलियतें मिल सकें और इनका उचित पारिश्रमिक भी सीधे इनके खातों में भेजा जा सके। ऐसे कई “क्यों” के छोटे छोटे समाधानों से, इनका अनर्गल दोहन, शोषण थम सकता है और ऐसा करने वाले ठेकेदारों को भी भय महसूस हो सकता है। स्वास्थ्य बीमा, जो आज वक्त की दरकार भी है, का लाभ भी इन्हे प्राथमिकता के आधार पर मिलना चाहिए, क्योंकि बीमार होने की स्थिति में इनकी सुध लेने वाला कोई नहीं होगा, और खुदा ना करे कि कल को ये सब बीमार हो गए तो? इसके अलावा, संवेदनशील, सभ्य नागरिक के तौर पर भी हमारी भी जिम्मेदारी बनती है कि, हम अपने घर के आसपास कचरा ना फैलाएं और ना ही फैलने दें, जहाँ तक हो सके, इन्हे झिड़कने, तिरस्कृत करने की जगह, थोड़ा सा सम्मान से सम्बोधित करते हुए इन्हे भोजन पानी का भी जरूर पूछें? बहुत मुश्किल तो नहीं हैं ना, इतना सा कर पाना?और अब बात फिर से करोना की, चूँकि यह वायरस हवा में नहीं रह सकता, इसलिए इससे डरिये नहीं! घर से बाहर जाते समय जरुरत सिर्फ नाक मुंह आँख को उचित कपडे, गमछे, मास्क से ढँक कर, पांच से छह फिट का सोशल, फिजिकल डिस्टेंस बनाये रखते हुए अपने काम करने की है। और इसीलिए ग्लोव्स पहनने की जगह, हाथों को बार बार साबुन से साफ़ करना ज्यादा कारगर है, हर सम्भव नॉन टच तरीके से घर के बाहर के काम किये जा सकते है। बाहर से आकर, जूतों को (चप्पल न पहनें तो बेहतर) घर के बाहर ही उतारें और संभव हो तो, कपडे भी घर के बाहर ही उतारें और हाथ पैर, साबुन से अच्छी तरह से धोकर फिर घर में प्रवेश करें। जहां तक हो सके, संक्रमण फैलाने में सबसे कारगर और खतरनाक चीज, कागजी मुद्रा, को कतई ना छुएं, जितना संभव हो सके, कैशलेस तरीके से अपना काम करें। ठण्ड या बिना धूप वाली जगहों पर इनका प्रकोप ज्यादा देखने को मिला है, इसलिए खूब सारी धूप, पौष्टिक भोजन, गरम पेय पदार्थ, तनावरहित जीवन और भरपूर नींद आपकी इम्मुनिटी के लिए और ऐसे किसी भी वायरस से बचाव के लिए सर्वोत्तम जीवनशैली हैं। इसलिए भी खुद को डराकर, घरों में बंद होकर रहने का कोई लाभ नहीं है, और जैसे कि हम पहले भी लिख चुके हैं कि, वायरस और बैक्टीरिया आपकी इम्मुनिटी को बढ़ाने वाले, छोटे छोटे सबक आपके शरीर को सिखाते हैं, इसलिए उनसे रूबरू होते रहना भी बेहद जरुरी है, उचित फासला और सावधानी रखते हुए मॉर्निंग वॉक भी कीजिये और गहरी गहरी डीप ब्रीथिंग एक्सरसाइज़ भी। तेज गति से दौड़ने या हेवी एक्सरसाइज़ करते समय मास्क पहनना नुकसानदायक हो सकता है, इसीलिए खुले में, धूप वाली जगह पर पूरी सावधानी से वॉक, कसरत, योग कीजिये, कम से कम एक घंटे सुबह धूप सेकिये और चूँकि बुढ़ापे या अन्य बीमारियों में, शरीर की इम्मुनिटी कम हो जाती है, इसलिए उन्हें विशेष रूप से इस वक्त सावधान रहना होगा! जैसे कि हम शुरू से ही बताते आ रहे हैं और अब जबकि दुनिया ने, WHO और अमूमन सभी बड़ी संस्थाओं ने, सरकारों ने भी उन बातों को मान लिया है, कि अब सबको इस बीमारी के साथ ही जीना होगा, तब जनता को भी यह समझ लेना चाहिए कि इस वायरस का ना तो कोई उपचार है और ना ही कोई दवाई या वेक्सीन। इस पर गर्मी का भी कोई असर नहीं होता और बारिश और ठण्ड में तो यह और भी जानलेवा हो जाएगा और इसलिए ठन्डे देशों में इतनी अधिक मौतें हो रही हैं और इसलिए आने वाले, साल दो साल के लिए, अब सबको कमर कस लेनी चाहिए ताकि इस बीमारी को भी सार्स, मार्स, इबोला की तरह, इसी की मौत मरने दिया जाए।
कल बात करेंगे, बचे हुए और भी कई “क्यों” की, उनके जबाबों की भी। मिलते हैं कल,

तब तक जय जय श्रीराम ।।

डॉ भुवनेश्वर गर्ग   डॉक्टर सर्जन, स्वतंत्र पत्रकार, लेखक, हेल्थ एडिटर, इन्नोवेटर, पर्यावरणविद, समाजसेवक मंगलम हैल्थ फाउण्डेशन भारत

संपर्क: 9425009303 ईमेल : drbgarg@gmail.com
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