मजदूरों पर डिबेट शो से मोटी कमाई करने वाले मीडिया हाउसों ने कितनी बसें चलाई
कोरोना महामारी से बचाव के लिए सरकार द्वारा लगाया गया लाॅक डाउन और इस लाॅक डाउन में दो वक्त की रोटी और कोरोना के भय से पलायन करते प्रवासी मजदूरों की कहानी हम लोग प्रतिदिन समाचार पत्रों और समाचार चैनलों पर लगातार पढ़ रहे हैं देख रहें हैं ।
लॉक डाउन को अब 60 दिन से अधिक का समय हो चला हैं ।
प्रवासियो का पलायन आज भी लगातार जारी हैं ।
इसके पीछे किस की कमी हैं ?
कौन इतनी बड़ी संख्या मे पलायन कर रहें लोगों की दुर्दशा का जिम्मेदार हैं ?
यह निर्णय कर पाना शायद अभी आसान नहीं हैं मगर हमारे देश के बड़े बड़े मिडिया हाउस और उनके मिडियाकर्मियो ने यह जिम्मेदारी जैसे अपने ऊपर ले ली हैं क्योकि जिस समय भी टीवी पर समाचार चैनल लगाओ तो एक ही खबर है सबके पास वह यह कि मजदूर सड़क पर मजदूर सड़क पर और साथ मे हर समाचार चैनल पर बहस वाले कार्यक्रम सभी में मजदूरों के लिए बहस हैं मगर बहस का केन्द्र सरकार, विपक्ष और राजनीति के अलावा कुछ और हैं ही नहीं, बहस भले ही मजदूरों के मुद्दे पर हो रही हो । इन बहस में हर समाचार चैनलों पर घुम फिर कर कुछ गिने चुने चेहरे ही बैठे होते हैं ।
मानो इन चंद चेहरों के नाम पर समाचार चैनलों के बहस वाले कार्यक्रमों की सीटें आरक्षित हो गयी हैं या फिर समाचार चैनलों के जिम्मेदारो ने आरक्षित कर दी हैं । आखिर इन बहस वाले कार्यक्रमों का उद्देश्य हैं क्या मुद्दों का सामाधान, राजनीतिक चैहरो का प्रचार या टी आर पी का घमासान । क्योकि मुद्दों की बात करें तो वह जस के तस हैं । मजदूर कल भी सड़क पर था आज भी सड़क पर हैं । तो क्या बहस में आने वाले लोगों का राजनीतिक सफर जरूर सुगम हो रहा हैं । ये भी विचार करने योग्य हैं ।
और साथ ही एक और मुद्दा विचार करने योग्य हैं वह यह कि आज जब कोरोना महामारी के चलते लाकॅ कडान में सभी की कमाई नीचे की और हैं वहाँ इन सभी समाचार चैनलों पर विज्ञापनों की कोई कमी दिखाई नहीं देती। वही पहले जैसी बहस और वैसे ही विज्ञापन सब वैसे ही चल रहा हैं जैसा सामान्य समय में था ।
मगर अब यह समाचार चैनल सरकार, विपक्ष , जनता और मजदूरों की बात कर रहे हैं जिसकी जरा सी कमी देखी नहीं की उसी को बहस में मुद्दा बना कर घसीट लाते हैं । परंतु देश के बड़े बड़े मीडिया हाउस और सड़कों पर मजदूरों की व्यथा को कैद करते इन मीडिया हाउस के मीडिया कर्मियों के कैमरे सिर्फ और सिर्फ खबरें बनाना ही जानते हैं जिससे कि इनको अच्छी टीआरपी और अच्छे विज्ञापन मिले । मजदूरों के लिए बसों पर बहस कराने वाले किसी मिडिया हाउस ने कोरोना महामारी के दौरान चल रहे लाॅक डाउन में सड़क पर आकर यह नहीं कहा कि हम इतनी बसें इन मजदूरों के लिए चलवाएंगे या फिर हम इतने लोगों के रहने खाने का प्रबंध कराएंगे ।
क्योंकि ऐसा करने से ना तो इनको खबर मिलती और ना ही इनकी टीआरपी आती इसलिए जो मजदूर इनके सामने ही दम तोड़ रहा हो उसको भी पानी ना पिला करके उस के दम तोड़ने की इंतजार करेंगे कि कब यह मजदूर दम तोड़े और कब हम इसकी अंतिम सांस लेने की फोटो कैमरे में कैद करें।
क्या इतनी संवेदनहीन मीडिया के सहारे हम लोग समाज के चौथे स्तंभ को मजबूत बनाए रखेंगे शायद नहीं ? क्योंकि आज अधिकांश मीडिया कर्मी और मीडिया हाउस सिर्फ खबरों में विश्वास रखते हैं यथा स्थल पर खड़े होकर पीड़ित के लिए किसी प्रशासनिक अधिकारी को फोन करके उसकी समस्या का समाधान कराने में उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं है ? क्योंकि अगर यथा स्थान खड़े होकर मीडिया कर्मियों ने प्रशासनिक अधिकारियों को फोन करके समस्याओं का समाधान शुरू कर दिया तो फिर खबरें कहां से आएंगी कैसे टीआरपी बढ़ेगी और अगर टीआरपी नहीं होगी विज्ञापन नहीं आएंगे तो कैसे बड़े बड़े मीडिया हाउस अपने मीडिया कर्मियों को वेतन देंगे।
अगर मीडिया कर्मियों को वेतन नहीं मिलेगा तो मीडिया कर्मी खबरें नहीं ला पाएंगे इसलिए आज के दौर में किसी छोटी से छोटी घटना को भी बड़ी से बड़ी खबर बनाने का दौर चल रहा है और इस दौर को बढ़ते हुए मीडिया हाउसेस और समाचार चैनलों ने उस प्रतियोगिता के दौर में लाकर खड़ा कर दिया है जिसमें किसी की जान की कोई कीमत नहीं रह गई है ।
जो मीडिया कर्मी जितना जोखिम उठाकर खबर लाएगा उसको उतना ही अच्छा वेतन मिलेगा किसी भी खबर को जितना बढ़ा चढ़ा कर दिखाएगा शायद उस मीडिया कर्मी का अपने मीडिया हाउस में उतना ही ऊंचा स्थान बना रहेगा।
ऐसी ही प्रतिस्पर्धा के साथ आज अधिकांश मीडिया सिर्फ खबरों और मुद्दों के पीछे है उनको खबरें चाहिए मुद्दे चाहिए मुद्दों का समाधान होता है या नहीं इससे उसको कोई सरोकार नहीं है ।
आज हमारे देश में इतने बड़े बड़े मीडिया हाउस है जो ढाई ढाई हजार से अधिक कर्मचारियों के साथ अपना मीडिया हाउस चला रहे हैं मगर उन मीडिया कर्मियों के कैमरे सिर्फ और सिर्फ किसी को भी खबर बनाने के काम आते हैं उनके मोबाइल फोन भी किसी की तस्वीरें तो खींच लेते हैं परंतु उनके मोबाइल फोन पर उनकी उंगलियां किसी के मुद्दे का समाधान कराने के लिए किसी प्रशासनिक अधिकारी के नंबर को डायल करती नजर नहीं आती।
क्या मीडिया हाउसों की जिम्मेदारी सिर्फ डिबेट शो कराना ही रह गया है ?
क्या मीडिया हाउसों को कमाई नहीं होती है और अगर कमाई होती है तो क्या उनकी जिम्मेदारी नहीं बनती कि समाज के असहाय समुदाय के लिए वह कुछ अच्छा करें ?
क्या मीडिया हाउसों को सिर्फ खबरों से ही सरोकार है मानवता से कोई मतलब नहीं?
घटना स्थलों पर घायलों के आखरी सांस लेने का इंतजार करते मिडियाकर्मियो की मानवता को हो क्या गया हैं ?
आखिर क्यों इतने संवेदनहीन होते जा रहे हैं हम मीडियाकर्मी ?
पहले हम मिडियाकर्मी लाचार,असाह की मजबूरी की नंगी तस्वीरें खीचे और बाद में उनको सेंसर करके दिखाते हुए यह कहें कि हम आपको यह तस्वीरें सीधे नहीं दिखा सकते आखिर ऐसे शब्दों का महत्व क्या हैं ?

अरविंद कुमार