करोना काल खंड 2.0 का अठ्ठारहँवाँ दिन, मानवता की लूट के बाद अब, गरीब के खून की लूट ।

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मानवता को बेचते धनपिचासों की, मरीजों के नाम पर धन और खून की लूट जारी है, और अब तो दुनिया भर के शातिर खिलाड़ियों ने, भुखमरी के नाम पर, खाद्यान्न की कमी के नाम पर, चंदे की लूट मचाने की चालें भी चल दी हैं ।ग़रीब देशों की मदद के नाम पर लूटनेवाले, विकसित देशों से चंदे बटोरने वाले ढेरों समूह आज दुनिया भर में जगह जगह अपनी जड़ें जमाए हुए हैं। गरीब की रोटी के नाम महंगे आलिशान आफिसों से काम करते, फाइव स्टार होटलों से महंगी मीटिंगे करते, यह लोग आज एक बार फिर सक्रिय हो गए हैं, एक बार फिर वैश्विक त्रासदी और ग्लोबल लॉकडाउन के इम्पेक्ट के नाम पर दुनिया भर की यह लुटेरी संस्थाएं चंदा मांगने और धन बटोरने अब बहुत ही जल्द भुखमरी की भविष्यवाणी लेकर सामने आने वाली हैं।

लेकिन प्रकृतिदत्त कृषि उत्पादों, खाद्यान्नों की इस देश में कभी कोई कमी कैसे हो सकती है, और जबकि अब तो देश में भरपूर बारिश होने की भी घोषणा हो चुकी है तब? और अगर १३५ करोड़ लोग ठान लें, तो उनके देश में कृषि उत्पाद, रोजगार कैसे कम हो सकते हैं? अब तो शहरों को पलायन करते करोड़ों हाथों ने भी घर, गाँव, जल, जंगल, जमीन और पशुधन का महत्त्व समझ लिया है, फिर? इसलिए पैदावार बढाई जाए और अन्न की बर्बादी रोकी जाए, साथ ही खाद्यान्न का दुरूपयोग और कालाबाजारी ना हो? पर साथ ही हमें खाद्यान्न का उचित भंडारण भी करना होगा और कृतिम अभावों पर सख्ती भी करनी होगी। कृषिप्रधान देश में, कृषि और पशुधन आय बढ़ाने के लिए लेंडआर्मी बनाने की भी आज सख्त जरुरत है, जलाशयों, नदियों की हद, संरक्षण, इनके उच्चतम भराव के क्षेत्र का अभी से ध्यान रखना शुरू करना होगा, नवजल संरचनाओं की उत्पत्ति करनी होगी। मनरेगा के तहत हो, या छात्र, युवाशक्ति, सेना और सभी ऐसे लोगों का सहयोग लिया जाए, जिनके पास रोजगार नहीं है, मूक पशुओं के पालन पोषण और चारे की तरफ भी सब मनुष्यों को ही ध्यान रखना होगा।

लेकिन इस देश का दुर्भाग्य यह है, कि सच को बंद आँखों से देखता देश का मानस, खाने के लिए दस रू किलो का ताजा टमाटर नहीं खरीदता, उसकी पौष्टिक ताजा चटनी खाने की जगह, डेढ़ दो सौ रू किलो का नुकसानदायक बासी टमाटो साॅस खरीद लेता है? घर घर रोजगार देने वाली चीजों को नकार, (जैसे कुम्हार के सुराही, मटके खरीद) शुद्ध ठंडा जल पीने की जगह, तीन तीन माह पुराना प्लास्टिक बोटल का पानी बीस पच्चीस रू लीटर खरीद कर पी सकता है, (पेट भी ख़राब, पर्यावरण भी!) दस बीस रुपये के छाछ, मट्ठे, आमपने, दूध लस्सी की जगह, सौ रुपये का महीनों पुराना कोल्ड ड्रिंक पी सकता है, सौ रूपये के शरीर को ताकत देने वाले ड्राई फ्रूट्स की जगह मोटापा शुगर बढ़ाने वाले पांच सौ रुपये का मैदे से बना पिज्जा, या मैदे की नूडल्स उसकी पहली पसंद बनी हुई थी, अपनी रसोई का सुबह का खाना ये शाम को खाना पसंद नहीं करते जबकि कंपनियों के छह छह माह पुराने सामान सामान खा रहे हैं, ताजे फल खाने की जगह महंगे फ्रूटजूस पी रहे हैं, जबकि हम सबको पता है कि खाने को सुरक्षित रखने के लिए उसमें हानिकारक प्रिजर्वेटिव मिलाया जाता है। खुद को फिट रखने वाले ढेरों काम यह अपने हाथ से कर रहे हैं, कर सकते हैं, लेकिन?

डेढ़ माह के लाक डाऊन मे अब सबको समझ आ ही गया होगा कि बाहर के खाने के बिना भी हमारा जीवन चल सकता हैं, काम भी चल ही नहीं सकता, बल्कि बेहतर चल सकता है और आने वाले सालों में, कम से कम खर्च में, बेहतर से बेहतर जीवन जिया जा सकता है और यही कदम देश को आने वाली आर्थिक मंदी से, भुखमरी से, बेरोजगारी से ना सिर्फ बचा सकता है, बल्कि सारी दुनिया के सामने नजीर भी बन सकता है।

लेकिन इस वोटबैंक तुष्टिकरण वाले मुफ्तखोरों के देश में इन्हे मेहनत की रोटी का स्वाद चखा पाना क्या आसान काम होगा?
सरकारी राशन की दुकान पर भीड़ देखिये। हाथ में 20,000 का मोबाइल लेकर 70,000 की बाइक पर बैठकर मुफ्त का, एक रुपये या दो रुपये किलो का गेंहू चावल शक्कर लेने आते है ये गरीब लोग। हाथ मे 50,000 का फोन चेहरे पर 10,000 का चश्मा लेकिन उन महिलाओ को दिल्ली मे बस का सफर फ्री करना है।

जिस देश में नसबन्दी कराने वाले को सिर्फ़ 1500 रुपये मिलते हों और बच्चा पैदा करने पर 6000 रुपये मिलते हों वहां कुकुरमुत्तों की तरह उग रही यूजलेस जनसंख्या कैसे कंट्रोल होगी। चुने जाने से पहले, घर घर भीख मांगने वाले नेता पंच, सरपंच की सैलरी कितनी होती है? तीन चार हजार, पांच हजार? फिर समझ में नहीं आता है साल दो साल में ही स्कॉर्पियो फॉर्च्यूनर कहाँ से ले आते हैं ? इस देश के युवा इतनी कम तनख्वाह में यह सब सुख क्यों नहीं भोग पाते? पवार की बेटी एक एकड़ खेती से करोड़ों की कृषि आय कर लेती है, चिदंबरम गमले में करोड़ों की गोभियाँ उगा लेते हैं, लेकिन गरीब देश के किसानों को यह ट्रिक नहीं बताते, सोचिये?

और चलते चलते बात, एक बार फिर, प्लाज़्मा थिरापी की।
कल देश के सबसे महंगे अस्पताल में, मात्र 53 साल के एक मरीज ने मुंबई के एक हॉस्पिटल में 29 अप्रैल को दम तोड़ दिया, उसे चार दिन पहले प्लाज्मा थिरापी दी गई थी। और जैसे की हमने शुरू में ही चेताया था कि प्लाज़्मा थिरापी को लेकर अभी किसी भी तरह बयानबाजी ना की जाए, क्योंकि यह बहुत जल्दबाजी होगी।

करोना का फ़िलहाल तो कोई सटीक इलाज अभी दुनिया को नही पता, लेकिन यह मरीजों पर कितनी कारगर होगी, यह तो ठीक हो चुके मरीज़ों के रक्त में मौजूद एंटीबॉडीज़ का स्तर और जिसे यह थिरापी दी जाएगी, उसके शरीर में मौजूद वायरल लोड, उम्र, अन्य बीमारियाँ और शरीर के सुरक्षा रक्त संचार तंत्र पर निर्भर करेगा! और इसलिए, उपचार पाने वाले मरीज़ों का चयन भी बेहद सावधानी और बिना किसी धन,पद, प्रभाव या स्वार्थ के करना होगा? भ्रष्ट तंत्र और मेडिकल मैनेजराई धनपिचास माफिया चुन चुन कर मरीजों की रेवड़ियां अपने यहाँ जमा करेगा और उम्रदराज गंभीर गरीब मरीज सरकारी अस्पतालों में अपने दिन गिनेंगे, और इसीलिए जाहिर है, इनके आंकड़े बेहतर होंगे और यही नहीं, रक्त प्लाज़्मा के अमृतदान की तिजोरियां भी इन्ही के यहाँ भरेंगी लेकिन इस दुर्लभ प्लाज़्मा दान उपचार और इस बीमारी की सतत स्टडी के क्या पैमाने तय किये गए हैं, यह कोई बताएगा?

क्या हम अमेरिका या चीन में आलरेडी किये जा रहे उपचार प्रक्रिया का बुनियादी अनुसरण भी नहीं करेंगे ? ऐसा ना हो कि कहीं श्रेष्ठ दानवीरों का यह अमृतदान भी, किडनी लिवर की तरह अंग माफिया की तिजोरियों में धन का अम्बार लगाने लग जाए?
और यही बात आज दुनिया भर की एजेंसियों ने, आस्ट्रेलियाई यूनिवर्सिटी, डेली मेल आदि ने भी छापी है कि मानव अंगों के अवैध व्यापार और तस्करी से जुड़े लोग, अंडरवर्ल्ड के लोग, डार्कनेट पर करोना के इलाज, वेक्सीन और जिंदगी भर की इम्मुनिटी के नाम पर, ठीक हो चुके करोना मरीजों का रक्त दस लाख रुपये लीटर तक के हिसाब से बेच रहे हैं।

खून की लूट के बाद, कल बात करेंगे, गरीब की भूख लूटने वाले लुटेरों की, तब तक जै रामजी की।

डॉ भुवनेश्वर गर्ग
डॉक्टर सर्जन, स्वतंत्र पत्रकार, लेखक, हेल्थ एडिटर, इन्नोवेटर, पर्यावरणविद, समाजसेवक
मंगलम हैल्थ फाउण्डेशन भारत


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