करोना काल, लॉकडाउन 2.0 का पन्द्रहवाँ दिन और बात “बेरहम मौत के डर” की आज करोना से पहले बात ओशो की, फिर इरफ़ान की

Share:

पहले बात ओशो की इसलिए, कि उन्होंने मौत के डर से इतर जिंदगी जीना सिखाया, उन्होंने दुनिया को बताया कि जो है, जैसा है, उसे उसी पल पूरे आनंद और प्रेम के साथ जी लो, “काल और कल” का क्या भरोसा।

हालाँकि कालांतर में स्वार्थी लोगों ने इस अद्भुत देविय जीवनयापन पद्धति में वासना ढूँढ ली और उनकी बताई अलौकिक जीवन पद्धति एक विलासिता पद्धति में सिमेट दी गई।

पर जितने भी लोग ओशो के सम्पर्क मे आए या उनके बाद, उनके केंद्र में दो तीन दिन रहकर उनकी उस अद्भुत जीवन पद्धति को समझ पाए, वो आपको बताएँगे कि कितना आनंद मिला उन्हें, कितना अद्भुत जीवन उन्होंने वहाँ जिया। सुबह जल्दी उठना, सूर्यनमस्कार करना, सुबह की धूप में व्यायाम करना, नए नए लोगों से मिलना जुलना, योग मेडिटेशन करना और उचित भोजन ग्रहण करना, चिंतामुक्त रहना सीखना, सब कुछ कितना अद्भुत था और इसीलिए जब कोई अपना, अपने मन से जुड़ा, असमय साथ छोड़ जाए, तो पहला झटका तो इसी बात का लगता है कि इतनी जल्दी? अभी तो बहुत कुछ करना बाकी था और इसीलिए आज जब यह ख़बर मिली कि इरफ़ान नही रहे, तब कलाम की तरह, इरफ़ान का जाना भी मुझे ही नही, यक़ीनन पूरे देश के मानवता के परिंदों को भी अखर गया होगा और बस बार बार यही बात दिमाग़ में आ रही है कि,
रहने को सदा दहर में, माना आता नहीं कोई,
पर जैसे गये तुम, ऐसे भी तो नही जाता कोई।

ख़ुद इरफ़ान अपने आख़िरी सफे में लिख गए कि नहीं नहीं अभी नही, अभी तो मैने चंद लकीरें भर उकेरी है अभी तो फ़लसफ़े भरना बाक़ी है। अभी अभी तो मैने ढेरों प्लान बनाए हैं, अभी कैसे मेरी विदाई के पल आ सकते हें । लेकिन सच तो यही है, कि जिंदगी ऐसी ही होती है। आप सोचते कुछ और है और जिंदगी में होता कुछ और ही है। मीलों लंबी प्लानिंग और अगले पल का पता तक नहीं।

हैरतों के सिलसिले सोज़-ए-निहाँ तक आ गए,
हम नज़र तक चाहते थे तुम तो जाँ तक आ गए।

इरफ़ान की लंबी लिस्ट में बॉलीवुड था, हॉलीवुड था, फ्रेंच सिनेमा था, लेकिन सब धरा का धरा रह गया। हॉस्पिटल में भी निश्चिंतता कहाँ होती है, नतीजो का दावा कौन कर सकता इस दुनिया में ? अगर इस जग में कोई चीज निश्चित है तो वो है केवल अनिश्चितता। जिंदगी और मौत के खेल के बीच बस एक सड़क होती है, अस्पताल की निराशा के उलट, सड़क के उस पार ज़िन्दगी मुस्कराती दिखती है। पर काल ना चाहे तो कोई किस तरह इस सड़क को, वैतरणी को, भवसागर को पार कर सकता है ?

इरफ़ान लड़े, अपनी पूरी ताकत से लड़े, लेकिन मौत तो मौत है, वही तो एकमात्र सच्चाई है इस भौतिक जगत मैं, सच्ची प्रेमिका की मानिंद। बेवफाई तो बस ज़िंदगी ही करती है सबके साथ, कब क्या कैसे और कई बार तो क्यों? और यह “क्यों” जब किसी के जीवन में आता है, तब तक डोर टूट चुकी होती है। और इसीलिए यह “क्यों” आज पूरे विश्व के ७६० करोड़ लोगों के लिए एक अबूझ पहेली बना खड़ा है, करोड़ों संक्रमित, लाखों काल कवलित और बाक़ी, अपनी बारी के इंतज़ार में घरों में सिमटे, डरे सहमे, आशंकित और भविष्य के लिए, अपनो के लिए भयभीत।

और इसीलिए एक चिकित्सक के नाते, जब मैं ढेरों लोगों के सवालों में इस डर के जबाब दे दे कर थक गया हूँ, तब बात करोना या इरफ़ान के बहाने ही सही, आज इंसान के उसी डर को समाप्त करने की, फिर से कोशिश कर रहा हूँ, यह डर उसके दिलोदिमाग़ पर कुछ इस कदर पेबस्त हो गया है कि उसे समझाना बेहद दुष्कर हो गया है, सामान्य से सर्दी, जुखाम, बुखार से डरा सहमा इंसान, जबकि यह सब इस संकट काल से पहले उसे दसियों बार हो चुके होंगे लेकिन फिर भी मानने को तैयार ही नहीं कि उसे कोरोना नहीं हुआ है और वो डरे नही, घबराये नही।

और इसीलिए बात आज इस संकट काल में, हमने ओशो से शुरू की, क्योंकि उनसे बेहतर तो किसी और ने आज तक ऐसे डर का अर्थ नही ही समझाया होगा कि जब तक मौत आ ही ना जाए, तब तक तो उससे डरने की कोई ज़रूरत ही नहीं है और जो अपरिहार्य है, उससे डरने का तो कोई अर्थ ही नहीं है। डर एक प्रकार की मूढ़ता है, अगर किसी महामारी से अभी नहीं भी मरे, तो भी एक न एक दिन तो मरना ही होगा, और वो एक दिन, कोई भी दिन हो सकता है, इसलिए विद्वानों की तरह, वीरों की तरह जियें, भीड़ की तरह नहीं।”

तो चलते चलते एक बार फिर से अश्रुपुरित श्रद्धांजलि, प्रिय मित्र इरफ़ान और उन सभी लाखों करोना यौद्धाओं को, जो समय को चिरस्थायी कर, अपनी अपनी लकीरें पैबस्त कर गए!
फलक पे चाँद आफताब रहे न रहे
उजाला हो जाए जो फ़ज़ल लिख दूँ।
पेशानी पे पैबस्त हो जाए शिकन
गर फिजां में महज़ मसल लिख दूँ।
🌹🌹 RIP IRFAN, RIP CORONA WARRIORS🌹🌹

डॉ भुवनेश्वर गर्ग
डॉक्टर सर्जन, स्वतंत्र पत्रकार, लेखक, हेल्थ एडिटर, इन्नोवेटर, पर्यावरणविद, समाजसेवक


Share: