लॉकडाउन 3.0 का नवां दिन, सरकारिया दिये तले, अँधेरे में बंटती रेवड़ियों के नाम

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श्रमिकों, मज़दूरों और परदेस में रोज़ी रोटी खोजते, ज़रूरतमंदों के पलायन ने विभाजन की त्रासदी की तस्वीरों को, फिर से नुमायाँ कर दिया है, लोगों को छत, भोजन पानी दे पाने के काग़ज़ी आंकड़ों में सक्षम सरकारों ने उन्हें अपने राज्यों की सीमाओं पर रेवड़ की तरह लावारिस छोड़ दिया है, वहीं दूसरी और घरों में फँसे लोगों को रोक पाने में अक्षम सरकारों के तुगलगी आदेशों और बेहद जरुरी, जीवनोपयोगी संसाधन जुटाने की मजबूरियों, रोज़गार, शराब की तलब के चलते, जिस तरह सड़कों पर लोगों की भीड़ उमड़ रही है, उससे इस बीमारी के थमने की सारी संभावनाएं धूमिल हो गई हैं और लगता है कि, जागने का ढोंग करती, सोई हुई तबादला सरकार ने आज अचानक ही करवट बदली है और अब जाकर, मध्यप्रदेश में मरीजों की संभावित बेतहाशा वृद्धि के मद्देनजर, एक लाख अतिरिक्त बिस्तर जुटाने की कवायद शुरू की है।
जबकि हम मार्च के शुरू से ही बार बार लिख रहे हैं, कि दिया तले अँधेरा वाली हकीकत को तिलांजलि देकर, अयोग्य और चापलूस दरबारियों, अधिकारियों से मुक्ति पाकर, अगर अपने इर्द गिर्द ही सक्षमता से देख लिया जाए तो ढेरों समाधान, संसाधन स्वतः ही, आपको अपने आसपास नजर आने लंगेगे, लेकिन हाँ, इसके लिए सबसे पहले जागना होगा, अपनी आँखें खोलनी होंगी और लुटेरे माफिया तंत्र को सबसे पहले ख़ुद से, सरकार से अलग करना होगा, पर क्या सच में ऐसा हो सकेगा?
आइये, नजर डालते हैं कि “दिए के नीचे” हो क्या रहा है, होना क्या चाहिए था और क्या क्या बेहद आसानी से हो सकता है?
जैसा कि पहले भी लिखा जा चुका है कि अधिकतर लोगों को इस बीमारी में किसी तरह के उपचार की कोई आवश्यकता ही नहीं होगी, आईसीयू और वेंटिलेटर की जरुरत तो नहीं के बराबर, लेकिन हुआ क्या? आपदा में दोहन करने में माहिर तंत्र, मेडिकल मैनेजराइ माफिया और बाबूशाही ने, बीमारी की बुनियादी जरूरतें समझे बगैर ही, डर का माहौल बनाया और अँधा बांटे रेवड़ी, चीन्ह चीन्ह के देय, की तर्ज पर मरीजों के उपचार, गरीबों के राशन, लोगों के रोजगार और सुकून की लूट में सब खुल्लमखुल्ला जुट गए। जबकि आज बेहद सख्त जरुरत थी, निष्पक्ष और निःस्वार्थ प्रयासों की।

संचार तंत्र की असीमित क्षमताओं के चलते, आज,जब जरुरत और संसाधन सबकी मुठ्ठी में हैं, तब कहाँ चूक होती गईं ?
ज़रूरत थी, भूखे जरूरतमंदों के लिए रोटी बैंक बनाने की, ताकि आधार, मोबाइल और हेल्पलाइन के जरिये, उन तक समय से वास्तविक मदद पहुंचाई जा सके और कितने लोगों को वाक़ई जरुरत है, इसका आंकड़ा भी सरकार के पास भविष्य के लिए उपलब्ध हो जाता और कितने भोजन पैकेट बने और कितने गरीब फिर भी भूखे रह गए, कितनों ने इन भोजन सामग्रियों का दुरूपयोग और अनर्गल संग्रह किया, इसका भी हिसाब हो जाता, लेकिन फिर लूट कैसे होती?
जरुरत थी, नॉन कोविड रेगुलर मरीजों के उपचार की व्यवस्थाओं को बरक़रार रखने की और बड़े बड़े नर्सिंग, आयुर्वेदिक कालेज, और अन्य दूसरे अस्पताल का, जो डीमेटाई व्यापमि व्यवस्था पर कागजों पर चल रहे थे, चल रहे हैं और अमूमन मुंह दिखाई के दिन के अलावा, साल के बाकी दिन खाली पड़े रहते है, (इस आपदा काल में तो वैसे भी सब खाली ही पड़े हैं), सक्षमता और सार्थकता से उपयोग किये जाने की, ढेर जगह है यहाँ, सभी के पास। उनकी सीट संख्या के अनुसार बिस्तर, स्टाफ और दैनदिनीं आवश्यकता की सभी सहूलियतें भी हैं और सबसे बड़ी बात यह है कि लाइलाज बीमारियों में, यह लोग ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस से लेकर दुनिया भर को शर्तिया ठीक करने वाले दावे करते आए हैं, जबकि बाद में नाम देश का ख़राब होता रहा है, इस तरह के क्लेम किये जा रहे विशिष्ट उपचारों के लिए भी, यह आपदा में आविष्कार का सुनहरा समय होता। जैसे कि दुनिया आज एक काढ़े के बारे में ही सुन रही है और जिसका विज्ञापन कई बड़े नेता मंत्री भी करते दिखाई दे रहे हैं। तब इसके असली असर को अमलीजामा पहना, डाटा बनाने का यह बेहद उचित अवसर था, इसी तरह सूर्यनमस्कार, सभी तरह के योग आसन, शुद्ध सात्विक ताजा भोजन और आमोद प्रमोद के बाकी साधन भी, इनके पास हैं और लोगों को तनावमुक्त रखने के लिए, विभिन्न तरह एक मसाज, मनोरंजन और सत्संग भी इनके पास हैं, तब क्यों नहीं, इनके इस्तेमाल पर विचार किया गया?

फिर क्यों सरकारी तंत्र, चंद बड़े धनपिचासों के निजी मेडिकल कालेजों की और ही आकर्षित हुआ? क्यों नहीं, इन्हे गंभीर और अतिगंभीर के लिए आरक्षित किया गया? इनमे और लॉकडाउन की अघोषित सजा भुगत रहे बाकी अस्पताल, नर्सिंग होम्स क्लिनिक्स में रेगुलर उपचार, कई महीनों से बंद हैं, लेकिन किराए, बिजली, पानी, तनख्वाह जैसी सारी जबाबदेहियाँ सतत जारी है और जिसका ख़ामियाज़ा इनके जरिये सेवा दे रहे डॉक्टरों के अलावा, यहाँ बुज़ुर्ग और बीमार लोगों को भी उनका नियमित उपचार ना मिल पाने की वजह से उन्हें भुगतना पड़ रहा है, और इसीलिए, इस आपदा काल में, मरने वालों में, इनकी संख्या बेहद ज़्यादा है और इनकी मौत का असली कारण वायरस नही, बल्कि प्राइमरी बीमारी का उचित उपचार और समय से उचित भोजन नही मिल पाना है ।
जरुरत थी, कि इन सभी अस्पतालों को लोकल मरीजों की प्राथमिकता के आधार पर इन्हें विशिष्ट उपचार के लिए प्रतिबद्ध किया जाता? कई सारे वीडिओ और मेसेज के जरिये ख़बरें और समस्याएं लगातार जगज़ाहिर हो रही हैं कि जिनको अन्य गम्भीर तकलीफ़ें थीं, उन मरीजों को सिर्फ संभावना या गलत जांच की वजह से घरों से ले जाकर, बहुत दूर अकेले में आइसोलेट कर दिया गया, जहाँ डर की वजह से या संसाधनों की कमी की वजह से, इन्हे ना तो समय से भोजन ही मिला और ना ही किसी ने प्राथमिक बीमारी वाला उपचार ही उपलब्ध कराया, और आंकड़े भी बताते हैं कि, कई डायबिटिक मरीजों, कैंसर, हार्ट या अन्य मरीजों की यहाँ मृत्यु हुई, जो संभवतः टाली जा सकती थी।
और चूँकि इस बीमारी का कोई उपचार नही है, सिवाय धूप, भरोसा और उचित भोजन के, इसलिए सभी संभावित लोगों को यहाँ आराम से रखा जा सकता है और सिर्फ अतिगंभीर मरीजों को कोविड़ उच्च चिकित्सा केंद्र में शिफ्ट किया जाता ताकि सभी बड़े अस्पताल, नर्सिंग होम, मेडिकल कॉलेज, निजी अस्पताल और क्लिनिक्स गंभीर बीमारियों के लिए भी बचे रह सकते थे । बाकी सभी को क्वारंटाइन करने के लिए नर्सिंग, आयुर्वेदिक और अन्य कालेजों, बड़े खेलमैदान, स्कूल, कालेज, ऑडिटोरियम जैसी बड़ी जगहों पर बिस्तर, मच्छरदानी, पानी भोजन के साथ रखने से एक लाख से कहीं अधिक बिस्तर बेहद आसानी से बेहद कम लागत में उपलब्ध हो सकते हैं और वायरस संक्रमण समाप्त होने पर इन्हें स्कूलों, शेल्टर होम्स आदि को देकर इनका सदुपयोग भी किया जा सकता है। बाहर से आ रहे, मजदूर, श्रमिक और ऐसे सभी लोगों को भी, प्रदेश की सीमाओं पर, कुम्भ के पैटर्न पर केम्पिंग कराकर, भोजन पानी, आराम और चिकित्सा सहायता, जांच आदि देकर उचित साधन से उनके घर, आगे रवाना करवाया जा सकता है और इन सभी के गृह जिलों में ही इनकी आगे की देखभाल, रोजगार और जीवन यापन की व्यवस्थाएं की जाएँ, तो बहुत बड़ी जनसँख्या को अभी भी सुनियोजित किया जा सकता है और यही बात प्रधानमंत्री जी ने भी तो आखिर कह ही दी ना कि लोकल ही चाहिए और इसी से जीतेंगे भी हम।
और भी बहुत से आसान उपाय हैं, इस बीमारी से सक्षमता से लड़ने और दुनिया के सामने उदाहरण प्रस्तुत करने के! प्रदेश का राजस्व भी एक लाख करोड़ सालाना तक इस आपदा, अभाव काल में बढ़ाया जा सकता है और सभी हाथों को रोज़गार और भूखों को भोजन भी दिया जा सकता है, बशर्ते कि नक्कारखाने में तूती की आवाज अगर कोई सुन रहा हो तो।
मिलते हैं कल, तब तक जय श्री राम ।

डॉ भुवनेश्वर गर्ग डॉक्टर सर्जन, स्वतंत्र पत्रकार, लेखक, हेल्थ एडिटर, इन्नोवेटर, पर्यावरणविद, समाजसेवक
मंगलम हैल्थ फाउण्डेशन भारत
संपर्क: 9425009303
drbgarg@gmail.com


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