करोना कालखंड के पांचवे अध्याय का दसवां दिन, फेल होता तंत्र और बेवजह लुटता-मरता आम आदमी
सारी दुनिया में जब इस बीमारी के संक्रमण का कर्व उतार पर है, न्यूजीलेंड ने तो पूरी तरह से इस बीमारी पर काबू पा लिया है, तब हमारे देश में इस बीमारी के, ख़ास तौर पर, दिल्ली, मुंबई और तमिलनाडु के सुरसामुख रूपी, बढ़ते आंकड़ों ने यक़ीनन आज हर देशवासी को चिंता डाल दिया है, ढेरों फोन और मैसेज सिर्फ इसी बात को लेकर लगातार आ रहे हैं, कि अब क्या होगा और “आम आदमी” क्या करे?
यक़ीनन बात है तो अब चिंता की, क्योंकि अपने तुगलकी फरमानों से स्वास्थ्य तंत्र को हलकान कर देने वाली, दिल्ली और मुंबई की सरकारों ने, जनता को उसके हाल पर मरने के लिए छोड़ दिया है, और खुद खा पीकर, अपनी अपनी ऐशगाह में विश्राम करने चली गईं है, अंधेर नगरी चौपट राजा की तर्ज पर, तंत्र पूरी तरह निरंकुश हो गया है सो अलग, ऊपर से लॉकडाउन हटा दिए जाने से रोजी रोटी तलाशने की चिंता में, आम आदमी, सड़कों की भीड़ का हिस्सा बनने और संक्रमित होने पर मजबूर हो गया है।
जो लोग ज़मीनी हकीकत से वाकिफ हैं, उन्हें पता है कि इस आपदा के समय कोरोना वॉरियर डॉक्टरों, नर्सों, पैरामेडिक्स को कितनी कठोर मेहनत करनी पड़ रही है और किन जानलेवा परिस्थितियों से गुजरना पड़ रहा है, लेकिन फिर भी सारा ठीकरा उन्हीं के सर फूट रहा है। फिजूल विज्ञापनों पर बेतहाशा धन फूंक रही दिल्ली सरकार, बिना किसी ज़रूरत के, देश की राजधानी की स्वास्थ्य व्यवस्था पर अनुचित दबाव बना रही है, जिस पर स्वाभाविक रूप से सभी देशवासियों का हक है, लेकिन “दिल्ली और गैर दिल्ली का जहर” देश में बोया जा रहा है। लोग बुरी तरह हैरान और परेशान हैं अपने परिजनों के उपचार के लिये, उन्हें एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल भगाया जा रहा है, यह कहकर कि सरकार की तरफ से उन्हें मनाही है, नॉन कोविड मरीजों और दिल्ली के बाहर के मरीजों के इलाज के लिए और उस पर से हद ये है कि कोविड की जांच रिपोर्ट या तो मिलेगी नहीं और मिलेगी भी तो चार दिन बाद, पर तब तक क्या होगा?
कहाँ है वो हजारों बेड, जिनका साल भर पहले दावा किया गया था?
कहाँ हैं वो विश्वस्तरीय मोहल्ला क्लीनिकें, जिनके प्रचार प्रसार पर करोड़ों रुपये विज्ञापनों में फूँक दिए गए थे और अब करोना के नाम रोजाना फूंकें जा रहे हैं?
गंभीर मरीज, अस्पतालों के दरवाजों पर, एम्बुलेंसों में तड़पते दिख रहे हैं, परिजन रोते किलपते उनकी जान बचाने गुहार लगाते नजर आ रहे हैं, लाशों से बेतरतीब ठूंस ठूंस कर भरी एम्बुलेंसें दिख रही हैं, जिनमे शवों की फजीहत होती साफ़ देखी जा सकती है, लेकिन दिल्ली नरेश, बिना नागा सुबह शाम घंटों, टीवी मीडिया, अखबारों में मसखरी करते और डॉक्टरों अस्पतालों को धमकाते देखे जा सकते है, जो कल तक, दिल्ली वालों से कह रहे थे कि अस्पताल ना जाओ, घर में ही रहो, आज कह रहे है कि इस बीमारी में मर नहीं जाओगे, सिर्फ साढ़े चार सो लोग ही तो मरे हैं।
गोया कि इन मौतों से किसी को कोई दुःख होना ही नहीं चाहिए, जबकि शमशानों, कब्रिस्तानों के आंकड़े हजारों में हैं और खुद केजरीवाल सरकार, अस्पतालों पर फोकस करने की जगह, तीन नए शमशान बनवाने के टेंडर जारी कर चुकी है, डॉक्टरों नर्सों को महीनों से ना तो तनख्वाहें बाँटी जा रही हैं, और ना ही लोगों को किसी तरह की कोई राहत ही मिल रही है।
मुंबई के आंकड़े भी पचास हजार से अधिक हो गए हैं, उधर दिल्ली में आंकड़ों को छुपाने की नूराकुश्ती चल रही है, दिल्ली की सरकार के अमानवीय आदेशों की वजह से लोगों की ना तो जांचे ही की जा रही हैं और ना ही मरते मरीजों को कोई उपचार ही मिल पा रहा है, ऊपर से दिल्ली नरेश के इशारे पर दिल्ली के बड़े कॉर्पोरेट अस्पतालों ने मरीजों के उपचार के लिए एक़ नया दांव खेल दिया है, दिल्ली के एक निजी बड़े कारपोरेट अस्पताल ने तो बाकायदा उपचार का मीनू कार्ड जारी कर दिया है, इसके अनुसार किसी भी मरीज को भर्ती करने से पहले चार से आठ लाख रुपये (केटेगरी अनुसार) अनिवार्य रूप से जमा करवाने ही होंगे, बिना उसके मरीज भर्ती ही नहीं किया जाएगा और कम से कम बिल, तीन लाख रूपये देना ही होगा, फिर भले ही मरीज, फिर एक घंटा या एक दिन ही रुके, या सर्वाइव करे।
सरकार निजी अस्पतालों में भुगतान करेगी नहीं, बीमा कंपनियों ने इतने भारी भरकम बिलों से भुगतान से साफ़ मना कर दिया है, सरकारी अस्पताल उपचार करेंगे नहीं, फिर आम आदमी कहाँ जाएगा? उस पर कड़वी सच्चाई यह है कि दिल्ली में एक तो बहुत कम जांचें हो रही हैं और जो हो भी रही हैं, उनमे संक्रमितों की संख्या बेहद ज्यादा निकल रही है, गलत जांचो का षड्यंत्र भी देखने को मिल रहा है, ताकि निरोगी इंसान को भर्ती और इलाज के नाम पर ठगा जा सके।
क्या होगा, जब यह नियम और पैमाने सभी बड़े कारपोरेट कॉर्पोरेट पंचतारा अस्पतालों का सामूहिक आदेश बन जायेंगे? कुछ तो इससे भी अधिक लक्जरी मीनू बना देंगे, छोटे छोटे ईमानदार मध्यम मेहनती अस्पताल वेसे ही बंद करवा दिए गए हैं और अगर कोई मानवीयता के सैलाब में डूब, काम करने की जुर्रत भी करेगा तो, सिस्टम, कलम और भीड़तंत्र उसे कूट कूट कर जेल में डलवा देगा, पेसे देगा नही, सो अलग! और सबसे बड़ी बात यह है कि फ़रक पड़ना भी किसे है, यूँ भी बहुत दिन हो गए इन पर फूल बरसाते।
बड़े अस्पतालों में भी मालिक, कब मानवीयता या संवेदना दिखाने, खुद फ्रंट पर आते हैं? सीमा पर देश के लिए जान दे रहे सैनिकों और इस जानलेवा बीमारी में फ्रंट पर जुटे डॉक्टरों नर्सों की जान की परवाह यूँ भी इस देश में किसे है? मौका पाते ही, नेता और उनका तंत्र, इन्हे वेतन का लालची और लापरवाह साबित कर देगा, फिर भले ही इस जानलेवा बीमारी में उनकी जान ही क्यों ना चली जाए।
फिर भुगतेगा कौन? यक़ीनन सीमा पर जान गंवाते सैनिक की तरह, इस बीमारी से जूझते डॉक्टर, नर्स और दो सो रुपये की मुफ्त बिजली के लिए अपना वोट बेचता “आम आदमी”
तो सच तो यही बाक़ी है कि…..
जी सको तो जी लो ख़ुदसे, कि सरकार अब ख़ुद ही दुकान है,
जो चढ गए इक बार ड्योढ़ी इनकी, फिर भगवान भी हैरान है।
तब तक, जय श्रीराम।
डॉ भुवनेश्वर गर्ग ईमेल : drbgarg@gmail.com
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डॉक्टर सर्जन, स्वतंत्र पत्रकार, लेखक, हेल्थ एडिटर, इन्नोवेटर, पर्यावरणविद, समाजसेवक
मंगलम हैल्थ फाउण्डेशन भारत