अनंत चतुर्दशी और गणपति विसर्जन

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वामन द्वादशी को भगवान विष्णु ने मनुष्य के रूप में पहली बार वामनावतार लिया था। अतः भाद्रपद के शुक्लपक्ष की द्वादशी को श्रीवामन भगवान जन्मोत्स्व मनाया जाता है। अगले दिन त्रयोदशी को दक्षिण भारत में ओणम मनाया जाता है। ओणम के दिन महाराज बलि वामन भगवान की आज्ञानुसार अपनी प्रजा से मिलने पृथ्वीलोक में आते हैं तथा चतुर्दशी को अनंत भगवान की पूजा की जाती है। ये तीनों त्योहार कथा की दृष्टि से आपस में पूर्णतया जुड़े हुए हैं। शास्त्रों और पुराणों में भाद्र मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को अनंत चतुर्दशी कहा गया है। इस दिन किए गए पुण्य का अंत नहीं होता है, इसलिए इस दिन को अनंत चतुर्दशी कहा गया है। इस दिन शेषनाग की शैय्या पर शय़न में लीन भगवान विष्णु की पूजा अनंत नाम से होती है। भगवान विष्णु को यह नाम इसलिए मिला है क्योंकि इनकी आदि और अंत का पता किसी को नहीं है। 14 लोकों में व्याप्त सभी कालों में वर्तमान रहने वाले नारायण जब देवशयनी एकादशी के दिन राजा बलि के लोक में चले जाते हैं तो भक्तगण उन्हें तलाशते हैं और उनकी अनंत नाम से पूजा करते हुए 14 गांठों वाला अनंत सूत्र बाजू में बांधते हैं जो 14 लोकों का प्रतीक है। माना जाता है कि भगवान विष्णु 14 लोकों में जहां भी होंगे इन 14 गांठों के द्वारा उनके आस-पास रहेंगे। इस तरह यह तीनों त्योहार घटनाक्रम और कथा की दृष्टि से आपस में गुंथे हुए हैं।

श्रीवामन अवतार, ओणम तथा अनंत चतुर्दशी

भगवान विष्णु महर्षि कश्यप की पत्नी और देवताओं की माता अदिति के गर्भ से वामन अवतार के रूप में अवतरित हुए थे। उनके अवतरण की कथा अति अद्भुत है। दैत्य राज बलि ने अपने गुरु शुक्राचार्य की सहायता से अपने सौतेले भाई इन्द्र को स्वर्ग के राज्य से च्युत कर दिया था। देवता मारे मारे फिर रहे थे और सहायता के लिये कभी ब्रम्हा जी तो कभी शिव जी से सहायता की याचना कर रहे थे। लेकिन उन्हें सहायता नहीं मिली। निराश देवगण सहायता के लिए विष्णु जी के पास पँहुचे। भगवान विष्णु उस समय ऋषि रुप में सिद्धाश्रम में तपस्या कर रहे थे। देवताओं की हिम्मत उन्हें साधना से उठाने की नहीं पड़ी। वे सहायता के लिए अपने पिता महर्षि कश्यप के पास पँहुचे। महर्षि कश्यप अपनी पत्नी अदिति के साथ सिद्धाश्रम पँहुचे। उन्होंने तपस्या रत भगवान विष्णु की ऋचाओं से अभ्यर्थना की। साधना में लीन भगवान विष्णु ने आँखें खोलीं और प्रसन्न होकर महर्षि कश्यप से वरदान माँगने को कहा। महर्षि ने उनसे अपनी पत्नी अदिति के गर्भ से पुत्र रुप में प्रकट होकर देवताओं की सहायता करने का वरदान माँगा। भगवान विष्णु तथास्तु कहते हुए माता अदिति के गर्भ से वामन रुप में प्रकट हुए। सिद्धाश्रम में उनका अवतार होने के कारण यह क्षेत्र वामनाश्रम भी कहा जाता है। कालान्तर में इसी सिद्धाश्रम के कुलपति महर्षि विश्वामित्र ने यज्ञ करते हुए भगवान राम की सहायता से ताड़का, मारीच और सुबाहु का वध करवाया था।

राजा बलि यज्ञ कर रहे थे। भगवान वामन यज्ञस्थल पर पँहुचे। यज्ञस्थल पर मौजूद सभी लोग भगवान वामन का मोहित रुप देखकर अभिभूत थे। राजा बलि ने भगवान वामन से दान माँगने को कहा। भगवान वामन ने वचनबद्ध करते हुए राजा बलि से साढ़े तीन डेग भूमि दान में देने की याचना किया। बलि के हाँ कहते ही उनका स्वरूप विराट हो गया। उन्होंने तीन डेग में तीनों लोकों सहित समस्त ब्रम्हांड को नाप लिया। आधा पग शेष रहने पर बलि उनके शरणागत हो गये। उन्होंने अपने बड़े भाई इन्द्र को स्वर्ग का राज वापस लौटा दिया और बलि को पाताल लोक का स्वामी बना दिया। साथ ही बलि के वरदान में बँधकर उनके द्वारपाल बन गये। वचनबद्ध राजा बलि अपना राज्य त्याग पाताललोक की ओर चले।चूंकि राजा बलि की प्रजा उनसे बहुत ही स्नेह रखती थी, अत: उनके वियोग में व्याकुल होकर रोने चिल्लाने लगी। भगवान वामन यह दृश्य देख द्रवित हो गये। इसलिए उन्होंने राजा बलि को वरदान दिया कि वह अपनी प्रजा से वर्ष में एक बार अवश्य मिल सकेंगे। अतः जिस दिन महाबलि केरल आते हैं, वही दिन ओणम के रूप में मनाया जाता है। वह दिन भाद्रपद शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को पड़ती है। अब राजा बलि से वचनबद्ध होकर भगवान वामन उनके द्वारपाल के रूप में पाताललोक चले। भगवान विष्णु के वियोग में उनके भक्तगण व्याकुल होकर उन्हें ढ़ूढ़ने लगे। निदानस्वरूप वे भगवान विष्णु की अनंत रुप में पूजा करने लगे। यह तिथि भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को पड़ती है। इस तरह श्री वामन द्वादशी, ओणम तथा अनंत चतुर्दशी आपस में कथासूत्र के रुप में पूर्णतया गुंथे हुए हैं।

अनंत सूत्र

इस अनंत सूत्र को बहुत ही पवित्र और शुभ फलदायी माना गया है। भगवान विष्णु के अनंत रूप की पूजा हेतु भाद्रपद शुक्ल पक्ष चतुर्दशी सबसे महत्वपूर्ण दिन माना गया है। इसी दिन गणेश विसर्जन भी किया जाता है। इस दिन भगवान विष्णु के भक्त पुरे दिन का उपवास रखते हैं और पूजा के दौरान पवित्र धागा बाँधते हैं। इस धागे को अनंत डोर कहा जाता है। इस डोर में 14 गांठें होती हैं। डोर में बंधी चौदह गांठ अलग-अलग लोकों का प्रतीक मानी जाती हैं। ऐसी मान्यता है कि जो पूरे चौदह साल तक सभी नियम से पूजा पाठ करके चौदह गांठ वाला सूत्र बांधता है उसे विष्णु लोक की प्राप्ति होती है।

अनंत चतुर्दशी व्रत कथा

पौराणिक युग में सुमंत नाम का एक ब्राम्हण था, जो बहुत विद्वान था. उसकी पत्नी भी धार्मिक स्त्री थी, जिसका नाम दीक्षा था. सुमंत और दीक्षा की एक संस्कारी पुत्री थी, जिसका नाम सुशीला था. सुशीला के बड़े होते होते उसकी माँ दीक्षा का स्वर्गवास हो गया.

सुशीला छोटी थी, उसकी परवरिश को ध्यान में रखते हुए सुमंत ने कर्कशा नामक स्त्री से दूसरा विवाह किया. कर्कशा का व्यवहार सुशीला के साथ अच्छा नहीं था, लेकिन सुशीला में उसकी माँ दीक्षा के गुण थे, वो अपने नाम के समान ही सुशील और धार्मिक प्रवत्ति की थी.

कुछ समय बाद जब सुशीला विवाह योग्य हुई, तो उसका विवाह कौण्डिन्य ऋषि के साथ किया गया. कौण्डिन्य ऋषि और सुशीला अपने माता पिता के साथ उसी आश्रम में रहने लगे. माता कर्कशा का स्वभाव अच्छा ना होने के कारण सुशीला और उनके पति कौण्डिन्य को आश्रम छोड़ कर जाना पड़ा.

जीवन बहुत कष्टमयी हो गया. ना रहने को जगह थी और ना ही जीविका के लिए कोई भी जरिया. दोनों काम की तलाश में एक स्थान से दुसरे स्थान भटक रहे थे. तभी वे दोनों एक नदी तट पर पहुँचे, जहाँ रात्रि का विश्राम किया. उसी दौरान सुशीला ने देखा वहाँ कई स्त्रियाँ सुंदर सज कर पूजा कर रही थी और एक दुसरे को रक्षा सूत्र बाँध रही थी. सुशीला ने उसने उस व्रत का महत्व पूछा. वे सभी अनंत देव की पूजा कर रही थी और उनका रक्षा सूत्र जिसे अनंत सूत्र कहते हैं वो एक दुसरे को बाँध रही थी, जिसके प्रभाव से सभी कष्ट दूर होते हैं और व्यक्ति के मन की इच्छा पूरी होती हैं. सुशीला ने व्रत का पूरा विधान सुनकर उसका पालन किया और विधि विधान से पूजन कर अपने हाथ में अनंत सूत्र धारण किया और अनंत देव से अपने पति के सभी कष्ट दूर करने की प्रार्थना की.

समय बीतने लगा ऋषि कौण्डिन्य और सुशीला का जीवन सुधरने लगा. अनंत देव की कृपा से धन धान्य की कोई कमी ना थी.

अगले वर्ष फिर से अनंत चतुर्दशी का दिन आया. सुशीला ने भगवान को धन्यवाद देने हेतु फिर से पूजा की और सूत्र धारण किया.नदी तट से वापस आई. ऋषि कौण्डिन्य ने हाथ में बने सूत्र के बारे में पूछा, तब सुशीला ने पूरी बात बताई और कहा कि यह सभी सुख भगवान अनंत के कारण मिले हैं. यह सुनकर ऋषि को क्रोध आ गया, उन्हें लगा कि उनकी मेहनत के श्रेय भगवान को दे दिया और उन्होंने धागे को तोड़ दिया. इस तरह से अपमान के कारण अनंत देव रुष्ठ हो गए और धीरे- धीरे ऋषि कौण्डिन्य के सारे सुख, दुःख में बदल गए और वो वन- वन भटकने को मजबूर हो गए. तब उन्हें एक प्रतापी ऋषि मिले, जिसने उन्हें बताया कि यह सब भगवान के अपमान के कारण हुआ हैं. तब ऋषि कौण्डिन्य को उनके पाप का आभास हुआ और उन्होंने विधि विधान से अपनी पत्नी के साथ अनंत देव का पूजन एवम व्रत किया. यह व्रत उन्होंने कई वर्षो तक किया, जिसके 14 वर्ष बाद अनंत देव प्रसन्न हुये और उन्होंने ऋषि कौण्डिन्य को क्षमा कर उन्हें दर्शन दिये. जिसके फलस्वरूप ऋषि और उनकी पत्नी के जीवन में सुखों ने पुनः स्थान बनाया.

अनंत चतुर्दशी व्रत की कहानी भगवान कृष्ण ने पांडवो से भी कही थी, जिसके कारण पांडवो ने अपने वनवास में प्रति वर्ष इस व्रत का पालन किया था जिसके बाद उनकी विजय हुई थी.

अनंत चतुर्दशी का पालन राजा हरिशचन्द्र ने भी किया था, जिसके बाद उनसे प्रसन्न होकर उन्हें अपना राज पाठ वापस मिला था.

अनंत चतुर्दशी व्रत का पालन कैसे करें

इस दिन सुबह जल्दी उठकर स्नान किया जाता है। कलश की स्थापना की जाती है, जिसमे कमल का पुष्प रखा जाता है और कुषा का सूत्र चढ़ाया जाता है।
भगवान एवं कलश को कुम कुम, हल्दी का रंग चढ़ाया जाता है।
हल्दी से कुषा के सूत्र को रंगा जाता है।
अनंत देव का आह्वान कर उन्हें दीप, दूप एवं भोग लगाते हैं।
इस दिन भोजन में पूरी खीर बनाई जाती हैं.
पूजा के बाद सभी को अनंत सूत्र बाँधा जाता हैं।
इस प्रकार अपने कष्टों को दूर करने हेतु सभी इस व्रत का पालन करते हैं।

गणपति विसर्जन

इस दिन देश के कई हिस्सों में गणेश विसर्जन किया जाता हैं। गणेश चतुर्थी और विनायक चतुर्थी के दिन गणेश जी को 10 दिनों तक घर में बैठाकर इस दिन उनकी विदाई की जाती हैं। खासतौर पर यह गणेश विसर्जन महाराष्ट्र में किया जाता है लेकिन अब लगभग पुरे देश में मनाया जाता है।

आप सभी मित्रों को अनंत चतुर्दशी एवं गणपति विसर्जन की हार्दिक बधाई एवं अनंत शुभकामनाएं !!!

✍️ डॉ अजय ओझा
अध्यक्ष – भारती श्रमजीवी पत्रकार संघं, झारखंड
संपादक सह ब्यूरोचीफ (झारखंड)– संपूर्ण माया
चेयरमैन — भोजपुरी फाउण्डेशन

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