द काश्मीर फाइल्स

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डाॅ अजय ओझा।

एक कहावत है कि जब रोम जल रहा था तब नीरो बंसी बजा रहा था । यह कहावत भारत में भी लागू हो गई जब 1990 में काश्मीर में नरसंहार हो रहा था , महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार हो रहा था, लाउडस्पीकर से “दीनदारों” द्वारा घोषणा की जा रही थी कि या तो “लाचार लोग” अपनी बहन, बेटियों को छोड़कर काश्मीर घाटी से चले जायें या फिर दीन के नाम पर मरने को तैयार रहें । और मजे की बात देखिए कि उस नरसंहार को इस देश के “शासक” , मीडिया और “मी लार्ड्स” देखते रहे और “लाचार” लोगों का कत्लेआम होता रहा । नारी को सामूहिक रौंदा जाता रहा । उच्चतम न्यायालय जो इस बात का दंभ भरता है कि वह केवल न्याय करता है, उस उच्चतम न्यायालय ने इस संबंध में प्रस्तुत याचिका पर सुनवाई तक करने से इंकार कर दिया । यह वही उच्चतम न्यायालय है जो किसी एक दीनदार की मृत्यु पर स्वतः संज्ञान लेकर अपनी निगरानी में एक जांच आयोग बैठा देता है, वही उच्चतम न्यायालय ने जांच करवाना तो छोडिए, याचिका सुनने से ही इंकार कर दिया । यह उसके न्याय तंत्र का एक छोटा सा प्रमाण है ।

बहुत सारे लोग, बुद्धिजीवी, मीडिया कर्मी, बॉलीवुड के कलाकार, शायर, लेखक , सेकुलर , नारीवादी, पशुप्रेमी वगैरह वगैरह इंसाफ, लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की आजादी, मानव अधिकार और न जाने किन किन विषयों पर ज्ञान झाड़ते हुए मिल जाएंगे । मगर इन सब दोगले लोगों ने उन “लाचारों” के कत्लेआम पर एक शब्द नहीं बोला । महिलाओं की अस्मिता लूटने वालों के विरुद्ध ना तो कलम चली और ना ही कोई रिपोर्ट किसी मीडिया में दिखाई गई । यहां तक कि एक “थप्पड़” पर आक्रोशित होने वाले कलाकारों ने उस भयावह नरसंहार पर कोई फिल्म तक नहीं बनाई । यदि कोई फिल्म बनाई भी गई तो “लव जिहाद” के प्रोपेगैंडा के तहत “शिकारा” जैसी फिल्म बनाई गई । जिससे जनता तक काश्मीर के उस नरसंहार की बात पहुंच ना सके । गंगा जमुनी तहजीब के नाम पर “गंगा” को ही खत्म करने का जो षडयंत्र पिछले 75 वर्षों से चल रहा है वह बदस्तूर जारी है ।

कहते हैं कि महापुरुष कभी कभी अवतार लेते हैं । बॉलीवुड की गंदगी इतनी ज्यादा हो गई कि वहां से सड़ाध आने लगी । जिससे पूरे देश में दुर्गंध फैलने लगी । ऐसे दोगले निर्माता, निर्देशक, गीतकार, हीरो, हीरोइन, कलाकारों का और उनकी फिल्मों का बॉयकॉट होने लगा । मगर ऐसे लोग खुद को बदलने के बजाय चीजों को झुठलाने में लगे रहे और जनता को फिर से भरमाने में लगे रहे । मगर जनता अब जाग चुकी है । वह अब भ्रमित नहीं होती बल्कि भरमाने वालों को चौराहे पर नंगा करती है ।

विवेक अग्निहोत्री ऐसे ही महापुरुष हैं जो बॉलीवुड की गंदगी में कमल की तरह खिल रहे हैं । काश्मीर से खदेड़े गये लोगों के दर्द ने उन्हें पिघला दिया । उनकी पत्नी पल्लवी जोशी जो खुद एक मंझी हुई कलाकार हैं ने काश्मीर की उन बलात्कार पीड़िताओं के दर्द को समझा और दोनों ने वो करने का प्रयास किया जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की । 1990 की उस त्रासदी को जन जन को दिखाने का बीड़ा उठा लिया । दीनदारों द्वारा लाचारों पर किये गये अत्याचार पर एक फिल्म बनाने का निर्णय ले लिया । विषय बहुत चुनौतीपूर्ण था । सत्य कहना, लिखना, बोलना, दिखाना हमेशा ही चुनौती पूर्ण रहा है । और इस देश में तो यह काम और अधिक चुनौतीपूर्ण है क्योंकि यहां फर्जी धर्मनिरपेक्ष लोग रहते हैं । बिके हुए पत्रकार रहते हैं । खैरात पर पलने वाले बुद्धिजीवी, सामाजिक संगठन रहते हैं । पद्म पुरस्कारों की चाह रखने वाले या राज्य सभा की सीट पाने की चाह रखने वाले सत्ता के गुलाम लेखक, साहित्यकार, गीतकार, शायर, कलाकार रहते हैं । ऐसे में सत्य दिखाने वाले और देखने वाले लोग कहां मिलेंगे ?

लेकिन कठिन काम करने वाले लोग ही “भागीरथ” कहलाते हैं । काश्मीर के उस दर्द को दिखाने का भागीरथी काम विवेक अग्निहोत्री, पल्लवी जोशी, अनुपम खेर और उनकी टीम ने किया है । “काश्मीर फाइल्स” के नाम से एक फिल्म बनाई है जिसका ट्रेलर 21 फरवरी को दिखाया जा चुका है । अब यह फिल्म 11 मार्च को रिलीज हो रही है । तथाकथित सेकुलर्स , इंटेलेक्चुअल्स, मीडिया के द्वारा इस फिल्म के खिलाफ एक वातावरण बनाया जा रहा है । इसे रुकवाने के लिए उच्च न्यायालय की शरण भी ली जा चुकी है । और भी हथकंडे अपनाये जा सकते हैं । मगर सत्य की आवाज ज्यादा दिनों तक दबाई नहीं जा सकती है । अब वो समय आ गया है जब उस “कटु सत्य” को फिल्म के माध्यम से देखने का मौका मिलेगा । इस फिल्म को एक बार अवश्य देखें और यदि पसंद आये तो अपने मित्रों को भी देखने के लिए कहें ।


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