बहुत बड़े थे,छोटे से लाल बहादुर शास्त्री

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राज खन्ना ।

           प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठते हुए लाल बहादुर शास्त्री ने बापू के शब्द याद किये थे,”हल्के-फुल्के बैठो ! न कि तन कर!” यह विनयशीलता कमजोरी की देन थी ?  जबाब उनका छोटा यादगार कार्यकाल है। 1962 की हार से देश मायूस था। 1965 की जीत ने रीढ़ सीधी की। मस्तक उठा। हौसले की वापसी से चेहरा खिला।

        पंडित नेहरु की जिंदगी में सवाल उठने लगा था, नेहरु के बाद कौन? अखबारों में और राजनीतिक गलियारों में इसे लेकर अटकलें लगती रहती थीं। नेहरु की चिता की राख भी ठंडी नही हुई थी। मोरारजी भाई के घर समर्थकों की सूची को लेकर माथा-पच्ची जारी थी। विपक्षी खेमा विकल्प की तलाश में था। लाल बहादुर शास्त्री सर्वसम्मति के पक्ष में थे। हालांकि मोरारजी के मुकाबले जीत को लेकर आश्वस्त थे। इंदिराजी को चुनौती मानते थे। गोकि वह खुली दौड़ में नही थीं। मोरारजी के खेमे की जल्दबाजी उसे भारी पड़ी। अपने प्रिय नेता के निधन के शोक में डूबे पार्टी के तमाम सांसदों को अकुलाहट अखरी। के.कामराज ने लाल बहादुर शास्त्री के पक्ष में सर्वसम्मति घोषित की। मोरारजी को इस कुर्सी के लिए आगे 13 साल इंतजार करना शेष था। पंडित नेहरु की चमकीली छवि। विशाल राजनीतिक व्यक्तित्व।  वैश्विक पहचान। उस महान विरासत की जिम्मेदारी छोटी कद-काठी के लाल बहादुर शास्त्री के जिम्मे थी। सच्चाई-सादगी , विनम्रता-कर्मठता की पूंजी पास थी। उस बड़ी कुर्सी के लिए इतना भर क्या काफी था? जबाब अगले दिनों में उन्हें देना था।

   चीन से पराजय ने देश का केवल मनोबल नही तोड़ा था। चुनौतियां सीमाओं के साथ आंतरिक मोर्चे पर भी बढ़ी थीं। सैन्य तैयारियों के लिए संसाधनों की जरूरत थी। खाद्यान्न संकट विकराल था। महंगाई पर काबू पाना जरूरी था। रोजगार के अवसरों की समस्या थी। ऊपरी स्तर पर भ्रष्टाचार की बदबू फैल रही थी। हिंदी के सवाल पर दक्षिण अशांत था। देश का नेतृत्व हाथ में था। पार्टी में स्थिति निर्द्वन्द नही थी।

          शास्त्री जी की पृष्ठभूमि अभावों की थी। सिर्फ़ डेढ़ साल की उम्र में पिता को खोया । नाना के घर परवरिश हुई। स्कूल पहुंचने के लिए नंगे पैर मीलों पैदल रास्ता तय किया। सिर पर किताबें रखकर पानी बीच से भी गुजरे। कम कपड़ों में काम चलाया। सिर्फ 16 साल की उम्र में आजादी की लड़ाई में जुड़ गए। देश आगे। परिवार पीछे । छोटा कद। कमजोर काया। बहुतों की फब्तियां। पर कमियों ने कुंठित-कमजोर नही किया। संघर्षों ने हर कदम नई शक्ति दी।

           15 नवम्बर 1956 को महमूदनगर ( हैदराबाद ) में बड़ी रेल दुर्घटना हुई। 112 यात्री मारे गए। अनेक घायल हुए। शास्त्रीजी ने रेल मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। मंत्री के नाते अपनी नैतिक जिम्मेदारी मानते हुए। नेहरु जी इस्तीफा स्वीकार करने को तैयार नही थे। शास्त्री जी फैसले पर अटल थे। फिर नेहरु ने इस्तीफ़ा स्वीकार करते हुए सदन में कहा,”यद्यपि दुर्घटना के लिए वह जिम्मेदार नही हैं। पर नैतिकता के उच्च मानदंड की वह मिसाल पेश कर रहे हैं।” इस रेल दुर्घटना पर सदन में हुई बहस पर शास्त्री जी का जबाब याद करना चाहिए,” मेरा छोटा कद और मेरी नम्रता को मेरी शारीरिक कमजोरी माना जा सकता है। पर मैं भीतर से कमजोर नही हूँ।”

       और उनकी मजबूती- काबिलियत हर कदम नजर आयी। उत्तर प्रदेश सरकार के संसदीय सचिव के रुप में उनके प्रदर्शन ने उन्हें जल्दी ही केन्द्र में पंडित नेहरु के मंत्रिमंडल में पहुंचा दिया। विभिन्न विभागों की जिम्मेदारी के अलावा पंडित गोविंद बल्लभ पन्त की मृत्यु के बाद वह गृह मंत्री भी रहे।  मंत्रिपद ने उन्हें प्रशासनिक कौशल दिया। तो पंडित जी के भरोसे और सानिध्य ने राजनीतिक चातुर्य। प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठते समय उनके पास देश और सरकार की समझ का विपुल भंडार था।  सरलता। सादगी। पारदर्शिता। धवल छवि। उनके व्यक्तित्व का श्रंगार था। वह देश की सबसे ऊंची कुर्सी पर थे। पर आम आदमी उन्हें अपने पास । अपने जैसा।अपनी पहुंच में पा रहा था।

    प्रधानमंत्री की जिम्मेदारी संभालते ही उन्होंने संकेत दे दिए कि उन्हें निर्देशित नही किया जा सकता।  मंत्रिमंडल तय करते समय उन्होंने पार्टी स्तर पर किसी सहमति की जरुरत नही समझी। मंत्रियों की सूची सीधे राष्ट्रपति को भेजी। इंदिरा गांधी की प्रधानमंत्री पद की महत्वकांक्षा से वह परिचित थे। अपेक्षाकृत कम महत्व के सूचना प्रसारण विभाग को उन्हें  सौंपकर कद को बांध दिया । विदेश मंत्री पद के लिए उनके पास मोहम्मद करीम छागला के नाम का सुझाव आया। शास्त्री जी ने कहा कि वह पाकिस्तान से संबंध सुधारना चाहते हैं। मुस्लिम होने के नाते अपनी निष्पक्षता प्रदर्शित करने के प्रयास में छागला के पाकिस्तान के प्रति अधिक कटु होने की आशंका है। विदेश मंत्री उन्होंने अनुभवी स्वर्ण सिंह को बनाया।

       भ्रष्टाचार पर अंकुश उनकी प्राथमिकता में था। वरिष्ठ कांग्रेस नेता के. संथनम की अगुवाई में उन्होंने इस सवाल पर कमेटी बनाई। गृह मंत्रालय के स्पेशल पुलिस इस्टेबलिशमेंट को उन्होंने सेंट्रल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन ( सी बी आई ) में बदला। यह करते समय यकीनन उन्हें न पता रहा होगा कि अगली सरकारों को वह राजनीतिक विरोधियों से निपटने का औजार सौंप रहे है। पंजाब के ताकतवर मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों को उन्होंने एस आर दास आयोग की ख़िलाफ़ रिपोर्ट के बाद इस्तीफे को मजबूर किया। न्यायधीश एच आर खन्ना की रिपोर्ट के आधार पर उड़ीसा के तत्कालीन मुख्यमंत्री बिरेन मिश्र और पूर्व मुख्यमंत्री बीजू पटनायक पर मुकदमा कायम करा दिया। जांच से पीछे   हटने वाले वित्त मंत्री टी टी कृश्नामचारी की छुट्टी करने में उन्होंने देर नही की।

          प्रधानमंत्री पद संभालने के सिर्फ सात महीने के भीतर घरेलू मोर्चे के साथ ही सीमाओं की रक्षा की चुनौती दरपेश थी। कच्छ के रण में पाकिस्तान ने मोर्चा खोल दिया। फरवरी 1965 में गुजरात पुलिस के गश्ती दस्ते ने सीमा के 2.4 कि.मी. भीतर  32 किलो मीटर लम्बी एक पगडंडी देखी। पाकिस्तान ने इसे भारी वाहनों के लिए बनाया था। उसका एयरपोर्ट भी पास था। सामरिक दृष्टि से वह बेहतर स्थिति में था। अमेरिका उसे मदद कर रहा था। सोवियत संघ भी पाकिस्तान से संबंध सुधारने की राह पर था। ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने उन्हें तीसरे पक्ष की मध्यस्थता के लिए राजी कर लिया। यह भारी रियायत थी। पर  युद्ध टालने की शर्त थी। बाद में 18 फरवरी 1968 के फैसले में कच्छ के रण पर भारत के पूर्ण अधिकार को नही माना गया। कुल 3500 वर्ग मील के क्षेत्र में 300 वर्ग मील इलाका पाकिस्तान के हिस्से में गया।

   पर शांति की यह कोशिश निरर्थक थी। कश्मीर के मोर्चे पर पाकिस्तानी गोलीबारी बढ़ती गई। बड़े पैमाने पर पाक सेना से प्रशिक्षित घुसपैठियों के जरिये कश्मीर में बगावत का स्वांग रचा जा रहा था। कूटनीतिक मोर्चे पर भारत के ऐतराज बेअसर थे। भारत के लिए सोवियत प्रधानमंत्री कोसिगिन का 4 सितम्बर 1965 का पत्र बड़ा झटका था। कोसिगिन ने लिखा,” यह समय सही-गलत का फैसला करने का नही है। यह समय सैनिक कार्यवाई को फौरन खत्म करने, टैंकों को रोकने और तोपों को खामोश करने का है।” अमेरिका का पाकिस्तान की ओर झुकाव। चीन के खतरे और सोवियत संघ की बेरुखी के बीच भारत को अपनी धरती और सम्मान दोनो की रक्षा करनी थी।

   पाकिस्तान ने 1 सितम्बर को कश्मीर के अखनूर-जम्मू सेक्टर में युद्ध विराम सीमा का उल्लंघन करके हमला बोल दिया था। 3 सितम्बर को शास्त्रीजी ने पंजाब में अंतर्राष्ट्रीय सीमा लांघकर पाकिस्तान कूच करने का आदेश दे दिया। उन्होंने जनरल जे एन चौधरी से कहा कि इससे पहले कि वे कश्मीर पहुंचे ,मैं लाहौर पहुँच जाना चाहता हूँ। सच तो यह है कि चीन के हाथों पराजय के सबक से भारत काफी सीखा था। कच्छ के रण में पाकिस्तान की सैन्य गतिविधियों के बाद से ही भारत की सेना युद्ध के लिए तैयार थी। कश्मीर के मोर्चे पर दबाव कम करने के लिए अमृतसर,फिरोजपुर और गुरुदासपुर से तीन तरफा हमला किया गया। दो दिन बाद ही स्यालकोट का भी मोर्चा खोल दिया गया। 23 सितम्बर 1965 को भारत-पाकिस्तान ने युद्ध विराम की घोषणा कर दी। शास्त्री जी को आगे बढ़ती भारतीय सेना के फिरोजपुर सेक्टर के जवानों को राजी करने के लिए मशक्कत करनी पड़ी थी। उन्हें अंतरराष्ट्रीय और खासकर अमेरिका के दबाव की जानकारी दी गई थी। इस युद्ध में भारत पाकिस्तान के 470 वर्ग मील और पाक अधिकृत कश्मीर के 270 वर्गमील इलाके को कब्जे में लेने में सफल हुआ था। पाकिस्तान के कब्जे में भारत का 210 वर्गमील इलाका गया था। थल सेनाध्यक्ष जनरल जे एन चौधरी से सवाल हुआ था कि भारतीय सेनाओं की बढ़त धीमी क्यों थी? जनरल का जबाब था कि हम इलाके पर कब्जे के लिए नही, पाकिस्तान के हथियार भण्डार नष्ट करने के लिए लड़ रहे थे। वायु सेनाध्यक्ष एयर मार्शल अर्जुन सिंह ने भी इसकी पुष्टि की थी। पश्चिमी कमान के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल हर बक्श सिंह के मुताबिक लाहौर पर कब्जा सैन्य लक्ष्य में शामिल नही था। लाहौर एक बोझ होता। युद्ध हम पर थोपा गया । हम दुश्मन को सबक सिखाने में पूरी तरह सफल रहे।

      इस जीत के साथ शास्त्री जी का कद बहुत बड़ा हो गया। उनकी जयकार देश के हर हिस्से और हर जुबान पर थी। उनकी पुकार पर देश एकजुट था। राष्ट्रीय संकट की घड़ी में सारे मतभेद और कमियां दर किनार थीं। खाद्यान्न संकट और अमेरिका की सहायता शर्तों के बीच उन्होंने कहा बेइज्जती की रोटी से इज्जत की मौत भली। थाली में सब्जी है तो दाल छोड़ो। हफ्ते में एक शाम उपवास करो। लोग उससे आगे के लिए तैयार थे। सिर्फ तैयार नही। आबादी के बड़े हिस्से में ऐसा करके दिखाया। क्यों ? लोगों को पता था कि गरीबी में पला-बढ़ा उनका नायक उस जिंदगी को सिर्फ जी नही चुका। सबसे बड़ी कुर्सी पर रहकर भी जी रहा है। उसकी वाणी-आचरण एक है। उनका जय जवान जय किसान नारा घर-घर गूंजा। अमीर-गरीब सब  सेवा-सहयोग के लिए तन-मन-धन साथ जुटे। कांग्रेस के लिए त्याज्य आर एस एस को युद्ध के समय उन्होंने दिल्ली की ट्रैफिक नियन्त्रण व्यवस्था सौंप दी।

कामराज योजना में मंत्रिपद छोड़ने के बाद शास्त्री जी के भोजन की थाली एक सब्जी में सीमित हो गई थी। उन्होंने अपनी मनपसंद आलू की सब्जी  खानी छोड़ दी थी, क्योंकि उन दिनों आलू महंगे हो गए थे। दम्भी, बड़बोले और दौलत बटोरने में लगे नेताओं की भीड़ में शास्त्री जी की विनम्रता-कर्मठता-ईमानदारी खुशबू के झोंके जैसी थी। रोजमर्रा की जरूरतों के लिए जूझती-पिसती आबादी आगे के सफर के लिए उसे साँसों में भर लेना चाहती थी।

  कुछ शेष था। बात-चीत की शक्ल में। जिसके लिए तैयार होने का जबरदस्त दबाव था। 20 सितम्बर 1965 को सुरक्षा परिषद ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास किया। भारत-पाकिस्तान दोनो की सेनाएं 5 अगस्त 1965 के पहले की स्थिति में वापस जाएं की हिदायत साथ । अमेरिका और सोवियत संघ दोनो इस प्रस्ताव को लागू करने पर आमादा थे। ताशकंद वार्ता उसी का हिस्सा थी। कोसिगिन 10 जनवरी 1966 को दोनो देशों से ताशकंद घोषणा पर हस्ताक्षर  कराने में सफल हो गए। सार था,” भारत के प्रधानमंत्री और पाकिस्तान के राष्ट्रपति के बीच यह सहमति हुई है कि दोनों देशों के सभी आदमियों को 25 फरवरी 1966 के पहले, 5अगस्त 1965 से पहले की जगहों पर हटा लिया जाएगा और दोनो देश युद्ध विराम रेखा पर युद्ध विराम की शर्तों का पालन करेंगे।”

  समझौते पर देश की प्रतिक्रिया को लेकर शास्त्री जी चिंतित थे। रात के ग्यारह बजे सबसे पहले शास्त्री जी की अपने दामाद से बात हुई। फिर फोन पर उनकी बेटी कुसुम थी। पूछा कैसा लगा? बेटी का जबाब था हमे तो अच्छा नही लगा। अम्मा ( पत्नी ललिता शास्त्री ) को कैसा लगा? उन्हें भी अच्छा नही लगा। शास्त्री जी ने कहा उनसे बात कराओ । जीवन के हर मोड़ पर साथ निभाने वाली पत्नी ललिता , उस दिन बात करने को तैयार नही हुईं। बेटी ने कहा वह बात नही करना चाहतीं। उदास शास्त्री जी ने कहा कि अगर घर वालों को अच्छा नही लगा तो बाहर वाले क्या कहेंगे?”

सोच में डूबे शास्त्री जी ने कहा था, ” अगर मैं एक-दो साल में चला गया तो इंदिरा गांधी तुम्हारी प्रधानमंत्री होंगी। अगर तीन-चार साल जिंदा रह गया तो वाई बी चह्वाण प्रधानमंत्री होंगे।” उनके पास सिर्फ उन्नीस महीने थे।


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