कोरोना : मुफ्त इलाज के लिए आगे क्यों नहीं आते निजी संस्थान

भारत और परोपकार एक दूसरे के पूरक हैं। उसके लिए विश्व मानवता का कल्याण मायने रखता है। भारत ने कभी परोपकार से मुंह नहीं मोड़ा। आपदा के क्षणों में तो हर आदमी का धर्म है कि वह एक-दूसरे की मदद करे। शास्त्र भी कहते हैं- ‘परहित सरिस धरम नहिं भाई। परपीड़ा सम नहिं अधमाई।’ निजी अस्पतालों को भी उदार भाव से हर कोरोना पीड़ित की नि:शुल्क सेवा करनी चाहिए। उनके लिए अलग वार्ड बनाने चाहिए। यह सब स्वस्फूर्त तरीके से किया जाना चाहिए न कि केंद्र और राज्य सरकारों के दबाव में। इसके लिए सर्वोच्च या उच्च न्यायालयों के निर्देश का भी इंतजार नहीं किया जाना चाहिए।
लॉकडाउन की अवधि में जब देशभर का व्यापार ठप है। लोग घरों में कैद हैं। ऐसे में किसी कोरोना संक्रमित से जांच के नाम पर 4500 रुपये लेने की अपेक्षा रखना कितना उचित है? निजी प्रयोगशालाएं अगर कुछ दिन लाभ न भी कमाएं तो इससे उन्हें कोई नुकसान नहीं होना है बल्कि इसका उन्हें दूरगामी लाभ ही होगा। सामान्य दिनों में वह थोड़ा-थोड़ा कर इससे ज्यादा कमा सकते हैं। ग्राहक सोने का अंडा देने वाली मुर्गी है लेकिन ग्राहक ही न रहा तो लाभ की राह के दरवाजे तो वैसे ही बंद हो जाएंगे। व्यापार की परंपरा में जीने वालों को इतना सामान्य विचार तो करना ही चाहिए।
लॉकडाउन से भारतीयों को बहुत दिक्कत हो रही है तथापि भारत सरकार लोगों के स्वास्थ्य और जीवन की सुरक्षा को लेकर फिक्रमंद है। यही वजह है कि वह 14 अप्रैल के बाद लॉकडाउन खोले या उसकी अवधि अभी और बढ़ाए, इसे लेकर मंथन कर रही है। प्रधानमंत्री की केंद्रीय मंत्रिमंडल और कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों से बात हो चुकी है। चीन ने बुहान में लॉकडाउन खोल तो दिया लेकिन जिस तरह वहां कोरोना के नए मरीज सामने आ रहे हैं, उसे देखते हुए लगता नहीं कि इस मायने में भारत को कोई जल्दबाजी करनी चाहिए। दुनिया भर में कोरोना वायरस से संक्रमित लोगों की संख्या जहां 15 लाख से अधिक हो गई है, वहीं 88 हजार से अधिक लोग दुनिया भर में इस वायरस के चलते काल के गाल में समा चुके हैं।
गनीमत है कि इसके मुकाबले भारत में कोरोना संक्रमितों की संख्या फिलहाल कम है। कुछ लोगों ने लॉकडाउन की भावनाओं का निरादर न किया होता, सरकार व स्वास्थ्य विभाग के निर्देशों का अनुपालन किया होता तो कदाचित भारत में संख्या इतनी भी न होती। अब भी समय है कि पूर्व की गलतियों को न दोहराया जाए। धीरज रखने की बात यह है कि इसमें 472 लोग ठीक हो गए हैं। लेकिन जिस तरह रोज-ब-रोज कोरोना पॉजिटिव मरीज मिल रहे हैं, वह बेहद चिंताजनक है। इसपर रोक लगाने की जिम्मेदारी सभी नागरिकों पर समान रूप से है।कोरोना महामारी से जुड़े मामले धड़ाधड़ देश की बड़ी अदालतों में भी जा रहे हैं।
सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की गई है जिसमें कोरोना महामरी से निपटने के लिए देश की सारी स्वास्थ्य सुविधाओं और उससे जुड़ी इकाइयों के राष्ट्रीयकरण की मांग की गई है। तर्क यह दिया गया है कि देश में कोरोना वायरस से निपटने के जन स्वास्थ्य सुविधाओं की समुचित व्यवस्था नहीं है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट केन्द्र और सभी राज्य सरकारों को सारी स्वास्थ्य सुविधाओं का राष्ट्रीयकरण करने और सारी स्वास्थ्य सेवाओं, संस्थाओं, कंपनियों और उनसे संबद्ध इकाइयों को कोरोना महामारी संबंधी जांच और उपचार मुफ्त में करने का निर्देश दे। इसपर सर्वोच्च न्यायालय का क्या रुख होगा, यह देखने वाली बात होगी लेकिन एकदिन पहले ही इसी तरह की एक अन्य याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने सभी निजी प्रयोगशालाओं को कोरोना के संक्रमण की जांच नि:शुल्क करने का निर्देश दिया था। साथ ही यह भी कहा था कि राष्ट्रीय संकट की इस घड़ी में उन्हें उदार होने की जरूरत है।
आईसीएमआर के एक परामर्श के तहत निजी अस्पतालों और निजी प्रयोगशालाओं ने कोरोना की जांच के लिये 4,500 रुपए कीमत रखी थी लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने 4500 रुपये की फीस को गरीबों के लिए अधिक माना और कोरोना की जांच नि:शुल्क करने का आदेश दिया था।सर्वोच्च न्यायालय में दायर हालिया याचिका में यह भी कहा गया है कि वर्ष 2020-21 के बजट में भारत में सिर्फ 1.6 प्रतिशत अर्थात 67,489 करोड़ रुपये ही सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च करने का प्रावधान किया गया है जो दुनिया भर में सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं पर होने वाले औसत खर्च की तुलना में ही काफी कम है बल्कि कम आमदनी वाले देशों के खर्च की तुलना में भी न्यूनतम है। सच तो यह है कि सरकारी संसाधनों के बल पर इस महामारी से निपटा नहीं जा सकता इसलिए उसे निजी क्षेत्र के चिकित्सालयों की मदद आज नहीं तो कल लेनी ही पड़ेगी।
सरकार जब रेल की बोगियों को पृथकवास केंद्र के रूप में तब्दील कर सकती है। होटलों को आइसोलेशन सेंटर बना सकती है। प्राइमरी और मिडिल स्कूलों में पृथक वास की व्यवस्था की जा सकती है तो निजी अस्पतालों में ऐसा क्यों नहीं हो सकता? जब देशभर के बैंकों और कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण हो सकता है तो निजी चिकित्सालयों, पैथोलॉजी, जांच केंद्रों और निजी स्कूल-कॉलेजों का निजीकरण क्यों नहीं होना चाहिए? स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी बुनियादी सेवाओं और उससे जुड़े संस्थान, चाहे वे निजी क्षेत्र के ही क्यों न हों, उनका राष्ट्रीयकरण होना ही चाहिए।लॉकडाउन के दौरान सरकार के सुस्पष्ट निर्देश के बाद भी कुछ शिक्षण संस्थान अभिभावकों से फीस मांग रहे हैं। कुछ का दावा है कि अगर उन्होंने फीस नहीं ली तो उनके सामने बड़ी आर्थिक परेशानी आ जाएगी। इनमें से बहुत सारे वे शिक्षण संस्थान भी हैं जो लीज पर मिली सरकारी भूमि पर चल रहे हैं। भवन निर्माण के नाम पर हर माह एक निश्चित फीस लेते हैं। वर्षों से लेते आ रहे हैं।
सरकार को चाहिए कि राष्ट्रहित में वह इन स्कूलों का राष्ट्रीयकरण करे। शिक्षा और चिकित्सा व्यवसाय नहीं, समाजसेवा है। इससे विरत नहीं हुआ जा सकता।भारत दुनिया भर में अपने मानवीय व्यवहार के लिए जाना जाता है। उसका विश्व बंधुत्व का भाव देश, काल और परिस्थिति की सीमा में नहीं बंधता। भारत ने अमेरिका ही नहीं, दुनिया के तीस देशों को दवा भेजी है। साथ ही, हर भारतीय को आश्वस्त भी किया है कि हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन की देश में कोई कमी नहीं है। वह अमेरिका और चीन की तरह एक-दूसरे पर दोषारोपण नहीं कर रहा। वह कोरोना से लड़ रहा है। दुनिया के देशों के साथ मिलकर इस भयानक महामारी से निपटने का प्रयास कर रहा है।
संकट की इस घड़ी में हर भारतीय को एक-दूसरे की मदद करनी चाहिए। कोरोना वैश्विक समस्या है, इससे निपटने के लिए सबको साथ चलना है। सर्वोच्च न्यायालय निर्देश दे। सरकार मुंह खोले, इससे पहले ही निजी चिकित्सालयों और निजी पैथोलॉजी केंद्रों को नि:शुल्क सहयोग का प्रस्ताव करना चाहिए। आज की तिथि का राष्ट्रधर्म यही है। जो मर रहे हैं, उन्हें बचाना ही मानवता है। भारत सदियों मानवता में यकीन रखता है। हम भारतीय हैं, अपने दायित्व व कर्तव्यबोध से पीछे क्यों रहें?
(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)