चंद्रशेखर की नसीहत- धर्मनिरपेक्षता स्वतंत्रता संग्राम की विरासत है।

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शेष नारायण सिंह

अख़बारों में तो नहीं लेकिन सोशल मीडिया में स्व चंद्रशेखर का ज़िक्र छाया हुआ है .उनकी मृत्यु को तेरह साल हो गए . तब तो नहीं लेकिन अब समझ में आने लगा है कि उनके साथ ही एक बहुत बड़ी लोकशाही मूल्यों की परम्परा भी चली गयी . चंद्रशेखर मूल रूप से सोशलिस्ट थे. इलाहबाद विश्वविद्यालय के छात्र के रूप में १९५० में आचार्य नरेंद्र देव के संपर्क में आये और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ( प्रसोपा) के सदस्य हो .लेकिन जब १९५५ में कांग्रेस ने सोशलिस्टिक पैटर्न ऑफ़ डेवलपमेंट का प्रस्ताव अपने अवाडी कांग्रेस में पारित किया तो समाजवादियों में कांग्रेस के प्रति आकर्षण शुरू हो गया . उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष उच्छंग राय ढेबर थे . नेहरू के मित्र थे .माना जाता है यह प्रस्ताव जवाहरलाल नेहरू के कारण ही पास हुआ था क्योंकि १९५१ से १९५ तक वे ही कांग्रेस अध्यक्ष रह चुके थे . बाद १९५६ में संसद में भी सोशलिस्टिक पैटर्न ऑफ़ सोसाइटी की स्थापना के लिए प्रस्ताव पारित हुआ और भारत के विकास के लिए समाजवादी मूल्यों को स्थाई भाव के रूप में स्वीकार कर लिया गया . सोशलिस्ट पार्टी वैसे भी कांग्रेस की कोख से ही जन्मी थी . १९३४ में कांग्रेस में प्रभावशाली हो रहे पुरातन पंथी सोच के नेताओं पर नियंत्रण रखने के लिए कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना हो गयी थी. यह अलाग से कोई पार्टी नहीं थी . कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में आचार्य नरेंद्र देव , राम मनोहर लोहिया , जयप्रकाश नारायण और ई एम एस नम्बूदिरीपाद जैसे बड़े समाजवादी शामिल थे . उस वक़्त के अखबारों को देखने से पता लगता है कि जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चन्द्र बोस भी इस फोरम को समर्थन देते थे . हालांकि वे लोग इस मंच में औपचारिक रूप से शामिल नहीं हुए थे.

कांग्रेस और आज़ादी की लड़ाई के कार्यक्रमों में समाजवादी तरीके से विकास कांग्रेस के कराची अधिवेशन में १९३१ में ही स्वीकार कर लिया गया था. उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष सरदार वल्लभभाई पटेल थे . बाद में उनकी समाजवादियों से कोई सहानुभूति नहीं रही. इतिहास के जानकार बताते हैं कि कराची अधिवेशन का प्रस्ताव भी जवाहरलाल के कारण ही पास हुआ था क्योंकि सरदार के पहले १९२९ और १९३० में जवाहरलाल कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके थे . महात्मा गांधी भी उस सम्मेलन में मौजूद थे . सबको मालूम है कि उनकी मर्जी के बिना उन दिनों कोई भी प्रस्ताव पास नहीं किया जा सकता था.

१९५६ में जब भारतीय संसद ने सोशलिस्टिक पैटर्न ऑफ़ सोसाइटी की बाद की तो बहुत सारे समाजवादी नेता अपनी पार्टी छोड़कर कांग्रेस में शामिल होने लगे . अशोक मेहता के नेतृत्व में समाजवादी नेताओं की बड़ी खेप कांग्रेस में शामिल हुई. उन दिनों आज की तरह गद्दी के लिए लोग पार्टी नहीं बदलते थे . जब अशोक मेहता और उनके साथियों की समझ में आ गया कि सत्ताधारी पार्टी ही उनके कार्यक्रमों को लागू करने के लिए तैयार है तो वे लोग कांग्रेस में शामिल हुए. उसी सिलसिले में नारायण दत्त तिवारी , चन्द्र शेखर आदि भी कुच्छ समय बाद कांग्रेस में शामिल हुए . बाद में तो इंदिरा गांधी ने ४२वें संविधान संशोधन के ज़रिये सोशलिस्ट शब्द को संविधान की प्रस्तावना में भी डलवा दिया .हालांकि जब यह प्रस्ताव पास हुआ तो चन्द्र शेखर जेल में थे और कांग्रेस से निकाले जा चुके थे .

चंद्रशेखर का व्यक्तिव अपने देश में लोकशाही के मूल्यों को याद रखने का एक बेहतरीन तरीका है . वे हमेशा लोकतंत्र की मान्यताओं के लिए संघस्ढ़ करते रहे . नेहरू की मृत्य के बाद कांग्रेस में जो राजनीतिक शक्तियां उभरने लगीं , वे पूंजीवादी राजनीति को समर्थन करने वाली थीं. कांग्रेसी सिंडिकेट ने कांग्रेस की राजनीति को पूरी तरह से काबू में कर लिया . सिंडिकेट से इंदिरा गाँधी ने बगावत तो किया लेकिन वे भी पुत्रमोह के चलते आम आदमी की समस्याओं के पूंजीवादी हल तलाशने लगीं .नतीजा यह हुआ कि चन्द्र शेखर जी को जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में चल रहे तानाशाही विरोधी आन्दोलन का साथ देना पड़ा. चन्द्रशेखर हमेशा से ही धर्मनिरपेक्ष राजनीति के पक्षधर रहे थे लेकिन अजीब इत्तेफाक है कि जिस साम्प्रदायिक राजनीति का चन्द्रशेखर जी ने हमेशा ही विरोध किया था , उसी राजनीति के पोषक लोग जेपी के आन्दोलन में बहुमत में थे. गुजरात से लेकर बिहार तक आर एस एस वाले ही कंट्रोल कर रहे थे . बाद में जो सरकार बनी उसमें भी आर एस एस की सहायक पार्टी जनसंघ वाले ही हावी थे. चन्द्रशेखर और मधु लिमये ने आर एस एस को एक राजनीतिक पार्टी बताया और कोशिश की कि जनता पार्टी के सदस्य किसी और पार्टी के सदस्य न रहें . लेकिन आर एस एस ने जनता पार्टी ही तोड़ दी और अलग भारतीय जनता पार्टी बना ली. लेकिन चन्द्र शेखर ने अपने उसूलों से कभी समझौता नहीं किया .

१९९० में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार के विश्वासमत के प्रस्ताव पर चंद्रशेखर का भाषण एक ऐहासिक दस्तावेज़ है .उस भाषण में ही उन्होंने कहा था कि देश की एकता और लोकशाही की रक्षा के लिए धर्मनिरपेक्षता बहुत ही ज़रूरी है . उन्होंने कहा कि मुझे अत्यंत दुःख के साथ इस बहस में हिस्सा लेना पड़ रहा है तो सदन में बैठे लोगों ने उस स्टेट्समैन के दर्द का अनुभव किया था. गैलरी में बैठे लोगों ने भी सांस खींच कर उनके भाषण को सुना. उन्होंने कहा कि जब ग्यारह महीने पहले हमने देश को बचाने के लिए बीजेपी से समझौता किया था .उस समय सोचा था कि देश संकट में है ,कठिनाई में है और उस कठिनाई से निकलने के लिए सबको साथ मिलकर चलना चाहिए .उन्होंने अफ़सोस जताया कि ग्यारह महीने पहले देश की जो दुर्दशा थी , ग्यारह महीने बाद उस से बदतर हो गयी थी. उन्होंने पूछा कि क्या यह सही नहीं है कि हमारे देश में आतंक बढा है , क्या यह सही नहीं है कि हमारे देश में विषमता बढ़ी है , क्या यह सही नहीं है कि बेकारी , बेरोजगारी,मंहगाई बढ़ी है ,,क्या यह सही नहीं है कि हमारे देश में सामाजिक तनाव बढ़ा है .क्या यह सही नहीं है कि पंजाब पीड़ा से कराह रहा है ,क्या यह सही नहीं है कश्मीर में आज वेदना है.क्या यह सही नहीं है कि असम में आतंक बढ़ रहा है ,क्या यह सही नहीं है कि देश के गाँव गाँव में धर्म और जाति के नाम पर आदमी ही आदमी के खून का प्यासा हो रहा है . उन्होंने तत्कालीन प्रधान मंत्री से कहा कि संसद और देश को चलाना कोई ड्रामा नहींहै इसलिए गंभीरता हर राजनीतिक काम के बुनियाद में होनी चाहिए .

लोकसभा के उसी सत्र के बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार को हटा दिया गया था .चन्द्रशेखर जी ने साफ़ कहा कि सिद्धांतों की बात करने वाले विश्वनाथ प्रताप सिंह धर्मनिरपेक्षता का सवाल क्यों नहीं उठाते.चन्द्रशेखर जी ने कहा कि धर्म निरपेक्षता मानव संवेदना की पहली परख है . जिसमें मानव संवेदना नहीं है उसमें धर्मनिरपेक्षता नहीं हो सकती.इसी भाषण में चन्द्र शेखर जी ने बीजेपी की राजनीति को आड़े हाथों लिया था . उन्होंने कहा कि मैं आडवाणी जी से ग्यारह महीनों से एक सवाल पूछना चाहता हूँ कि बाबरी मस्जिद के बारे में सुझाव देने के लिए एक समिति बनायी गयी, उस समिति से भारत के गृह मंत्री और उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री को हटा दिया जाता है . बताते चलें कि उस वक़्त गृह मंत्री मुफ्ती मुहम्मद सईद थे और उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री मुलायम सिंह यादव थे. चन्द्र शेखर जी ने आरोप लगाया कि इन लोगों को इस लिए हटाया गया क्योंकि विश्व हिन्दू परिषद् के कुछ नेता उनकी सूरत नहीं देखना चाहते.क्या इस तरह से देश को चलाना है . उन्होंने सरकार सहित बीजेपी -आर एस एस की राजनीति को भी घेरे में ले लिया और बुलंद आवाज़ में पूछा कि क्यों हटाये गए मुलायम सिंह , क्यों हटाये गए मुफ्ती मुहम्मद सईद ,उस दिन किसने समझौता किया था ? चाहे वह समझौता विश्व हिन्दू परिषद् से हो ,चाहे बाबरी मस्जिद के सवाल पर किसी इमाम से बैठकर समझौता करो ,यह समझौते देश की हालत को रसातल में ले जाने के लिए ज़िम्मेदार हैं .उन्होंने प्रधान मंत्री को चेतावनी दी कि आपकी सरकार जा सकती है , उस से कुछ नहीं बिगड़ेगा .लेकिन याद रखिये कि जो संस्थाएं बनी हुई हैं ,उनका अपमान आप मत कीजिये . क्या यही परंपरा है कि बातचीत को चलाने के लिए राष्ट्रपति के पद का इस्तेमाल किया जाय .शायद दुनिया के इतिहास में ऐसा कहीं भी नहीं हुआ होगा.कभी ऐसा नहीं हुआ कि अध्यादेश लगाए जाएँ और २४ घंटों के अंदर उसको वापस ले लिया जाए..उन्होंने कहा कि यह तुगलकी मिजाज़ इस देश को रसातल तक पंहुचाएगा और देश को बचाने के लिए मैं तुगलकी मिजाज़ का विरोध करना अपना राष्ट्रीय कर्तव्य मानता विश्वनाथ प्रताप सिंह ने बीच में टिप्पणी कर दी और कहा कि सिद्धांत के चर्चे सरकारी पदों के गलियारों के नहीं गुज़रते हैं.चन्द्रशेखर जी ने कहा कि , चलिए मुझे मालूम है .सिद्धांत संघर्षों से पलते हैं और संघर्ष करना जिसका इतिहास नहीं है वह सिद्धांतों की बात करता है . मैं उन लोगोंमें से नहीं हूँ जो कि अपनी गलती को स्वीकार ही न करें . उन्होंने प्रधान मंत्री से कहा कि जिस समय आप कुर्सियों से चिपके रहने के लिए हर प्रकार के घिनौने समझौते कर रहे थे , उस समय संघर्ष के रास्ते चल कर मैं हर मुसीबत का मुकाबला कर रहा था. आप सिद्धांतों की चर्चा हमसे मत करें .

विश्वनाथ प्रताप सिंह को चंद्रशेखर की यह नसीहत देश के सभी शासकों के लिए एक दिशानिर्देश बन सकता है . आज की राजनीतिक स्थिति भी ऐसी है जिसमें आज़ादी की लड़ाई के मूल्यों को संभालकर रखने की ज़रूरत है . उन मूल्यों में सर्वधर्म समभाव को प्राथमिकता दी गयी थी . सत्ताधारी पार्टी की विचारधारा ऐसी हो सकती है जिसमें धर्मनिरपेक्षता को वह स्थान न दिया जाता हो जो स्वंतंत्रता संग्राम का मूल भाव था लेकिन देश की एकता और अखण्डता के लिए यह ज़रूरी है कि सबको साथ लेकर चला जाए.


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