वैश्विक महामारी उपचार! पर सवाल तो अभी भी कायम हैं!
डॉ भुवनेश्वर गर्ग ।
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चाहे बीमारी की बात हो, या “प्रयोग” की जा रही दवाइयों और संक्रमण के आंकड़ों की, मार्च से ही हमारी सभी बातें, धारणाएं, आकलन सही साबित हो रहे हैं।
हरियाणा के स्वास्थ्य मंत्री श्री अनिल विज का भी टीकाकरण के पंद्रह दिन बाद इस बीमारी से संक्रमित हो जाना, हमारे कई सारे सवालों को वापिस जीवंत कर रहा है। इन वालंटियर्स को, जिन्हे, रेंडम समूहों में बाँटकर, एक समूह को समयांतराल में वेक्सीन के दो टेस्ट डोज और दूसरे समूह को प्लेसिबो डोजेस दिए जाना थे, उन्हें, इम्युनिटी उत्पन्न होने के अनुमानित समय तक, सतत निगरानी में आइसोलेशन में क्यों नहीं रखा गया?
अगर वेक्सिन के पहले डोज़ के बाद व्यक्ति संक्रमित होकर, बिना किसी लक्षण के ठीक हो जाता है, तो क्या उसे वेक्सिन के सफल आँकड़ों में गिन लिया जाएगा?
जब पूर्ववर्ती वायरसों, सार्स, इबोला, स्वाइनफ्लू आदि का आज तक कोई इलाज नहीं खोजा जा सका है और ना ही उनकी कोई स्थायी वेक्सीन बन पाई है, तब उसी समूह के कृत्तिम करोना वायरस का उपचार कैसे खोजा जा सकेगा, वो भी इतने कम समय में?
जिस वायरस के इतने कम समय में ढेरों स्ट्रेन दुनिया में आ चुके हैं और ठीक हो चुके मरीज, बेहद कम समयांतराल में दुबारा संक्रमित पाए गए हैं, तब उसकी कोई स्थायी कारगर वेक्सीन बन पाना कैसे संभव है?
दो तरीकों से वेक्सीन बनाने का दावा किया जा रहा है, और दोनों में ही आधार, पहले वाले वायरसों का RNA सूत्र है, उससे, इस कृत्रिम और आकार में कई गुना बड़े वायरस का निदान कैसे होगा?
दवा कंपनियों ने पहली दो फेज के ट्रायल्स के आंकड़ें प्रस्तुत किये बिना ही, व्यापारिक लाभ और बाजारू दौड़ के चलते, फेज थ्री ट्रायल शुरू कर दी हैं, जिसमे सरकारों और दवा नियंत्रकों की पूरी संलिप्तता बार बार उजागर हो रही है, तब आंकड़ों का सही और सार्थक मूल्यांकन कैसे होगा?
थर्ड फेज ट्रायल नतीजों का मूल्यांकन होने और वेक्सीन का प्रभाव, दुष्प्रभाव, फिजिकल, मेन्टल, न्यूरोलॉजिकल, जेनेटिकल असर का शुरुआती मूल्यांकन सामने आने में ही बरसों लगेंगे, लेकिन दवा कंपनियों ने ना सिर्फ़ अपनी अपनी वेक्सीन के करोड़ों अरबो डोजेस बना लिए हैं, बल्कि उनकी मार्केटिंग, बुकिंग और बिक्री भी शुरू कर दी है, क्या इन्हे अपने परिणामों का पहले से ही ज्ञान है या जैसे पहले बजट बनता है, खर्च होता है, फिर उसके आंकड़े बनाये जाते हैं, या जैसा भारत में सरकारी चिकित्सा और अन्य शोधों में होता है, नक़ल से लेकर पूर्वनियोजित प्रायोजित रपट बनाने का, वैसा ही इसमें होने जा रहा है?
दुनिया भर के समाचार माध्यमों में सबने, दवाइयों, ख़ास तौर पर हाइड्रोक्सीक्लोरोक्विन, रेम्सेडवीर, आइवरमेक्टिन, फेबिफ्लू और बाबाओं के शर्तिया काढ़ों की ढेरों घोषणाएं देखीं, दवा कंपनियों ने इन निरर्थक दवाओं के जरिये बाजार से करोड़ों अरबों रुपये कमाए भी और बाद में WHO तक को यह कहना पड़ा कि इन दवाइयों से कोई फायदा नहीं है और इनका उपयोग सिर्फ अति गंभीर मरीजों में विषमतम परिस्थितियों में पूर्ण सक्षमता और जिम्मेदारी के साथ ही किया जाना चाहिए।
विभिन्न संस्थाओं द्वारा जारी किये गए, रेंडम सीरो टेस्ट आंकड़ों के अनुमानानुसार, भारत में लगभग बीस करोड़ लोग अभी तक इस बीमारी से संक्रमित होकर ठीक हो चुके हैं, जबकि मौतों का आंकड़ा मात्र एक लाख ही है, इसका अर्थ यह है कि मात्र ०.०५% लोगों को ही इससे गंभीर खतरा हो रहा है, जबकि लॉकडाउन और करोना के अन्य सुधार प्रभावों के चलते, हर साल फेफड़ों के संक्रमण, टीबी आदि से होने वाली पचास से साठ लाख मौतें, इस साल आंकड़ों में नहीं हैं।
और अगर मास्क, उचित दूरी, साफसफाई, उपचार, सुरक्षा, उचित खानपान, आचारविचार, फिटनेस, धूप, नेचुरल ऑक्सीजन का ध्यान दिया जाए, तो अगले एक से डेढ़ साल में यह बीमारी स्वतः ही शिथिल पड़ जायेगी, जैसे इसके पहले के, इसी समूह के अन्य वायरसों के साथ हुआ था।
और इसीलिए प्लेग से लेकर स्वाइन फ्लू तक ना तो कोई उपचार काम आया, ना आज तक कोई दवाई ढूंढी जा सकी है और ना ही कोई स्थायी वेक्सीन इन बीस सालों में बनाई जा सकी है!
वेक्सीन कब तक आएगी, कितनी कारगर और सुरक्षित होगी, यह सब तो अभी भविष्य के गर्त में है ही, दवा कंपनियों और सरकारों के सामने लोगों को वेक्सीन आने तक और अगले दो सालों में हर्ड इम्युनिटी बनने तक, सुरक्षित रख पाना भी एक बहुत बड़ी चुनौती है। उससे भी बड़ी चुनौती तो, दवा के परिवहन, स्टोरेज और वितरण सम्बन्धी भी हैं क्योंकि माइनस सत्तर डिग्री (-७० डिग्री) का तापमान मैटैंन करना भी कोई आसान काम नही है।
करीब दो सो वेक्सिन में से, दस वेक्सीन फ़िलहाल दुनिया भर में, थर्ड फ़ेज़ की ट्रायल में हैं और सभी भारत को इसकी प्रयोगशाला बनाने को आतुर हैं, उनमे से तीन, सफल कागजी परिक्षण के दावे भी कर रही हैं, हालांकि अभी तक किसी ने भी फेज टू और थ्री के परिणाम तक जाहिर नहीं किये हैं, इनमें से एक, फाइजर ने ब्रिटैन में इमरजेंसी उपयोग की इजाजत ले लेने के बाद, अब भारत में भी इमरजेंसी उपयोग की इजाजत मांगी है, किसी वैश्विक लाइलाज बीमारी में कोई उपचार उपलब्ध ना होने पर, अप्रचलित उपचार की इजाजत दी जाती है। इस इजाजत में, जिन लोगों को ज्यादा खतरा हो, जैसे हेल्थ वर्कर्स या पुलिस और अन्य रक्षा कर्मी, उन्हें इस इलाज का पार्ट बनाया जाता है और उम्मीद की जानी चाहिए कि भले ही इस इमर्जेंसी वेक्सीन के उपयोग से, उनमे क्षणिक इम्युनिटी, कुछ दिनों के लिए भी बन पाए, तो सम्भवतः यह वेक्सीन इस बीमारी की संक्रमण चैन तोड़ने में कामयाब हो सके।
और चूँकि, बाजारू रथ पर सवार, दवा माफिया की सभी घोषणाएं, समय के साथ नेस्तनाबूद होती गई हैं, इसीलिए बार बार सबसे निवेदन है कि इस सर्दी जुखाम फ्लू टाइप वायरल इन्फेक्शन से कदापि ना घबराएं, पहले के लेखों में बताई गई सभी सावधानियों का पालन करें और अगर आप फ्रंट लाइन वारियर्स नहीं हैं, तो वेक्सीन के सफल आंकड़ों के आने का इन्तजार करें, जल्दबाजी कदापि ना करें। प्रकृति और विधाता ने आपको संयम, संचय और सुरक्षा के साथ जीवन जीने का एक शानदार अवसर दिया है, उसका भरपूर आनंद, बिना तनाव लिए, उठायें !
और चलते चलते एक बेहद अच्छी खबर जियोर्ज़िया से आ रही है, स्टेट यूनिवर्सिटी द्वारा जानलेवा लाइलाज इनफ़्लुएंज़ा वायरस पर किए जा रहे शोध की सफलता से उत्साहित वैज्ञानिकों ने अपनी दवा “मॉलनूप्रविर” का करोना संक्रमित जानवरों पर प्रयोग किया और मात्र चौबीस घंटों में ही उन सभी के ठीक होने और कीटाणुमुक्त होने के दावे किए हैं, अगर मानवों पर भी इसके व्यापक परिणाम भी इतने अच्छे निकले तो यक़ीनन सिर्फ़ करोना ही नही, भविष्य की कई और आपदाओं से मानवजाति को राहत मिल सकती है ।