केबः सही दिशा में सही कदम

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अनिल बिहारी श्रीवास्तव
क्या नागरिकता (संशोधन) विधेयक 2019 को संसद की मंजूरी हमारे संवैधानिक इतिहास में काले धब्बे की तरह होगी? कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी का शायद यही मानना है। राज्यसभा में विधेयक पारित होने के तुरंत बाद आई सोनिया गांधी की प्रतिक्रिया में इसे संवैधानिक इतिहास का काला दिन करार दिया गया है। सोनिया के साथ सुर मिलाकर

सारे कांग्रेसी केब को संविधान का उल्लंघन करार दे रहे हैं। दो दिन पहले लोकसभा में लंबी चर्चा के बाद विधेयक को 311 के विरूद्ध 80 मतों से मंजूरी मिल गई थी। बुधवार को राज्यसभा में भी विधेयक 125 के मुकाबले 105 मतों से पारित हो गया। अब पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से 31 दिसंबर 2014 तक भारत आए सिख, हिंदू, जैन, पारसी,

ईसाई और बौद्ध समुदाय के उन लोगों को भारतीय नागरिकता मिल सकेगी, जिन्हें धार्मिक उत्पीड़न से त्रस्त होकर भारत में शरण लेना पड़ी। स्पष्ट किया गया है कि सिर्फ इन समुदायों के शरणार्थियों को नागरिकता मिलेगी, घुसपैठिये इसके पात्र नहीं होंगे। गृहमंत्री अमित शाह ने बताया है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश में अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों की आबादी

में भारी गिरावट आई है।पाकिस्तान में 1947 में अल्पसंख्यक 23 प्रतिशत थे जो 2011 में 3.7 प्रतिशत रह गए। बांग्लादेश में 1947 में 22 प्रतिशत अल्पसंख्यक थे जो 2011 में 7.8 प्रतिशत रह गए। इन प्रश्रों के उत्तर नहीं मिल रहे कि अल्पसंख्यकों की आबादी इतनी कम कैसे हो गई? ये लोग कहां गए? क्या उनकी हत्या कर दी गई या उनका जबरन धर्मांतरण

करा दिया गया?
सोनिया गांधी की प्रतिक्रिया कांग्रेसियों की कुण्ठा और खीझ का प्रतीक है। केब विरोधी जमात में कांग्रेस के साथ तृणमूल कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी, एनसीपी, समाजवादी पार्टी, एआईएमआईएम और कम्युनिस्टों के अलावा लेफ्टिस्ट बुद्धिजीवी, लुटियंस बिरादरी के लेखक व पत्रकार शामिल हैं। केब पर संसद के दोनों सदनों में हुई चर्चा और संसद के बाहर हुई

बयानबाजी से एक बात साबित हुई कि सरकार पूरी तैयारी के साथ मैदान में उतरी थी। उसकी बातों में तथ्य और ठोस तर्क रहे। दूसरी ओर विपक्ष न तो संसद और न ही संसद के बाहर अपनी बातों से आम भारतीय को संतुष्ट कर सका। उल्टे धारणा यह बनी कि वह मुसलमानों को गुमराह कर रहा है। हफ्ता भर चले वाकयुद्ध के बीच गत दिवस सोशल मीडिया

में आये एक कमेंट पर नजर गई थी। जिसमें लिखा था- मोदी सरकार के किसी पहल का देसी सेकुलरिस्ट विरोध करें और पाकिस्तान नाक-भौंह सिकोड़े तो समझ लो कि सरकार का काम सही दिशा में चल रहा है। इसे सटीक कमेंट कहा जाएगा। सर्जिकल स्ट्राइक, उसके बाद आर्टिकल 370 और अब केब पर विपक्षी बयानबाजी और पाकिस्तान की प्रतिक्रियाओं पर

ध्यान दें। क्या कोई तालमेल महसूस नहीं होता है? सोचें, दोनों को एकसाथ तकलीफ क्यों हो रही है?
कांग्रेस बिल को धार्मिक भेदभाव भरा और संविधान के विरूद्ध मानती है। ममता बनर्जी की अपनी ढपली-अपना राग है। वह पश्चिम बंगाल में केब और एनआरसी लागू नहीं होने देने की कसम खाए बैठीं हैं। असदुद्दीन ओवैसी ने लोकसभा में विधेयक की प्रति फाड़ कर मानो अपना सियासी पौरुष साबित करने की कोशिश की। खासी हास्यास्पद मांगें भी उठीं। नाना

प्रकार के सुझाव आए। कोई जानना चाह रहा है कि म्यांमार के रोहिंग्या मुसलमानों को क्यों अलग रखा गया? कोई कह रहा कि श्रीलंका के तमिलों को भी शरण देने के लिए जोड़ा जाए। कुछ अति उदार कह रहे हैं कि शरण के प्रावधान में मुसलमानों को क्यों नहीं शामिल किया गया? इन तरह की बातों की अपेक्षा किसी मंदबुद्धि या विकट धूर्त से ही की जा

सकती है। यह देश चारागाह नहीं है जो सारी दुनिया के लिए खोल दिया जाए? भारत वैसे ही आबादी के बढ़ते दबाव से कराहने की स्थिति में है। क्या हमने पाकिस्तान, बांग्लादेश या अन्य किसी देश के सभी लोगों को पालने का ठेका ले रखा है? केब पर पाकिस्तान की प्रतिक्रिया मूर्खतापूर्ण है। उसने इसे पड़ोसी देशों के मामलों में दखल और दुर्भाग्यपूर्ण इरादा

करार दिया है। इमरान खान ने ट्वीट किया है कि केब से मानवाधिकारों और पाकिस्तान के साथ द्विपक्षीय संबंधों का उल्लंघन किया गया है। लगता है मानो मूर्खता साबित करने की होड़ लगी हो। अमेरिकी अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग एक कदम आगे निकला। उसने मांग की है कि यदि भारतीय संसद में केब पारित हो जाता है तब अमित शाह और प्रमुख

भारतीय नेतृत्व पर अमेरिका में प्रतिबंध लगा दिया जाए। चलो भाई, यह अरमान भी पूरा कर लो। यह वही आयोग है जिसने कभी नरेंद्र मोदी पर प्रतिबंध लगाने की सिफारिश की थी। आयोग की ताजा रुख़ पर भारत ने कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की है।
केब विरोधी राजनीतिक दलों की पीड़ा समझी जा सकती है। उन्हें घुसपैठियों और उनके हमदर्दों के रूप में वोट बैंक दिखता है। यहां राष्ट्रहित सेकेण्डरी है। एक कटु सत्य है कि वोट बैंक और तुष्टिकरण की राजनीति के कारण भारत को लगभग दो करोड़ घुसपैठियों का बोझ ढोना पड़ रहा है। कम्युनिस्टों, कांग्रेसियों और तृणमूल के कपट का खामियाजा राष्ट्र भुगत रहा

है। असम के कई हिस्सों में आबादी असंतुलन की स्थिति है। असम में कांग्रेस और पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्टों की कृपा से घुसपैठिये फले-फूले और देशभर में फैल गए। विचार करें कि ममता बनर्जी क्यों पश्चिम बंगाल में केब और एनआरसी के नाम से बिदक जातीं हैं। सारा तमाशा स्वार्थ का है। यह भी समझना होगा कि राजनेताओं के अलावा जो लोग केब

पर रो रहे हैं, उन्होंंने कौन-सी भांग पी रखी है। छद्म सेकुलरिस्टों की जमात दहाड़ मारकर रो रही है। इनमें फिल्मी कलाकार, कथित समाजसेवी, लुटियंस बिरादरी के पत्रकार और स्वयंभू बुद्धिजीवी शामिल हैं। कुछेक ने केब के खिलाफ सरकार को पत्र तक लिख डाला। कुछ अखबारों के लिए कलम घसीट रहे हैं। कुल मिलाकर रोना यही है कि मुसलमानों के साथ

भेदभाव किया जा रहा है। शाह एक सप्ताह में दो दर्जन बार दोहरा चुके हैं कि केब से किसी भारतीय मुसलमान को कोई खतरा नहीं है। अब कोई सुनने-समझने को तैयार न हो तो सरकार क्या करे?


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