वेद और संक्रामक रोग

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हृदयनारायण दीक्षित

स्वास्थ्य सुख है और रोगी होना दुख। यह मान्यता भारतीय आयुर्विज्ञान की है। संक्रामक रोगों के रोगी को अलग रखे जाने की जरूरत अथर्ववेद के रचनाकाल में भी थी। आधुनिक काल में इसे क्वारंटीन कहते हैं। यह नाम शब्द कोरोना संक्रमण के समय विशेष चर्चा में आया है। अथर्ववेद (2.9.1-2) में ऋषि सीधे औषधि से ही प्रार्थना करते हैं- “हे वनौषधि! रोग के कारण अलग निष्क्रिय इस व्यक्ति को पुनः लोक सम्पर्क के योग्य बनाए- अथो एनं वनस्पते जीवानां लोकमुन्नय। आपकी कृपा से यह व्यक्ति पुनः जनसमूह में आ जाए।” रोगी को सामान्य जनों से अलग रखने की परंपरा अथर्ववेद से आधुनिक चिकित्सा विज्ञान तक एक जैसी है। रोगी से कहते हैं- “हम आपको रोग रहित करते हैं। वृद्धावस्था तक स्वस्थ रखते हैं।” (2.105) चिकित्सा की योग्यता केवल अध्ययन से ही परिपूर्ण नहीं होती, अनुभव बहुत जरूरी है। कहते हैं, “अनवरत चिकित्सा कार्य करने वाले ही कुशलता पाते हैं। वही श्रेष्ठ वैद्य बनते हैं।” (2.9.5)गम्भीर रोगों में मनोबल की भूमिका भी होती है। उत्तम मनोबल वाले रोगी शीघ्र स्वस्थ होते हैं। मनोबल और शरीर बल का संयुक्त योग श्रेष्ठ रोग प्रतिरोधक क्षमता से युक्त होता है। अथर्ववेद के ऋषि रोग निरोधक क्षमता के इस तथ्य से सुपरिचित थे। आस्तिक भाव भी मनोबल बढ़ाता है। स्तुति और प्रार्थना से भावजगत् मजबूत होता है। रोग निरोधक शक्ति बढ़ती है। अथर्ववेद (2.16-17) की प्रार्थना ध्यान देने योग्य है। कहते हैं, “द्यावा पृथ्वी सुनने की शक्ति बनाए रखे। सूर्य देखने की शक्ति व अग्नि तेज संम्पन्न रखे। हमारी सुरक्षा करें।” (2.16.2, 3, 4) अग्नि से कहते हैं, “आप ओजस्वी हैं, हमें ओज दें। आप शौर्यवान हैं, हमें शौर्य दें। आप बल सम्पन्न हैं, हमें बल दें। आप जीवन शक्ति सम्पन्न हैं, आप दीर्घ आयु दें।” (2.17.1-4) एक मंत्र (2.29.7) में औषद्यि के उपयोग के समय रोगी से कहते हैं, “हे रोगी ! यह रस आपको दिया गया है। इसके द्वारा आप शक्ति सम्पन्न होकर 100 शरद् (वर्ष) की आयु प्राप्त करें।”अथर्ववेद के ऋषियों को तमाम रोगों व उनकी औषधियों की जानकारी थी। कुछ औषधियों की नहीं भी रही होगी। गिलोय या गुड़ची रोग निरोधक शक्ति बढ़ाती है। पिप्पली नाम की औषधि आधुनिक काल के वैद्य भी प्रयोग करते हैं। अथर्ववेद (6.109.1) में कहते हैं, “यह एक पिप्पली नाम की औषधि ही जीवन को निरोग और दीर्घायु प्रदान करने में समर्थ है।” अथर्वा के इसी सूक्त में पिप्पली द्वारा स्वयं ही बोलने की कविता की गई है, “जिस प्राणी द्वारा हमारा सेवन किया जाएगा, वह कभी नष्ट नहीं होता। (वही 2) लगता है कि पिप्पली औषधि के जीवन उद्धारक गुणों से ये ऋषि प्रारम्भ में परिचित नहीं थे।” यह किसी दूसरे जनसमूह से इनकी जानकारी में आई होगी। एक ईमानदार वक्तव्य में कहते हैं, “हे औषधि! आपको प्रथम असुरों ने गढ़ा था फिर जगत हित में देवगणों ने आपका उद्धार किया।” (वही 3) यहां बड़ी बात कही गई है। इसकी जानकारी देवों को भी नहीं थी, बाद में हुई । ये देव वस्तुतः मनुष्य हैं। इस समाज के लोग शरीर के सभी अंगों के प्रति सजग हैं, “मुख में हमारी वाणी, नाक में प्राण, नेत्रों में दृष्टि, कानों में श्रवण शक्ति व श्वेतरंग से रहित केश सौदर्यपूर्ण हों।” (19.60.1) कहते हैं, “हमारे सभी अंगों व दातों का स्वास्थ्य संपूर्ण आयुष्य प्राप्त करें।” (19.61.1)आनन्दमगन समाज जीवन संघर्षों से निराश नहीं होते। वे गहन जिजीविषु होते हैं। अथर्ववेद का समाज भी गहन जिजीविषा से भरापूरा है। ये ऋषि 100 वर्ष की स्वस्थ्य आयु चाहते हैं। अपनी स्तुतियों में वे बार-बार 100 शरद् के जीवन की इच्छा प्रकट करते हैं। कहते हैं “हम 100 शरद् देखें। 100 शरद् ज्ञान सम्पन्न रहें। 100 शरद् पुष्ट शक्ति सम्पन्न रहें। हम 100 शरद् हर तरह से कर्म सम्पन्न रहें। 100 शरद् जिए-जीवेम् शरद्ं शतम्।” (19.67.1-8) इसी काण्ड (सूक्त 69) में जलदेव से ऐसी ही स्तुतियाॅं हैं। स्वस्थ्य दीर्घायु के लिए जीवन का एक आचार शास्त्र चाहिए। योग ध्यान प्राणायाम की समझ चाहिए। रुग्ण हो जाने के बाद अनुभूत चिकित्सा विज्ञान चाहिए। अथर्ववेद के समाज में ऐसे सभी उपाय हैं और बीमारी से बचाव के उपायों की जानकारी भी।दिवस श्रम काल होते हैं और रात्रि विश्राम मूहूर्त। ये ऋषि दिनभर श्रम करते हैं। ये रात्रि को भी ध्यान से देखते हैं। एक सुन्दर मंत्र में कहते हैं, “हे रात्रि! आपका अंधकार पृथ्वी से पितृलोक तक व्याप्त है। कर्मठ प्राणी भी रात्रि में सो जाते हैं।” (19.47.1-2) रात्रि का सम्बन्ध निद्रा से है। अनिद्रा भयानक रोग है। गहरी निद्रा स्वास्थ्यवर्द्धक है। कहते हैं, “नींद में मनुष्य न जीवित होता है और न मृत।” (6.46.1) अच्छी निद्रा के अभाव में उन्माद रोग संभव है। कहते हैं, “हम औषधि जानते हैं। तू उन्मादरहित होगा। मैं उपचार करूंगा।” (6.111.2) निद्रा के अभाव में ऐसे अनेक मानसिक व स्नायु रोग संभव है। ऋषि रात्रि से कहते हैं- “हे रात्रि! पहले आप मुझे अपने आश्रय में रखें। अपने पश्चात हमें ऊषाकाल के आश्रय में पहुचा दें।” (19.48.2) ऋग्वेद में रात्रि और ऊषा को सगी बहनें कहा गया है। बड़ी बहिन रात्रि जाती है, छोटी बहिन ऊषा आ जाती है। अथर्ववेद के ऋषि आगे कहते हैं “ऊषा अपने आश्रय में रखने के बाद हमें दिन के आश्रय में सौंप दे। दिन हमें फिर से आपको सौंप दें।” (वही 48.2) रात्रि से ऋषि का यह संवाद बड़ा प्यारा है। इसमें स्वस्थ्य जीवन के लिए व्यवस्थित दिनचर्या जरूरी है। इसके साथ व्यवस्थित रात्रि चर्या भी जरूरी है। चरक ने कहा है कि दुनिया में ऐसी कोई भी वनस्पति नहीं है, जो औषधि न हो। ऋग्वेद में वनस्पतियों को देव रूप जानकर नमस्कार किया गया है। अथर्ववेद में भी इसी परंपरा का विकास है। ऋषि वनस्पतियों औषधियों को नमस्कार करते हैं। इसके कई भौतिक कारण हो सकते हैं। पहला कारण वनस्पतियों द्वारा लगातार प्राण वायु आक्सीजन देना है। ऋग्वेद, अथर्ववेद व उपनिषदों में प्राण की महत्ता है। प्राण सर्वस्व है। दूसरा कारण उनका रोगनाशक औषधि होना है। औषधियों की जानकारी इन कवियों तक ही सीमित नहीं है। औषधियों का ज्ञान तत्कालीन समाज में भी विस्तृत है। औषधि का ज्ञान पशु-पक्षियों को भी है, “सुअर, नेवला, सर्प और गंधर्व, पशु-पक्षियों व हंसों को औषधियों का ज्ञान है। ऋषि अंगिरा ने सुंदर पत्तियों वाली इन औषधियों का प्रयोग किया है।” (8.7.23-24) ऋषि पशु-पक्षियों के औषधि ज्ञान से परिचित हैं।सर्प विष दूर करने वाली तमाम औषधियां हैं। एक सूक्त (10.4) में “रथ वंधूर, तरूणक, अश्वनामक, अलधुष, पैद्व आदि” उनके नाम हैं। उन्होंने इन औषधियों का शोध किया है, अनेक औषधियों की जानकारी उन्हें वनवासियों से मिली है। एक मंत्र (10.4.14) में एक किरात कुमारी द्वारा विष की औषधि खोजने का उल्लेख है। यह औषधि किरातों द्वारा खोजी गई हो सकती है। अथर्ववेद के ऋषि सभी दिशाओं से ज्ञान लेते हैं। यह परम्परा ऋग्वेद की है। ऋग्वेद में सभी दिशाओं से श्रेष्ठ ज्ञान प्राप्ति की स्तुति है। प्राचीन स्वदेशी को आधुनिक अद्यतन और विदेशी को राष्ट्रानुकूल लोेकमंगल हितैषी बनाना आधुनिक काल की आवश्यकता है। बेशक इस विज्ञान में रोगों की अनेक औषधियां हैं लेकिन नित्य नए रोग भी बढ़ रहे हैं। प्राचीन आयुर्विज्ञान से हमारा संबंध गड़बड़ा रहा है। प्राचीनता की उपेक्षा और उपहास के कारण हम भारतवासी अपने ही आधारभूत आयुर्विज्ञान से कट गए हैं। इस आयुर्विज्ञान का प्रस्थान बिन्दु ऋग्वेद व अथर्ववेद के रचनाकाल के समय का भारत है। आनन्द से भरे पूरे ये ऋषि वृहत्तर मानवता और हर तरह से सुखी आरोग्य विश्व की मधुर अभिलाषा से सम्पन्न थे।

(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष हैं।)


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