लॉकडाउन 2.0 का बारहवाँ दिन, प्लाज्मा थिरापी के नाम

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आज हम बात करेंगे करोना के उपचार पर चल रही बहस और संभावनाओं की। कोविड १९, यानी करोना का फिलहाल तो कोई सटीक उपचार उपलब्ध नहीं है, किन्तु गंभीर रूप से बीमार मरीजों के लिए, ठीक हो चुके मरीजों का रक्तद्रव्य यानी प्लाज्मा एक आशा की किरण साबित हो सकता है, हालांकि अभी इसके सुदीर्घ परिणामों के आकलन में समय लगेगा, किन्तु चिकित्सक अंतिम साँस तक प्रयास तो करते ही हैं और वैश्विक चिकित्सा एथिकल समिति भी यही कहती है, कि यदि किसी मरीज के शरीर का कोई अंग कटने या उसका जीवन बचाने के सारे रास्ते बंद हो जाएँ, तो जो भी उपचार संभव हो, वो मरीज को और उसके परिजनों को उनकी भाषा में समझाते हुए, उसे वो उपचार अवश्य दिया जाना चाहिए, फिर भले ही वो कोई ज्ञात पध्दति ना हो या कोई नई खोज हो, और भले ही इसका कोई सार्थक परिणाम ना निकले! आखिर कुछ इसी तरह तो सारे इन्नोवेशंस होते आयें हैं।

और कुछ इसी तरह का वाक्या हुआ था सन १७१० में, जब डॉक्टर ओलिवर ने सुना कि जिस चेचक से दुनिया में लाखों लोग मर रहे हैं, जिसको दुनिया ठीक नहीं कर पा रही है, उसे भारतीय डॉक्टर बड़ी आसानी से ठीक कर ले रहे हैं, तो उसने खुद भारत आकर देखा कि यहाँ चेचक का टीका लगाया जाता है। भारत के डॉक्टर, चेचक के मरीज के शरीर का थोड़ा सा ब्लड या पस निकाल कर, उसे सुई की नोक से टच करके, स्वस्थ व्यक्ति के स्किन से चुभा देते हैं, जिससे उस व्यक्ति को दो तीन दिन तो थोड़ा सा बुखार आता है और फिर वो ठीक हो जाता है, उसे फिर कभी भी ताउम्र चेचक नहीं होती और यह विधा, गुरु शिष्य परंपरा का निर्वाहन करते हुए हजारों साल से हिन्दुस्तान में चली आ रही थी, शुश्रुत चरक नारद संहिता की बात करें या नालंदा के ज्ञान की, जो हिन्दुस्तान का था, हर उस अविष्कार को भारत के लापरवाह शासकों के चलते अमीर देशों, ब्रिटेन अमेरिका ने अपने नाम करवा लिया और यही हर ज्ञान की तरह, चेचक के टीके के साथ भी हुआ। ८६ साल बाद अंग्रेजों ने इसका श्रेय एडवर्ड जेनर को सन १७९६ में दे दिया, और आज भी चेचक के टीके का जनक हिन्दुस्तान के गुरुओं को नहीं, बल्कि जेनर को माना जाता है।

ठीक हो चुके मरीजों के रक्त में उपलब्ध एंटीबॉडीज, गंभीर रूप से बीमार मरीज को निःसंदेह राहत दे सकती है, यह हमारा हजारों साल पुराना ज्ञान है, इस उपचार, टीकाकरण या प्लाज़्माथिरैपी को बेहतर आसान शब्दों में इस तरह समझिये कि हमारा शरीर हर बीमारी की जानकारी और उसके उपचार के लिए शरीर के इम्यून सिस्टम द्वारा तैयार किये गए रक्षक मॉडल को याद रखती है, यह यह याददाश्त हमेशा एक्टीव और लाइफलॉन्ग भी हो सकता है और पैसिव भी, इसकी मेमोरी शार्ट टर्म भी हो सकती है और लॉन्ग टर्म भी। इसे समझने के लिए उदाहरण के तौर पर सिर्फ इतना समझिये कि जैसे पेड़ पौधों के पास क्लोरोफिल है, जिसकी वजह से उन्हें भोजन नहीं बनाना पड़ता, यह हुई लॉन्ग टर्म एक्टिव इम्मुनिटी, उन्हें कभी भूख लगेगी ही नही, लेकिन जानवरों, इंसानों को हर बार भूख लगने पर भोजन जुटाना, बनाना ही है, यह हुई शार्ट टर्म पेसिव व्यवस्था यानी जब जब भूख लगेगी, शरीर को भोजन जुटाना ही पड़ेगा, एक बार खा लेने से जीवनपर्यंत भूख से इम्मुनिटी नहीं मिल सकती। कुछ इसी तरह चेचक के टीके से लॉन्ग टर्म एक्टिव इम्मुनिटी मानव शरीर को मिल जाती है। लेकिन टिटनस के टीके से नहीं। सामान्य रूप से हर किसी को, बचपन में लगे टीकों के अलावा, आवश्यकतानुसार टिटनस का टीका ATS लगाते हैं और इससे लगभग १४ दिन में इंसान के शरीर में टिटनस के खिलाफ शार्ट टर्म एक्टिव इम्मुनिटी डेवलप हो जाती है, किसी आकस्मिक चिकित्सा के समय, अगर इंसान को विगत छह माह में टिटनस का टीका ATS नहीं लगा हो तो फिर उसे चोट, सर्जरी के समय अगले दो हफ़्तों तक टिटनस के संक्रमण से बचाये रखने के लिए, उसे टिटनस इम्मुनोग्लोब्युलिन अर्थात TiG का इंजेक्शन भी ATS के साथ देना होता है ताकि अगले दो हफ़्तों में, जब तक टिटनस के टीके के असर से, शरीर में टिटनस के खिलाफ एक्टिव इम्युनिटी डेवलप हो, तब तक TiG उसको इस संक्रमण से बचाये रखने के लिए उसके शरीर में पैसिव इम्युनिटी बनाये रखे।

हालांकि इस सबमे भी TiG की वजह से कई बार जानलेवा घातक इम्मून रिएक्शन हो सकती है। और यही कारण है कि किसी भी उपचार में, पूरी दुनिया में बीमारियों में, सर्जिकल या चिकित्सकीय काम्प्लीकेशन या मौत के आंकड़ों को स्वीकार्य २% से नीचे रखने की हर सम्भव कोशिश चिकित्सा जगत करता है और इससे अधिक किसी भी मृत्यु दर या कॉम्प्लिकेशन रेट पर दुनिया भर का चिकित्सक समूह लगातार अनुसन्धान, प्रयास, चेष्टाएँ और कुचेष्टाएँ करता है ताकि मरीजों की जान बचाने और नुकसान के खतरे को २% से नीचे रखा जा सके।

और यही अब हम करोना में, प्लाज़्मा थिरैपी में होते हुए देखेंगे जब तक कि या तो इसकी कोई वेक्सीन ना बन जाए या कोई और सटीक उपचार ना खोज लिया जाए। तब तक अंधकार में भटक रहे विश्व और वेश्विक चिकित्सा जगत के सामने प्लाज़्मा थिरापी एक क्षीण ही सही, लेकिन आशा की किरण तो है ही, पर यह कितनी कारगर होगी, यह तो ठीक हो चुके मरीज़ों के रक्त में मौजूद एंटीबॉडीज़ का स्तर और जिसे यह थिरापी दी जाएगी, उसके शरीर में मौजूद वायरल लोड, उम्र, अन्य बीमारियाँ और शरीर के सुरक्षा रक्त संचार तंत्र पर निर्भर करेगा! इसलिए, उपचार पाने वाले मरीज़ों का चयन भी बेहद सावधानी और बिना किसी धन, पद, प्रभाव या स्वार्थ के करना होगा?

पर क्या भ्रष्ट तंत्र और चुन चुन कर अच्छे मरीज अपने यहाँ सारे सरकारी खर्च पर जमा कर लेने वाला, “ठीक होने वाले मरीजों को ठीक करने का श्रेय लेने वाला” मेडिकल मेनेजराई माफिया ऐसा होने देगा? अगर हाँ, तो सफलता के आँकड़े अलग होंगे और नही तो जिस तरह सारे उम्रदराज, हाई रिस्क, मल्टीपल बीमारियों वाले मरीज सरकारी मेडिकल कालेजों के सेंटरों में दम तोड़ रहे हैं, यहाँ भी धनपशु इस प्लाज़्मा के दान को, उन धनपिचासों के धनछपाई केंद्रों में, मेडिकल की सीटें बेचते खरीदते दलालों की नोटों से भरी गाड़ियों की तरह खरीदते नजर आयेंगे। यूँ भी, ये सब चंदे, दान और लूट के नबाबों के रूप में कंस कोठरी का आनंद भुगत चुके हैं, जब ये बच्चो के मुंह के निवाले, उनका भविष्य तक छीन सकते हैं, गरीब मजदूरों के तेन्दूपत्तों के अंश की बीड़ियाँ फूंक सकते हैं, तो कहीं ऐसा ना हो कि श्रेष्ठ दानवीरों का यह प्लाज़्मा रूपी अमृतदान भी, किडनी लिवर व्यापम तेन्दूपत्ते की तरह मेडिकल मैनेजर माफिया की तिजोरियों में धन का अम्बार लगाने लग जाए?

और हाँ, चलते चलते, ट्रम्प साब ने करोना से बचने के लिए कीटनाशक अर्थात डिसइंफेक्टेंट के इंजेक्शन लगाने को बोला है, तो भाई, गलती से भी मत लगवा लेना, नहीं तो करोना तो खत्म नहीं होगा लेकिन, आपका राम नाम सत्य जरूर हो जाएगा, अंत समय प्लास्टिक के बेग में, चार काँधे घरवालों के भी नसीब नहीं होंगे और अकेले ही ले जाएंगे आपको नगर निगम वाले, आधा अधूरा गाड़ने फूंकने।
तो घर में ही रहने का, और भीड़ में नई जाने का, मिलते हैं कल, तब तक जै रामजी की।

लेखक :डॉ भुवनेश्वर गर्ग
डॉक्टर सर्जन, स्वतंत्र पत्रकार, लेखक, हेल्थ एडिटर, इन्नोवेटर, पर्यावरणविद, समाजसेवक


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