ध्रुवीकरण की राजनीति क्या होती है और इसका जनता पे क्या असर पड़ता है ?

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संतोष श्रीवास्तव।

ध्रुवीकरण का अर्थ किसी खास राजनीतिक उद्देश्य के लिए किसी खास वर्ग समुदाय का एक हो जाना कहलाता है। ध्रुवीकरण होने से सही गलत की पहचान नही हो पाती है।

किसी एक मुद्दे को केंद्र में रख कर या आधार बना कर उसके आधार पर मतो का ध्रुवीकरण करके चुनाव को प्रभावित करना ध्रुवीकरण है। भारतीय राजनीति में ये परम्परा प्रारम्भ से ही ध्रुवीकरण का आधार धर्म, सम्प्रदाय, जाती, भाषा, क्षेत्रिय, अस्मिता, आदि हो सकते है।

दक्षिण भारत के कई राजनीतिक दल हिंदी विरोध में ध्रुवीकरण करके सत्ता में आ चुके है। ध्रुवीकरण की राजनीति का शिकार होकर आम जनता सुपात्र के बदले आयोग्य को चुनती है जो राष्ट्र हित व जनहित में नीतियां बनाने में सक्षम नही होते और उसका दुष्परिणाम अन्ततः आम जनता को ही भुगतना पड़ता है। राजनीति में ध्रुवीकरण का बहुत कला इतिहास रहा है। भारत में धर्म के साथ-साथ जातिगत ध्रुवीकरण का भी गहरा प्रभाव देखने को मिलता है। ध्रुवीकरण ने समाज के हर वर्ग के लोगो की सोच को बुरी तरह प्रभावित कर रखा है। ध्रुवीकरण के चलते भारतीय बुद्धिजीवियों का भी बस इतना सा फसाना है।

धृतराष्ट्र की तरह या तो उन्हें दिखाई नही देता या गांधारी की तरह देखने के प्रयास ही नही करते है या फिर भीष्म की तरह अपनी प्रज्ञा को अपनी प्रतिबद्धता के खुटे से बांध कर सत्य का चीर हरण देखते रहते है। रोटी की खातिर अपनी विचारधारा की खातिर अपनी चेतना अपनी प्रज्ञा को रहन रख देते है और मुह में रोटी दबाये इधर उधऱ फुदकते रहते है।

प्रतिबद्धता और स्वार्थ के चलते भारतीय बुद्दिजीवी हमेसा पलायनवाद से लेकर रागदरबारी होने के बीच झूलता रहता है।

यही कारण है कि हमारे देश मे हर घटना रंगीन चश्मे से देखी गयी यहा तक कि देश का इतिहास भी अपने अपने चश्मे से गढ़ा गया है। महापुरषों को भी हमने अपनी राजनीति में सोच के चलते बाट लिया है। उनके त्याग और बलिदान को भी हम तभी स्वीकारते है जब वो हमारी राजनीतिज्ञ सोच के रंगीन चश्मे में फिट बैठते है।

इस देश मे बुद्दिजीवी होने का पहला गुड़ तो यही है कि “खुद चाहे कुछ ना करू” पर दुसरो के काम मे दखल जरूर दूँगा।
दूसरा गुड़ हैं कि ईमान को एक फोल्डिंग कुर्सी की तरह प्रयोग में लाया जाय। मौका मिला तो फैला कर बैठ गए अन्यथा टिका दिया किसी कोने में। फिर वह बुद्धिजीवी ही क्या जो अपनी सुविधानुसार बात करे न तोड़े-मरोड़े। बस इसी लिए धर्मनिपेक्षता को भी अपनी सुविधा से परिभाषित कर लेते है। उनके अनुसार आतंकवाद का कोई धर्म नही होता मगर गुंडागर्दी में वो धर्म देख लेते है।

इस देश मे हर बुद्दिजीवी यह चाहता है कि उनके हिस्से का धर्मयुद्ध कोई और जाके लड़े ; संकट काल मे भी नेतृत्व करना तो दूर की बात है, उन्हें अपने शीश महल से निकलना भी गवारा नही होता है।

देश के 95% बुद्धिजीवियों को देश मे क्या होना चाहिए और क्या नही होना चाहिए ; इस पर बहस कर एक आत्म संतुष्टि मिलती है ; मगर देश के प्रति कुछ उनकी भी कोई जिम्मेदारी है , इस बेहुदा विचार को वो अपने से कोसो दूर रखते है ।

बुद्धिजीवियों के लिए ” देश के हर मुद्दे पर राय देने एक दिमागी कसरत है ” मगर जब बात त्याग और बलिदान की आती है तो बगले झाँकने लगते है। इतिहास गवाह है कि विरले ही दिनकर होते है जो राजा को आइना दिखाने की हिम्मत कर पाए । यही कारण है कि देश मे हम अपनी कमजोरियों का विश्लेषण नही करते । किसी घटना की विवेचना नही करते बस अपने आकाओं के हिसाब से अपनी राय व्यक्त करते है।

इस देश के लिए निश्चित रूप से एक बड़ी त्रासदी है क्यो की हर बुद्दिजीवी हर मीडिया हाउस किसी न किसी खुटे से बंधा हुआ है। इस लिए 1947 से लेकर आज तक हमने अपनी विफलताओं पर पर्दा ही डालने का काम किया है। चाहे काश्मीर समस्या हो, या चीन के साथ सिमा विवाद, नक्सली समस्या हो या फिर, बेरोजगारी और गरीबी की
हम एम कैसेट की भांति रिकॉर्ड चलाते रहते है, ना कोई गंभीर चर्चा होती है, ना गहन चिंतन । नतीजा समस्या अपनी जगह खड़ी होती है और हमारे हल का उस समस्या से कोई सरोकार नही होता है।

इस देश का बुद्दिजीवी अब यह नही कहता ” कौन कहता है आसमा में सुराख नही हो सकता एक पत्थर तबीयत से उछालो यारो ” ऐसे में देश को आशा आम जनता से ही है।

आपातकाल में भी यही आम आदमी था जिसने विरोध की मसाल जलाये रखी थी और आज भी मेरे जैसे लोगो की आशा यही जनमानस है जो बड़ी बड़ी बातें भले ही न करे ‘ मगर देश हित मे आज भी त्याग और बलिदान के लिए तैयार रहते है ।

जै हिन्द जै भारत जै राष्ट्रवाद ।।

लेखक “जयहिंद नेशनल पार्टी” के प्रवक्ता है।


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