व्यंग्य: हम पहले ही हो चुके हैं आत्मनिर्भर ?

Share:

माननीय, आपने तो अब कहा है कि ‘कोरोना ने हमें आत्मनिर्भर बनना सिखाया है’ हम तो जब से देशवासियों पर आपने अपना वरद हस्त रखा है तभी से आपके आशीर्वाद से हम आत्म निर्भर बनने की दिशा में बढ़ चले थे। हालांकि आप समय समय पर देश के लोगों को ‘आत्म निर्भर बनने’ का इशारा भी करते रहे पर यह भोली भाली नासमझ जनता जो है ना साहेब,यह आपके मुंह से निकले शब्दों को पकड़ के बैठ जाती है। इशारा समझने की कोशिश ही नहीं करती। अब वो हर साल 2 करोड़ नौकरी देने वाली बात ही देख लीजिये, आप के मुंह से क्या निकल गया कि अभी तक कुछ लोग पूछते रहते हैं कि कहां है 2 करोड़ रोज़गार। कोई रोज़ बैंक जाकर अपने खाते में 15 लाख आए कि नहीं ,यही पूछता फिर रहा है। अरे साहब ये नासमझ लोग इन जुमलों के मर्म को तो समझते ही नहीं। इन्हें समझना चाहिए कि यदि इस तरह की जुमलेबाज़ी हो इसके बावजूद भी इन पर निर्भर रहने के बजाए “आत्म निर्भर ” कैसे बनना है यह है इन बातों का असली निचोड़।
वो साहब आपने पकौड़े के रोज़गार वाली बात कही थी ना ? वो भी तो आत्मनिर्भरता की ओर ही इशारा था आपका। साथ ही आपने नाले से गैस निकलने वाली युक्ति भी बता दी थी। साफ़ सन्देश था आपका कि नौकरी पर भी निर्भरता छोड़ो और गैस सिलिंडर पर भी । देश के बिजबिजाते जाम पड़े नालों में साईकिल का कोई पुराना ट्यूब डाल कर नाले की रासायनिक गैस का प्रयोग करो और नाले के किनारे बैठ कर चाय-पकोड़े बेचो। न गैस पर निर्भरता न दुकान की पगड़ी व किराए की झंझट।
साहेब, आजकल आप कोरोना को लेकर अत्यंत व्यस्त हैं। देश देखे न देखे पर पूरी दुनिया इस समय आपकी तरफ़ बड़ी उम्मीदों से देख रही है। इसके बावजूद आप 5-6 बार अपने व्यस्ततम कामों से समय निकालकर हमारे टूटे घरों व झुग्गियों में किश्तों वाले टी वी बक्से में पधारते हैं यही क्या कम है साहेब। इस बार भी आपने आत्मनिर्भरता को शीर्षक बनाकर जो ज्ञान वर्षा की है उसका आभास भी हम सभी को पहले वाले लॉक डाउन से ही होने लगा था। हम तो आपके कहने से पहले ही आत्म निर्भर होने लगे थे। पूरे देश का मज़दूर वर्ग जो आपके जयकारे लगाते नहीं थकता वह ट्रेनों,बसों व टैक्सियों पर निर्भरता छोड़ कर पूरी तरह ‘आत्म निर्भर’ बनकर पैदल ही निकल पड़ा था हज़ार दो हज़ार किलोमीटर की अपने घर गांव की यात्रा पर। साहेब,लम्बे सफ़र में जब चप्पलें घिस गयीं तो रास्ते में बड़े बड़े साहब लोगों द्वारा फेंकी गयी पानी व ठन्डे की बोतलें उठाकर उसी को चपटी करके पैरों में सुतली या रस्सी से बांधकर चल पड़े गांव की ओर। कौन चप्पल पर निर्भर रहे। वैसे भी बोतल से चप्पल बनाने का आइडिया भी आपकी ‘हुनर हाट’ की ही देन है।
इतनी लम्बी पैदल ‘आत्म निर्भर ‘ यात्रा में कई लोग मर गए। किसी पर रेल चढ़ गयी तो किसी को कोई वाहन कुचल गया, कोई थक हार कर मर गया तो कोई भूख सहन नहीं कर सका। किसी के पैरों में ज़ख़्म हो गए। किसी गर्भवती मां ने सैकड़ों किलोमीटर की पैदल यात्रा के दौरान प्रसव अंजाम दिया। यह सब चंद छोटी मोटी बातें हैं साहेब। इन बातों पर गंभीर होने ज़रुरत नहीं। जब किसी नेक काम के लिए हवन होता है तो कभी कभी हाथ भी तो जल ही जाता है? अब नोटबंदी के समय भी सैकड़ों लोग लाइनों में खड़े थे। तब भी यही ज्ञान दिया गया था ना कि हमारी फ़ौज भी तो सीमा पर दिन रात खड़ी रहती है। बस यह भी आत्मनिर्भरता का वृहद मिशन है हज़ार-पांच सौ लोग मर भी गए तो क्या ? है तो मज़दूर वर्ग ही ना ? कल भी तो मरना ही था। कौन सा पांच सौ साल ज़िंदा रहने का पट्टा लिखवाकर आए थे ? अब तो साहेब काम धाम भी नहीं रहा,सो गद्दे,बिस्तरे,चादर पर भी क्या निर्भर रहना। आपके आशीर्वाद व प्रेरणा से हमने तो धरती माता को ही अपना बिस्तरा और नील गगन को अपना चदरा ओढ़ना मान लिया है। इसपर निर्भर रहना भी तो आत्म निर्भरता है ना साहेब?
साहेब हमने तो आत्मनिर्भरता के गुण ज़रूर सीख लिए हैं परन्तु आप हमारे ऊपर ज़रूर निर्भर रहना। इसी निर्भरता के चलते 5 वर्षों बाद ही सही परन्तु आपके और आपके सेनानियों के दर्शन तो हो जाते हैं और आपके प्रवचनों से ज्ञानवर्धन भी हो जाता है। आप ही तो भारत भाग्य विधाता हैं साहेब ?

तनवीर जाफ़री


Share:

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *