नफ़रत, दंगे मानव रचित जबकि प्रेम,सद्भाव व धर्मनिरपेक्षता प्राकृतिक

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वैसे तो नेताओं के पर्यायवाची के रूप में रहबर, रहनुमा, मार्गदर्शक नेतृत्व प्रदान करने वाला आदि बड़े ही सुन्दर-सुन्दर शब्द इस्तेमाल किये जाते हैं । परन्तु यह भी शाश्वत सत्य है कि आज दुनिया में हो रही प्रायः हर उथल के लिए यही नेता व रहबर ही ज़िम्मेदार हैं। दो धर्मों,दो देशों या राज्यों की सीमाओं,दो जातियों,किन्हीं दो महाद्वीपों या दो अलग अलग भाषायी लोगों या अलग अलग रंग भेद के लोगों के मध्य नफ़रत कैसे पैदा करनी है, इनके बीच दंगे फ़साद कैसे भड़काने हैं किन्हीं दो अलग रंग-भेद, सीमा, विचार, धर्म-जाति के लोगों को एक दूसरे का ख़ून बहाने के लिए कैसे आमादा करना है,यह हुनर नेताओं से बेहतर कोई नहीं जानता ? वैसे इतिहास इस बात का भी हमेशा साक्षी रहा है कि जिस ने भी सत्ता का दुरूपयोग करते हुए अपने शासन काल में नफ़रत, ज़ुल्म, अत्याचार या सामाजिक नफ़रत का ज़हर फैलाया प्रायः ऐसे नेताओं का हश्र भी बुरा ही हुआ है। परन्तु न जाने क्यों तानाशाही प्रवृति के नेतागण इतिहास की उन घटनाओं से सबक़ नहीं लेते और सत्ता या बहुमत में आने के बाद समाज में नफ़रत का ज़हर फैलाने लगते हैं। सत्ता पर क़ाबिज़ रहने के एकमात्र लक्ष्य को हासिल करने के मक़सद से नफ़रत फैलाने वाले रुग्ण मानसिकता के यह लोग समय,हालात,परिस्थितियां आदि कुछ भी नहीं देखते। परन्तु इन सब के बावजूद यह बात भी बार बार साबित होती रही है कि सम्पदायिकता,जातिवाद, वैमनस्य, नफ़रत, दंगे, फ़साद आदि नेता अर्थात मानव रचित हैं जबकि प्रेम,सद्भाव,परोपकार,सर्वधर्म समभाव व धर्मनिरपेक्षता आदि पूर्ण रूप से प्राकृतिक एवं मानव स्वभाव में जन्म से ही शामिल हैं।
इन दिनों पूरे विश्व में फैली कोविड महामारी के दौरान एक बार फिर भारत सहित पूरे विश्व में प्रेम,सद्भाव,परोपकार,सर्वधर्म समभाव व धर्मनिरपेक्षता जैसी प्रकृतिक मानवीय विशेषता का जादू सिर चढ़ कर बोलता दिखाई दे रहा है। हालाँकि नफ़रत के पेशेवर व्यवसायियों ने कोरोना महामारी के दौरान भी नफ़रत का व्यवसाय करने के लिए ऐड़ी-चोटी का ज़ोर लगा दिया। पूरे देश ने देखा कि किस तरह राजनीति व बिकाऊ मीडिया के संयुक्त नेटवर्क ने शुरू में जमाअती लोगों के बहाने मुसलमानों के सिर पर महामारी के विस्तार का ठीकरा फोड़ने की भरपूर कोशिश की। पूर्वाग्रही लेखकों व पत्रकारों ने भी इस विषय में साम्प्रदायिकता का पूरा रंग भरने की कोशिश की यहां तक कि इसे कोरोना जिहाद का नाम भी दे दिया गया। यही सिलसिला आगे बढ़कर मुसलमानों से सब्ज़ी व फल आदि न ख़रीदने के आह्वान तक पहुंचा। यहाँ तक कि वरिष्ठ विधायक व जनप्रतिनिधि स्तर के लोग भी मुसलमान रेहड़ी सब्ज़ी वालों से बदसुलूकी करते देखे गए। मीडिया में बहस का विषय, कोरोना से बचाव के तरीक़े क्या हों इससे हटकर हिन्दू मुस्लमान व ‘कोरोना जिहाद ‘ हो गया। एक क़यास वाली मनगढ़ंत ख़बर यह भी पढ़ने को मिली कि श्रमिकों की घर वापसी के दौरान इनमें सामुदायिक संघर्ष छिड़ सकता है। परन्तु इस तरह के क़यास या ख़बरें मानव रचित, पूर्वाग्रही तथा समाज में नफ़रत फैलाने व राजनैतिक लाभ उठाने के मक़सद से गढ़ी जाती हैं। इस वैमनस्य पूर्ण विघटनकारी मिशन को अंजाम देने के लिए इन अतिवादी शक्तियों को एड़ी चोटी का ज़ोर लगाना पड़ता है। अनेकानेक गुप्त बैठकें करनी पड़ती हैं, अफ़वाहें फैलानी पड़ती हैं, आई टी सेल स्थापित करने पड़ते हैं, व्हाट्सऐप व फ़ेसबुक जैसे सोशल प्लेटफ़ॉर्म्स का सहारा लेना पड़ता है , झूठ, मक्कारी, ग़लतबयानी, भड़काऊ भाषण, सत्ता का दुरुपयोग आदि और भी बहुत कुछ करना पड़ता है। तब कहीं जाकर दंगे भड़कते हैं,समाज धर्म-जाति, वर्ण-भेद , सीमा, देश या राज्यों आदि के आधार पर बंटा दिखाई देते है और निश्चित रूप से इस सामाजिक विभाजन का पूरा लाभ इसी अतिवादी साम्प्रदायिक वर्ग अथवा वर्णवादी या संकीर्ण सोच व मानसिकता वाले तथाकथित ‘रहनुमाओं ‘ को ही मिलता है।
परन्तु ठीक इसके विपरीत किसी भी समाज में एक दूसरे के प्रति दयाभाव रखना एक दूसरे की , सहायता, परोपकार, किसी के दुःख को अपना दुःख समझकर उसमें शरीक होना, परमार्थ, प्रेम सद्भाव व धर्मनिरपेक्षता जैसी बातों के लिए किसी प्रकार के प्रपंच, पाखंड, किसी आई टी सेल, किसी संस्था, मीडिया या अफ़वाहबाज़ी, किसी संघ या जमाअत की क़तई ज़रुरत नहीं होती। बल्कि मानव में यह गुण प्रकृति प्रदत्त हैं और विश्वव्यापी हैं। इसकी भी हज़ारों मिसालें इसी कोरोना महामारी के दौरान देखने को मिलीं। एक तरफ़ नफ़रत के सुनियोजित षड़यंत्र रचे जा रहे थे, हिन्दू मुसलमानों के बीच नफ़रत की गहरी खाई खोदने के दुष्प्रयास किये जा रहे थे तो दूसरी ओर सरकार की ग़लत नीतियों के चलते भीषण गर्मी में सड़कों पर पैदल चलते मज़दूरों के बीच व उनको लेकर राष्ट्रीय स्तर पर प्रकृतिक रूप से दया, प्रेम व सद्भाव का सैलाब उमड़ रहा था। पूरे देश में अनेकानेक समाजसेवी बिना किसी का धर्म या जाति पूछे हुए श्रमिकों व उनके परिजनों को खाना-पानी-जूता-चप्पल-दवाइयां विश्राम स्थल व नक़दी जैसी सुविधाएं दे रहे थे। न सिख धर्म के लोग किसी का धर्म जाति पूछ कर किसी को भोजन दे रहे थे न हिन्दू या मुस्लिम धर्म के लोग। यहाँ तक कि पुलिस व अन्य कई सरकारी विभागों के लोगों द्वारा भी रसोई चलाकर मानव जाति की सेवा का पुनीत कार्य किया गया।
बात केवल सेवा पर ही ख़त्म नहीं हुई। बल्कि लॉक डाउन के दौरान कई ऐसी ख़बरें भी आईं जो इंसानियत की मिसाल पेश करने वाली थीं। पश्चिम बंगाल के मालदा जिले में लोहाईतला गांव में विनय साहा नामक एक वृद्ध की मौत हो गई। इस गांव में साहा परिवार ही अकेला हिंदू परिवार है बाक़ी सौ से ज़्यादा मुस्लिम परिवार हैं। साहा परिवार के सभी मुस्लिम पड़ोसी इस विपत्ति की घड़ी में मदद के लिए सामने आए। उन्होंने न केवल अर्थी को कंधा दिया बल्कि शव यात्रा के दौरान राम नाम सत्य है का उच्चारण भी किया। लॉकडाउन की वजह से उनके सगे संबंधी नहीं पहुंच सके। इसलिए शव को15 किमी दूर शवदाह गृह तक ले जाना संभव नहीं हो पा रहा था। परन्तु गांव के सभी मुस्लिम पड़ोसियों ने ‘राम नाम सत्य है’ का उच्चारण करते हुए अपने कंधे पर शव रखकर 15 किलोमीटर चलकर उसे शवदाह गृह तक पहुँचाया। इस तरह की कई घटनाएं लॉक डाउन के दौरान हुई हैं। उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में भी मोहल्ला आनंद विहार साठा निवासी एक हिन्दू परिवार में एक बुज़ुर्ग रविशंकर का निधन हो गया। वहां भी लॉकडाउन के चलते अर्थी उठाने के लिए उनका कोई रिश्तेदार संबंधी मौजूद नहीं था। लॉकडाउन के चलते सभी संबंधियों ने आने में असमर्थता ज़ाहिर की। जब स्थानीय मुसलमानों को इस बात का पता चला तो मुसलमानों ने अर्थी को कंधा दिया व ‘राम नाम सत्य’ बोलते हुए शमशान घाट ले जाकर शव का अंतिम संस्कार कराया। इसी तरह राजस्थान के पाली में रामनगर माेहल्ले में जामा मस्जिद के पास रहने वाले 60 वर्षीय हीरा सिंह को उनके मुस्लिम पड़ाेसी न केवल अर्थी को कन्धा देते नज़र आए बल्कि उनके पड़ोस में रहने वाले 6 साल के मुस्लिम बच्चे हुसैन ख़ान ने उनकी चिता काे मुखाग्नि भी दी।
इसी तरह कानपुर के रसूलाबाद इलाक़े में जोत गांव में रहने वाले क़ासिम अली देश में कोरोना का संकट समाप्त करने के मक़सद से रामायण का पाठ करते देखे व सुने गए। कई जगह मुस्लिम रोज़दारों को अपना रोज़ा तोड़ कर अपने हिन्दू भाई या बहन की जान बचाने के लिए रक्तदान करते देखा गया। तो कई मुसलमानों ने ईद जैसे पवित्र त्यौहार पर नये कपड़े ख़रीदने के बजाए भूखे प्यासे व पैदल चल रहे श्रमिकों की सेवा में पैसे ख़र्च करना ज़रूरी समझा। कहीं श्रमिकों के लिए बिना धर्म जाति का भेद किये हुए सांझी रसोई चलती दिखाई दी तो कहीं अनिरुद्ध झारे नाम का एक हिन्दू युवक ग़यूर अहमद नाम के एक मुस्लिम विकलांग युवक को उसकी विकलांगों वाली साईकल को धकेलता हुआ ग़यूर को भरतपुर राजस्थान से मुज़फ़्फ़रनगर तक 350 किलोमीटर उसके घर तक लाया जबकि अनिरुद्ध नागपुर का रहने वाला था। इसी तरह की न जाने कितनी घटनाएं केवल इसी लॉक डाउन के दौरान घटी हैं जो इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए पर्याप्त हैं कि फ़साद, वैमनस्य, नफ़रत, साम्प्रदायिकता व दंगे आदि यह सब मानव रचित व बड़े स्तर पर किये गए प्रबंधन व साज़िश के फलस्वरूप ही संभव होते हैं जबकि प्रेम, परोपकार, सह्रदयता, सद्भाव, परमार्थ व धर्मनिरपेक्षता जैसी बातें मानव में प्राकृतिक रूप से पाई जाती हैं।


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