जनसंख्या नियंत्रण कानून: महत्वपूर्ण सवालों पर नहीं हो रही बहस

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डॉ अजय ओझा।

विश्व जनसंख्या दिवस पर डाउन टू अर्थ की विशेष रिपोर्ट।

रांची, 11 जुलाई। वस्तुतः भारत जनसंख्या को स्थिर करने की राह पर है। इसीलिए जनसंख्या नियंत्रण को सुनिश्चित करने के लिए दंडात्मक उपायों की शुरुआत पर जोर दिया जाना गलत है।

केंद्र सरकार देश में जनसंख्या नियंत्रण कानून लागू करनी चाहती है। डाउन टू अर्थ ने इस मुद्दे का व्यापक विश्लेषण किया।
जनसंख्या नियंत्रण पर चल रही बहस में मौजूदा चलन की अनदेखी हुई है। जनसंख्या को नियंत्रित करने के लिए हुए अभियान की सफलता का जश्न मनाने के बजाय यहां आगे के नियंत्रण पर ध्यान केंद्रित किया जा रहा है, जिसकी वजह से जो अब तक हासिल हुआ है, वह शायद निष्फल हो जाए। महिलाओं के शिक्षा स्तर में वृद्धि के लिए बाल विवाह में कमी से लेकर गर्भनिरोधक में वृद्धि तक, यह एक सफलता की कहानी है, जिस पर बहस नहीं हुई है।

राज्यों के दो समूहों की तुलना जनसंख्या नियंत्रण के कारणों को समझने में मदद करती है। केरल और पंजाब में कुल प्रजनन दर 1.6 है, जबकि बिहार और उत्तर प्रदेश में कुल प्रजनन दर क्रमशः 3.4 और 2.7 है। दिल्ली स्थित गैर-लाभकारी संस्था, पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया की कार्यकारी निदेशक पूनम मुटरेजा कहती हैं, “प्रति महिला बच्चों की संख्या में उनके स्कूली शिक्षा के स्तर के साथ गिरावट आती है।” राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 के आंकड़ों से पता चलता है कि 2014-15 में 10 या अधिक वर्षों के लिए बिहार में केवल 22.8 प्रतिशत महिलाएं स्कूल गईं। पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश में यह आंकड़ा 32.9 फीसदी था। इसके विपरीत, केरल में 72.2 प्रतिशत महिलाओं ने 10 या अधिक वर्षों के लिए स्कूली शिक्षा हासिल की, जबकि पंजाब में यह आंकड़ा 55.1 प्रतिशत था।

देशव्यापी स्तर पर, स्कूली शिक्षा प्राप्त न करने वाली महिलाओं के औसतन 3.1 बच्चे होते हैं, जिनकी तुलना में बारहवीं या उससे अधिक शिक्षा प्राप्त करने वाली महिलाओं के बीच यह आंकड़ा 1.7 बच्चों का है।

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण का एक ऐतिहासिक विश्लेषण पिछले कुछ वर्षों में प्रजनन दर में आई गिरावट को व्यक्त करता है। 1992-93 से 1998-99 तक भारत की कुल प्रजनन दर 3.4 से घटकर 2.9 रह गई। इस दौरान, 18 वर्ष की आयु तक शादी कर लेने वाली 20-24 वर्ष की आयु वर्ग की महिलाओं की संख्या में 7.7 प्रतिशत की गिरावट आई। इस समय, विवाहित महिलाओं द्वारा गर्भ निरोधकों के उपयोग में 17.26 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 उन राज्यों में कुल प्रजनन दर में बढ़ोतरी दर्शाता है, जहां बाल विवाह की संख्या में वृद्धि हुई है। 18 वर्ष से पूर्व विवाह करने वाली 20 से 24 वर्ष की आयु की महिलाओं की संख्या का प्रतिशत बिहार में 42.5 था और उत्तर प्रदेश में 21.1 था। लेकिन केरल और पंजाब में यह आंकड़ा केवल 7.6 प्रतिशत का था।

1998-99 से 2005-06 तक कुल प्रजनन दर 2.9 से घटकर 2.7 रह गई। इस अवधि के दौरान देश ने महिलाओं की मानसिकता में एक बदलाव देखा। गर्भ निरोधकों के उपयोग में 13.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई और बाल विवाह में 5.2 प्रतिशत की गिरावट आई। यह डेटा 1998-99 से 2005-06 के दौरान 15 से 19 वर्ष की आयु की विवाहित महिलाओं द्वारा गर्भ निरोधकों के उपयोग में 8 से 13 प्रतिशत तक की वृद्धि दर्शाता है। 2005-06 से 2015-16 तक आते-आते कुल प्रजनन दर 2.7 से घटकर 2.2 हो गई जो प्रतिस्थापन दर के करीब है। हालांकि, इस अवधि के दौरान गर्भ निरोधकों के उपयोग में आश्चर्यजनक रूप से 1.4 प्रतिशत की कमी आई। मुटरेजा के अनुसार, 15-49 आयु वर्ग में लगभग 30 मिलियन विवाहित महिलाएं और 15-24 आयु वर्ग में 10 मिलियन महिलाएं गर्भावस्था में देरी की या उससे बचने की इच्छा रखती हैं, लेकिन उनकी गर्भ निरोधकों तक पहुंच नहीं है।

गटमाचेर इंस्टीट्यूट नामक एक शोध और नीति संगठन का अध्ययन कहता है कि 2015 में भारत में 15.6 मिलियन गर्भपात हुए। इसका मतलब है कि 15 से 49 वर्ष की आयु की प्रति 1,000 महिलाओं पर गर्भपात की दर 47 थी। इसी तरह, यूनाइटेड स्टेट्स एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट (युसेड) के 2018 के एक अध्ययन में कहा गया है कि “राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-3 से राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 तक कुल प्रजनन दर में 18.5 प्रतिशत से अधिक गिरावट आई है। गिरावट गर्भपात (62 फीसदी) और शादी में उम्र (38 फीसदी) बढ़ने के कारण आई।”

इसके अलावा, छोटे परिवारों को तरजीह देने वाली महिलाओं की संख्या में वृद्धि हुई है। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ मैनेजमेंट रिसर्च यूनिवर्सिटी, जयपुर के पूर्व प्रोफेसर देवेंद्र कोठारी कहते हैं कि 15 से 49 साल की शादीशुदा महिलाओं में से केवल 24 प्रतिशत ही दूसरा बच्चा चाहती हैं। वह अनियोजित गर्भधारण को भारत की वर्तमान जनसंख्या वृद्धि का कारण मानते हैं। 10 में लगभग 5 जीवित जन्मे बच्चे अनापेक्षित, अनियोजित या बस अवांछित हैं। 2018-19 में पैदा हुए 26 मिलियन बच्चों में से लगभग 13 मिलियन को अनियोजित के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-1 से राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 के आधार पर यह अनुमान है कि 430 मिलियन प्रसव में से 135 मिलियन अनियोजित गर्भधारण का परिणाम थे।

वस्तुतः भारत जनसंख्या को स्थिर करने की राह पर है। इसीलिए जनसंख्या नियंत्रण को सुनिश्चित करने के लिए दंडात्मक उपायों की शुरुआत पर जोर दिया जाना गलत है। वास्तव में दो बच्चों की नीति लागू करने के लिए विभिन्न प्रकार के प्रतिबंध लगाने वाले राज्य अब अपने कदम वापस खींच रहे हैं। 2 बच्चों की नीति लागू करने वाले 12 राज्यों में से 4 राज्य इसे पहले ही रद्द कर चुके हैं। गोली कहते हैं कि दंडात्मक कार्रवाई दुनिया भर में बढ़ती आबादी को रोकने विफल रही है।

मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्य सचिव निर्मला बुच द्वारा आंध्र प्रदेश, हरियाणा, मध्य प्रदेश, ओडिशा और राजस्थान में दो से अधिक बच्चों वाले लोगों की योग्यता को प्रतिबंधित करने वाले कानूनों पर किए गए एक अध्ययन में यह निष्कर्ष निकला कि दो बच्चों का मानक लोगों के लोकतांत्रिक और प्रजनन अधिकारों का उल्लंघन करता है। बुच कहती हैं, “हमारे उत्तरदाताओं में से महिलाओं की एक बड़ी संख्या (41 प्रतिशत) ने बताया कि दो बच्चों के मानक का उल्लंघन करने की वजह से उन्हें अयोग्य घोषित किया गया। दलित उत्तरदाताओं के बीच यह अनुपात और भी अधिक (50 प्रतिशत) थी।”

2013 में चीन ने अपनी 1979 में लागू हुई कुख्यात एक बच्चे की नीति में थोड़ी ढील दी। द इंस्टीट्यूट फॉर पॉपुलेशन एंड डेवलपमेंट स्टडीज, शीआन जियाओतोंग विश्वविद्यालय, चीन के 2016 में हुए एक अध्ययन द हिस्ट्री ऑफ द फैमिली जर्नल के अनुसार, इस नीति के परिणामस्वरूप सेक्स-चयनात्मक गर्भपात, गिरते प्रजनन स्तर, जनसंख्या के अपरिवर्तनीय रूप से बूढ़े होने, श्रमिकों की कमी और आर्थिक मंदी जैसे अवांछनीय परिणाम सामने आए। डेरेल ब्रिकर के अनुसार दंडात्मक उपाय मानवाधिकारों के परिप्रेक्ष्य से मूर्खतापूर्ण हैं। वह कहते हैं कि भारतीय महिलाओं का शिक्षा तक अधिक पहुंच होने से उनकी कम होती प्रजनन क्षमता पर बड़ा प्रभाव पड़ेगा।


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