भारत की महिलाओं में तेजी से बढ़ता पॉली सिस्टिक ओवेरियन डिजीज

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आलोक एम इन्दौरिया

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक है)

भारत जैसा विकासशील देश यूं तो अब स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में बहुत आगे बढ़ चुका है मगर इन दिनों एक बीमारी बहुत तेजी से भारतीय महिलाओं में पनपती जा रही है और वह है पॉली सिस्टिक ओवेरियन डिजीज जिसे पीसीओडी के नाम से जाना जाता है। भारतीय महिलाओं में अब पीसीओडी बेहद ख़तरनाक रूप लेता जा रहा है जिसके चलते हारमोंस असंतुलन की वजह से उन्हें माहवारी जनित बीमारी समेत कई बीमारियां घेर लेती न हैं और भविष्य में उनका मा बनना बेहद कठिन हो जाता है। यह वह गंभीर समस्या है जो गर्भ धारण करने में बहुत बड़ी बाधा बनती है और महिलाओं में बांझपन का एक प्रमुख कारण भी उभर कर सामने आया है। इसके चलते जहां महिलाएं इससे जुड़ी मुश्किलों को तो झेलती ही हैं सामाजिक रूप से बांझ कहलाने का शिकार होकर डिप्रेशन में भी चली जाती है।

पीसीओडी और पीसीओएस महिलाओं में होने वाली आम समस्या बन गई है जो धीरे-धीरे विकरलता का रूप धारण करती जा रही है ।इस बीमारी में हारमोंस के असंतुलन के कारण ओवरी में छोटी-छोटी सिस्थ यानी गांठ बन जाती है। ओवरी में बनी इन छोटी-छोटी गठों के कारण महिलाओं में बड़े स्तर पर स्वास्थ्य में परिवर्तन होने लगता है और यह माहवारी और प्रेगनेंसी दोनों को बहुत हद तक डिस्टर्ब करती है । साथ ही चेहरे और शरीर के दूसरे अंगों पर बाल या रोयें आना और वजन कम या ज्यादा हो जाना जैसी तमाम स्वास्थ्य जनित समस्याएं खड़ी हो जाती है ।मगर सबसे बड़ी बीमारी इसके कारण होती है वह है महिलाओं में गर्भ धारण करने में बहुत मुश्किल हो जाना और यह बांझपन तक की नौबत लाने का बहुत बड़ा कारण भी बन जाता है। यह बीमारी किशोरियों, प्रजनन योग्य महिलाओं और रजो निवृत्ति वाली महिलाओं में विभिन्न स्तर पर पाई जाती है ।इस गंभीर समस्या जो की इस देश की मातृशक्ति से सीधी जुड़ी हुई है पर फिल् वक्त सभी का ध्यान कम है या ना के बराबर है। मगर इसके यदि हम आंकड़े देखेंगे तो वह बेहद चौंकाने वाले हैं। मई 2022 में भारत की महिलाओं में पीसीओडी की बढ़ती बीमारी पर यूनिसेफ की एक रिपोर्ट सामने आई थी। जिसके मुताबिक दक्षिण भारत और महाराष्ट्र में लगभग 9.3% महिलाएं पीसीओएस से पीड़ित है। जबकि ऐसा बताया जाता है कि 22.5% महिलाओं को पीसीओडी की बीमारी है ।भारत के ज्यादातर इलाकों में यह मर्ज तेजी से बढ़ता जा रहा है जो अब बढ़कर 22% से भी ऊपर पहुंच गया है ‌।यानी 7 करोड़ के आसपास की महिला आबादी इससे कहीं ना कहीं किसी न किसी रूप में इससे प्रभावित है। खास बात यह है कि भारत के संदर्भ में अभी तक 20 से 35 आयु वर्ष वर्ग की महिलाएं ही इस रोग की शिकार होती थी मगर अब बहुत चिंता का विषय है की 15 ,16 वर्ष की बालिकाओं में भी यह रोग अपनी जड़ जमता जा रहा है। डब्ल्यू एच ओ के आंकड़ों पर नजर डालें तो पता चलेगा कि वैश्विक स्तर पर 116 मिलियन महिलाएं कहीं ना कहीं इस रोग की गिरफ्त में है।

इस बीमारी की असल वजह अभी तक शोध का विषय है लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि बदली हुई लाइफस्टाइल, लेट नाइट , नाइट शिफ्ट में काम करना ,दिन में देर तक सोना, ड्रिंकिंग ,स्मोकिंग ,लाइफ में तेजी से बढ़ता है स्ट्रेस, पैकेज्ड फूड, फास्ट फूड और एक्सरसाइज नहीं करना आदि वह वजह है जिनके कारण रूटिंन बायोलॉजिकल क्लॉक प्रभावित होती है जो इस समस्या को बढ़ाने का बड़ा कारण बन जाती है ।इस बीमारी में कुछ केसों में गर्भधारण की समस्या होती है जो लाइलाज होने की अवस्था में बांझपन के रूप में परिवर्तित हो जाती है ।इसके अलावा चेहरे पर मुंहासे और हार्मोनल इंबैलेंस की वजह से मोटापा बढ़ाना, कोलेस्ट्रॉल बढ़ना, समेत टाइप टू शुगर डिसीज जैसे लक्षणों की भी संभावनाएं उत्पन्न हो जाती है। भारतवर्ष में विगत 10 सालों में इस बीमारी ने रफ्तार पकड़ ली है और अधिकांश महिलाओं में इसकी जानकारी का अभाव इस बीमारी के बढ़ने का एक बहुत बड़ा है। यानी महिलाओं को इस बीमारी के बारे में जानकारी नहीं है और यह सच के करीब भी है। यही कारण है कि आंकड़ों की भाषा में 22% से अधिक महिलाएं देश में कहीं ना कहीं, किसी न किसी रूप में इससे प्रभावित है।यह वह संख्या है जो अस्पताल या डॉक्टर तक पहुंची है ।मगर जानकारों का मानना है कि लगभग इसके आसपास की ही संख्या उन महिला मरीजों की है जो जानकारी के अभाव में डॉक्टर के पास रिपोर्ट नहीं कर पाई है । इनकी अधिकतर आबादी ग्रामीण क्षेत्र में है तो वहीं शहरी क्षेत्र में वीकर सैक्शन और स्लम एरिया की वह गरीब महिलाएं हैं जो इस बीमारी का नाम ही नहीं जानती मगर वे इससे ग्रसित हैं ।यदि इन सभी का सर्वे कराया जाए तो इनका आंकड़ा 22% से बहुत अधिक होगा।

पीसीओडी और पीसीओएस का कोई तयशुदा इलाज नहीं है लेकिन लाइफ स्टाइल में बदलाव एक्सरसाइज और स्वस्थ तथा सही आहार जिसमें प्रोटीन और फाइबर ज्यादा होते हैं इस रोग के निदान में सहायक होते हैं ।डॉक्टर का ऐसा मानना है कि यदि वजन में 5 से 10% की कमी हो जाती है तो इलाज में आसानी रहती है और इस बीमारी से बचा जा सकता है इसके अलावा रोग के आधार पर हार्मोन संतुलित करने के लिए दावाओं का भी प्रयोग मरीज की स्थिति के अनुसार डॉक्टर करते हैं ।

बरहाल पीसीओडी जैसी गंभीर बीमारी भारत सहित वैश्विक जगत की महिलाओं के लिए चिंता का विषय है। यह समस्या किसी भी महिला के साथ हो सकती है चाहे उसका वजन कितना भी हो। पीसीओडी का इलाज के बाद महिलाओं में गर्भधारण की संभावना बढ़ जाती है मगर यह महिला की शारीरिक और आर्थिक स्थिति पर निर्भर करता है। कई बार सामान्य उपचार से सफलता नहीं मिलती तो सर्जिकल हस्तक्षेप इस समस्या के समाधान में एक अच्छा विकल्प साबित हो सकता है। इन केसों में आईवीएफ तकनीक का उपयोग होता है जिसका खर्च उठाना हर भारतीय महिला के लिए इसलिए संभव नहीं है क्योंकि यह इलाज काफी महंगा है।

पीसीओडी और पीसीओएस वैश्विक स्तर पर महिलाओं में एक गंभीर स्थिति की ओर बढ़ रहा है और भारत उससे अछूता नहीं है। भारत की महिलाओं में इस बीमारी का बढ़ना निश्चित रूप से एक संकेत है जिसमें महिला को संतान सुख से वंचित होना या मेडिकल ट्रीटमेंट के बाद ही संतान सुख मिलन मातृत्व के उसके नैसर्गिक अधिकार पर कहीं ना कहीं कुठाराघात करता है ।

आवश्यकता इस बात की है कि जिस तरह सेनेटरी पैड को लेकर इस देश में कैंपेन चला ठीक उसी तरह पीसीओडी को लेकर सारे देश में कैंपेनिंग की जाए जिसमें जन जागरूकता के साथ इस बीमारी और उसके इलाज के लेकर खासकर महिलाओं को बताया जाए तो इसके फैलने की खतरे से बचा जा सकता है।


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