लॉक डाउन 2 का पहला दिन

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डॉ भुवनेश्वर गर्ग

आज जब हर कहीं नराधमों को, “डाक्टरों नर्सों सेवाकर्मियों” को मारते, थूकते, अपशब्द कहते, निर्लज्ज हरकतें करते देख रहा हूँ, तो बरबस ही, सुभद्राजी याद आ गईं। जलियां वाला बाग़ पर दुखी, संतापित, इन शब्दों से अपने दिल के उदगार बयान करती हुई कि “यह सब करना, किन्तु यहाँ मत शोर मचाना, यह है शोक-स्थान यहाँ बहुत धीरे से आना।”

आजादी के पहले से ही देश को लूटते, बर्बाद करते, टुकड़ों में बांटने वाले नराधमियों की नाजायज और अवैध सन्तानो को, आज डेमोक्रेसी और अभिव्यक्ति की आजादी की आड़ में देश के टुकड़े करने के नारे लगाने वालों को, वीर सैनिकों को बलात्कारी, वेतनभोगी, गली के गुंडे कहते सुन, आज याद तो राष्ट्रकवि दिनकर भी बहुत याद आ रहे हैं, लुट लुट कर बर्बाद होने के बाद भी सोने का ढोंग करते देशवासियों को देख, ना जाने किस भारी मन से उन्होंने यह पंक्तियाँ लिखी होगी,
“क्षमाशील हो रिपु-समक्ष
तुम हुये विनत जितना ही,
दुष्ट कौरवों ने तुमको
कायर समझा उतना ही।”
हालांकि उन्होंने इसी कविता में समाधान भी बताया, लेकिन पता नहीं क्यों देश के बहुसंख्य बार बार भगत, सुभाष, और अशफ़ाक़ के त्याग बलिदान को भुला देते हैं ?
“क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल हो,
उसको क्या जो दंतहीन
विषरहित, विनीत, सरल हो।
सहनशीलता, क्षमा, दया को
तभी पूजता जग है,
बल का दर्प चमकता उसके
पीछे जब जगमग है।”
और आज जब सारा विश्व एक भयंकर महामारी से जूझ रहा है तब हमारा देश प्रकृतिदत्त कीटाणु के साथ साथ इन नराधमी मानवीय कीटाणु बमों से भी जूझ रहा है !

आज बीसवीं सदी में, पश्चिमी लोग हमें पढ़ा रहे हैं कि आइसोलेशन और क्वारंटाइन इन बीमारियों का इलाज है, बेशक वो हमें ऐसा पढ़ा सकते हैं क्योंकि हमारे विगत स्वयंभवु राजाओं, राष्ट्राध्यक्षों ने कभी भी हमारी पद्धतियों, शास्त्रों, वेदों को विश्व सम्मुख लाने का कोई सारगर्भित प्रयास किया ही नहीं, बल्कि सांपो, लुटेरों, भूखे नंगों का देश बता, खुद देश लूटते रहे। और दूसरी और विश्व के सामने भिक्षाम देहि कहते हुए सबसे भीख मांग देश को लज्जित करते रहे और हमेशा यही जताते रहे कि हिंदू धर्म तो अन्धविश्वास से भरा हुआ अवैज्ञानिक धर्म है।

जबकि खुद उन्हें भी यह नहीं पता होगा कि हजारो हजार सालों से हमारे देश में, मानव ही नहीं, भगवान् को भी आइसोलेशन में रखा जाता है। प्रत्येक वर्ष रथ यात्रा के ठीक पहले भगवान जगन्नाथ बीमार पड़ते हैं। उन्हें बुखार एवं सर्दी हो जाती है। बीमारी की इस हालत में उन्हें क्वारंटाइन किया जाता है जिसे मंदिर की भाषा में अनासार कहा जाता है। भगवान को 14 दिन तक एकांतवास यानी क्वारंटाइन में रखा जाता है। आइसोलेशन की इस अवधि में भगवान के दर्शन बंद रहते हैं एवं भगवान को जड़ीबूटियों का आहार दिया जाता है यानी तरल पेय पदार्थ का भोजन और यह परंपरा हजारों साल से चली आ रही है।

और आज जब एक अदृश्य सा वायरस दुनिया वालों के सर पर मौत बनकर बैठ गया तब उन्हें समझ आ रहा है कि हमें क्वारेंटाईन होना चाहिये, मतलब हमें ‘‘सूतक एवम पातक’’ से बचना चाहिये। यह वही ‘सूतक पातक’ है जिसका भारतीय संस्कृति में आदिकाल से पालन किया जा रहा है। जबकि विदेशी संस्कृति के नादान लोग हमारे इसी ‘सूतक’ को समझ नहीं पा रहे थे। वो जानवरों की तरह आपस में चिपकने को उतावले थे, वो समझ ही नहीं रहे थे कि मृतक के शव में भी दूषित जीवाणु होते हैं, हाथ मिलाने से भी जीवाणुओं का आदान-प्रदान होता है और जब हम समझाते थे तो वो हमें जाहिल दकियानूसी बताने पर उतारु हो जाते थे। हम शवों को जलाकर नहाते रहे और वो नहाने से बचते रहे और हमें कहते रहे कि हम गलत हैं। हमारे यहॉ जब बच्चे का जन्म होता है तो जन्म ‘‘सूतक’’ लागू करके माँ और बच्चे को अलग कमरे में रखते हैं, ताकि उन्हें इंफेक्शन से बचाया जा सके, हमारे यहॉ कोई मृत्यु होने पर परिवार पातक में रहता है, १२, १३ दिन तक सबसे अलग, मंदिर पूजा-पाठ भी नहीं। पातक के घरों का पानी भी नहीं पिया जाता। हमारे यहॉ शव का दाह संस्कार करते है, जो लोग अंतिम यात्रा में जाते हैं, उन्हे सबको पातक लगती है, वह अपने घर जाने के पहले नहाते हैं, फिर घर में प्रवेश मिलता है। हम मल विसर्जन के बाद कागज से नही पोंछते बल्कि पानी से साफ़ करके साबुन से अच्छी तरह हाथ धोते हैं, हमारे यहाँ हवन पूजन की बड़ी ही साइंटिफिक पद्धति थी, अभी भी है, जिसमे उपयोग की गई वस्तुओं, कपूर, जड़ी बूटियों से वातावरण शुद्ध होता था, आज विश्व समझ रहा है, लेकिन अभी भी वो विज्ञान के नाम पर केमिकल्स का उपयोग कर रहा है, करवा रहा है जिससे जीव, मानव शरीर और प्रकृति को गंभीर नुक्सान हैं ! हम तो उनकी सबसे महंगी गाडी भी खरीदते हैं तो उस का भी पूजन कर, शुभ मुहरत देख और भरोसे का ही उदाहरण है कि कई उच्च प्रतिष्ठित धनवान अपने प्रतिष्ठानों, घरद्वार, महंगी गाड़ियों पर नीम्बू मिर्च टांगना भी उचित समझते हैं !

हमने पूर्ण वैज्ञानिक तरीकों से, सुश्रुत, चरक, नारद संहिताओं, नालंदा ज्ञान के जरिये दुनिया को वो अभूतपूर्व चिकित्सा ज्ञान दिया, जिसमे सभी जीवों का भला हो, “सर्व जन हिताय, सर्व जन सुखाय” लेकिन विश्व ने इसे एंटीबायोटिक अर्थात जीवन के विपरीत नाम दिया और लाभ लोभ और कदाचार के लिए इसका दुरूपयोग करते, करवाते हुए मानव शरीर को खोखला करने और उसे अपनी दवाइयों पर निर्भर रहने को मजबूर कर दिया जबकि हमारे वृहद् भारतवर्ष में नीति नियम, सुचिता और संयम सर्वोपरि था, सूर्य के साथ उठना, चलना, भोजन पाने के लिए मेहनत करना, साफ़ सफाई कर, रसोई को गोबर से लीपकर, नहा धो कर भोजन तैयार करना आवश्यक था ! हमने घर में पैर धोकर अंदर जाने को महत्व दिया, हम थे जो किसी भी अनजान को छूने से भी बचते थे, वो भी हम ही थे जिन्होने हाथ जोडक़र अभिवादन को, पैर छूने और शीश नवाने को महत्व दिया लेकिन वो हाथ मिलाते रहे, चिपटते, चूमाचाटी करते रहे।

प्राकृतिक तरीके से औषधियों, जड़ी बूटियों, हल्दी, चन्दन, नीम, तुलसी, फलाहार आदि के उपयोग से इस देश ने अपनी हेल्थ और इम्मुनिटी को हमेशा श्रेष्ठ रखा और आज सवा सौ करोड़ होने और सारे विघ्नसंतोषियों के अनैतिक प्रयासों के बावजूद भी हमारे देश में इस बीमारी से संक्रमण और मौतों के आंकड़े बेहद कम हैं !

हम जाहिल, दकियानूसी, गंवार नहीं, हम विश्व की सबसे शक्तिशाली, सुसंस्कृत, समझदार, और अतिविकसित महान संस्कृति के अनुयायी हैं, ये हमारी विरासत है, आज हमें गर्व होना चाहिये कि पूरा विश्व हमारी संस्कृति को सम्मान से देख रहा है, वो अभिवादन के लिये हाथ जोड़ रहा है, वो शव जला रहा है, वो हमारा अनुसरण कर रहा है। और हमें, हमारी आने वाली पीढ़ियों को भी भारतीय संस्कृति के महत्व को, उनकी बारीकियों को समझाने की आवश्यकता है क्योंकि यही जीवन शैली सर्वोत्तम, सर्वश्रेष्ठ और सबसे उन्नत हैं!

कुछ बात तो है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, जबकि सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-जहॉ हमारा
और अब चलते चलते, बात अगले दिनों की और क्या क्या सावधानियां, आज कल और भविष्य के लिए रखें, बताएँगे आपको कल, तब तक घर में रहिये, सुरक्षित रहिये और हाँ, खुश रहिये, कि आप भारत में हैं, तब तक जै जै रामजी की !


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