लॉकडाउन ३.० का आखिरी दिन, वामी षड्यंत्र और बेबस मजदूरों के नाम
पहले दिल्ली, फिर मुंबई और अब देशभर में हो रहे मजदूरों के पलायन को, किसी साधारण विस्थापन प्रक्रिया की नजर से, कम से कम जनता को तो, नहीं ही देखना चाहि। क्योंकि इसका सबसे बड़ा ख़ामियाजा आने वाले समय में उसे ही भुगतना है। कारण बिलकुल स्पष्ट है, चीन के करोना षड्यंत्र के परिपेक्ष्य में, इस वक्त जबकि दुनियाभर की कंपनियां, चीन से अपने पैर समेट रही हैं, तब उन्हें भारत में जमने के लिए, बाकी सरकारी सहूलियतों के अलावा, मेहनती और सस्ते मजदूर भी तो चाहिए ही होंगें? और यही तो खेल है सारा, जब जब देश खड़ा होने की कोशिश करता है, तब तब भारत की मिटटी को अपने पसीने से सींचते, इन जनसैलाबों को, यह शहरी नक्सल समूह, भ्रमित, उद्वेलित और भयांक्रित कर, सड़कों पर हकाल देता है, वहीँ दूसरी और वोटबेंक के गार्बेजियाई पहाड़ तले दबा, आजाद देश का अजीमोशाह शहंशाह, उन्हें ऐसा करने देता आया है, और बिकाऊ कलमों से अपनी पीठ ठुकवाता रहा है, नतीजा, तपती सड़कों पर निशान छोड़ती, बेबस मजदूरों के पैरों की बिवाइयां, अखबारों की लकीरें बनकर, सत्ता के गलियारों में बिकती रहीं है।
अगर देश के विभाजन के षड्यंत्र और विस्थापन की त्रासदी को, नियति मानकर, देश, एकबार भूल भी जाये, तो भी आज के इस संचार युग में, इस संकटकाल के विस्थापन को हुक्मरान कैसे जस्टिफाई करेंगे, बताइये?
इंसान को जिन्दा रहने के लिए क्या चाहिए? बड़े शहरों में तो, सिर्फ भरोसा और एक वक्त की रोटी ? लेकिन, जिनकी मेहनत और खूँनजदा हाथों से बड़ी बड़ी गगनचुंबी अट्टालिकाएं, शहर, कारखाने आबाद हुए थे, उन्हें वहां तनिक ठोर और एक कौर भी ना मिल पाया, क्यों?
माना कि शहरों के दिल तंगदिल थे, लेकिन अखबारिया छपास के लिए खुलते, बाग़बगीचे, मंदिर मस्जिद, गुरद्वारे, चर्च के द्वार, इन गरीबों के लिए क्यों नहीं खुले? शहरों के बड़े बड़े खेल मैदानों में इनके लिए चीयर लीडर्स क्यों नहीं नांचीं? और अगर सिर्फ दिल्ली की ही बात करें, तो इन्हे वहां से भगाये तो दो महीने हो गए थे, फिर दस लाख लोगों को खाना और सब्सिडियां किस अदृश्य वोटबेंक को बांटी जा रही हैं? इनके रेवड़ों को, सडकों पर भूखे प्यासे मरते बच्चों, बड़ों बूढ़ों, महिलाओं के फोटो छापने और उनके लिए अरबों खरबों का आपात धनसंग्रह करने वालों ने, कलम कैमरा छोड़, अपने हाथ इनके पैरों और तपती जमीं के बीच क्यों नहीं बिछा दिए? अगर दो चार हाथ भी ऐसा कर देते और कहते कि हम एक को भी भूखा प्यासा, तपती धरती पर नंगे पैर आगे नहीं जाने देंगे, तो पूरे देश के नेताओं की फौज और भ्रष्ट व्यवस्था, सड़कों पर मलमल बनकर ना लेट जाती इनके लिए?
लेकिन बाढ़ में डूबते आदमी को बचाने की जगह, उसके मुंह में माइक ठूँस, कैसा लग रहा है, पूछने में पारंगत बिरादरी, समूह बलात्कार की शिकार मासूम के जख्म और चेहरा दिखाने को आतुर महिला खबरची, अस्पतालों के आईसीयू की धज्जियां उड़ाकर, सैकड़ों बच्चों की जान बचाने दिनरात एक करते डॉक्टर को धकियाती शर्मसार करती दिखती, सोकॉल्ड, उच्च कोटि की ब्लेकमेलर खबरिया औरतें, फिर देवदूत नहीं कहलाने लगतीं?
एक जमाना था, जब कानपुर की कपड़ा मिलें विश्व प्रसिद्ध थीं, कानपुर को ईस्ट का मैन्चेस्टर भी कहा जाता था, लाल इमली जैसी फ़ैक्टरी के कपड़े, प्रेस्टीज सिम्बल माने जाते थे और वो सब कुछ भी था जो किसी भी औद्योगिक शहर में होना चाहिए। मिल का सायरन बजते ही, हजारों लाखों मज़दूर, साइकिल पर सवार होकर, टिफ़िन लेकर, फ़ैक्टरी की ड्रेस पहने, भीड़ का रूप ले लेते थे। बच्चों के स्कूल कालेज, महिलाओं के कामकाज, घरेलू गली मोहल्ले आस,पड़ोस के सांझे कामों के साथ, शादी ब्याह ढोलक मंजीरे और अनेकों अद्भुत लोक गीतों से, जो कहीं छपे नहीं होते थे, सिर्फ बड़ीबुढ़ियों के दिमाग की उपज और पीढ़ी दर पीढ़ी निशुल्क हस्तांतरित कर देश में विविधता घोलते थे, मोहल्ले आबाद और फिजायें गुंजायमान रहीं, सबकी खुशियां सांझा होकर दुगुनी होती रहीं और दुःख बँटकर आधे! और इन लाखों मज़दूरों के साथ ही, लाखों सेल्समेंन, मैनेजर, क्लर्क सबकी रोज़ी रोटी, गंगा किनारे बड़े आराम से चलती रही।
अब याद कीजिये, देश बांटने वालों का चीनी प्रेम? देश के हिस्से, अक्साई चीन, स्थायी सीट तक उन्हें सौंप देने वाले कायर राष्ट्रप्रमुख और देश का इतिहास चौपट करवाने की उनकी नीतियां। देश का भूगोल बदलने के षड्यंत्रों के बीच, उद्योगों को चीन की और धकेलने के लिए, मजदूरों के जरिये, अपने वामी आकाओं के इशारे पर, देश का तानाबाना चौपट करने को आतुर, लाल सलाम की कुत्सित निगाहें, देश के औद्योगिक केंद्र कानपुर पर पड़ीं, मजदूरों को भड़काया गया, ढेरों हिंसक घटनाएँ हुईं, मिल मालिकों को मारापीटा भी गया, मजदूर और मिडिल क्लास, बिना सोचे समझे, इनके जाल में फंसता गया, अंततः वह दिन भी आया, जब कानपुर के मिल मज़दूरों को मेहनत करने से छुट्टी मिल गई, मिलों पर ताले डल गए।
लेकिन वो मूर्ख हिन्दुस्तानी, 8 घंटे साफ़सुथरी यूनीफ़ॉर्म में काम करने, भरपेट रोटी खाने वाले मज़दूर, सोलह अठारह घंटे, रिक्शा चलाने, बोझा ढोने, आधा पेट खाने पर विवश हो गए। स्कूल जाने वाले बच्चे, कबाड़ बीनने लगे, औरतें जिस्म बेचने लगीं, ताकतवर आवारा लोगों के समूह बन गए और वो लूट और अपराध में लिप्त हो गये। जो जितना बड़ा अपराधी, उसका उतना बड़ा गेंग और वो उतना ही बड़ा नेता बन गया। पवित्र गंगा के तट पर बसा औद्योगिक शहर, अपराध का गढ़ बन गया, टेक्सपेयर मध्यम वर्ग को नौकरियों से हाथ धोना पड़ा, रिक्शा वो चला नहीं सकता था, बोझा ढोना उसे आता नहीं था, लिहाजा एक बड़ी जन संख्या ने अपना जीवन बेरोज़गारी में, डिप्रेसन में ख़तम किया।
कम्युनिस्ट वाम विचारधारा के सत्तर साल का हिसाब लेने, ज्यादा दूर नहीं, सिर्फ JNU तक चले जाइये, देश की आत्मा, “संस्कृति और संस्कार” को नष्ट करने के सारे समीकरण, आपको यहाँ शराब की ढेरों खाली बोतलों और ऑटोमेटिक कॉन्डोम मशीनों में दिख जायेंगें, रही सही कसर, गाहे बगाहे बहादुर सोशियल मीडिया पूरी कर ही देती है, टुकड़े टुकड़े गेंग की साज़िशों और सड़कों पर खुलेआम आजादी के नाम पर होती इनकी चूमाचाटी दिखाकर। यही तो है, चीन के इशारे पर पलता वामपंथ, नक्सलवाद? राष्ट्र की संपत्ति को नष्ट करना, देश की धनसंपदा, टेक्स के पैसों पर पैरासाइट की तरह पलना और फिर उसे ही गाली देना, दुनिया के और किस देश में यह सब संभव है? दो क्लास के बीच, पहले अंतर दिखाना, फ़िर इस अंतर की वजह से झगड़ा करवाना और फ़िर दोनों ही क्लास को आपस में लड़वा कर ख़त्म कर देना, ध्यानमेननियाई कॉम्युनिज़म का बेसिक प्रिन्सिपल है, और यही आज तक इस विशाल देश की कर्मठ रीढ़ को तोड़ने के लिए विदेशी हुक्मरानों के इशारों पर किया जाता रहा है, पहले सुभाष को किनारे किया गया, क्योंकि उनके रहते देश के ना तो टुकड़े संभव थे, और ना ही आरक्षण या भ्रष्टाचार, ना ही मुफ्तखोरी और गद्दारी को बढ़ावा मिलता और ना ही सैकड़ों टुकड़ों में देश बाँटकर नामदार ऐश कर पाते और अब मोदी और शाह को निशाना बनाया जा रहा है, वो तो शुक्र है कि देश की जनता ने उन्हें पूर्ण बहुमत से दिल्ली के खजाने पर बिठा रखा है, नहीं तो पता नहीं, कितने और केदार घटते और जगह जगह कितने श्रमिकों के भूखे मृत शरीरों को कुत्ते नोचत।
मिलते हैं कल, तब तक जय जय श्रीराम
डॉ भुवनेश्वर गर्ग : डॉक्टर सर्जन, स्वतंत्र पत्रकार, लेखक, हेल्थ एडिटर, इन्नोवेटर, पर्यावरणविद, समाजसेवक
मंगलम हैल्थ फाउण्डेशन भारत
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