लॉक डाउन 2.0 का पांचवां दिन, पीढ़ी दर पीढ़ी सबक सीखता करोना कालखंड
जो भी लोग 1960 से 1990 के बीच जन्में है, उन्हें प्रभु का, मदर नेचर का विशेष आशीर्वाद प्राप्त हैँ और ऐसा नही कि इन्हें आधुनिक संसाधनों से कोई परहेज है लेकिन इन्हें कभी भी जानवरों की तरह किताबों को बोझ की तरह ढो कर स्कूल नही ले जाना पड़ा। इनके माता- पिता को कभी भी इनकी पिटाई करने, कूटने का विशेषाधिकार था और उन्हें इनकी पढाई को लेकर कभी भी अपने प्रोग्राम्स आगे पीछे नही करने पड़ते थे। स्कूल के बाद ये देर तक सूरज के डूबने तक खेलते थे, अपने रियल दोस्तों के साथ, नकली नेट वाले फ्रेंड्स के साथ नही। जब भी ये प्यासे होते थे तो किसी के भी यहाँ, नल से भी पानी पी लेते थे, सड़क पर गन्ने का जूस भी जितना इस पीढ़ी ने पिया है, शायद ही आज की जनरेशन ने पिया होगा। नंगे पैर घूमने के बाद भी इनके पैरों को कुछ नही होता था, छोटे मोटे कांटे, कांच तो ये खुद ही निकाल लिया करते थे, ये लोग अपने घरों में, पिता के ना रहते, कम और दोस्तों, अड़ोस पड़ोस में ज्यादा पाए जाते थे, ये किसी के भी घर बिना बताये पहुँच कर मजे कर सकते थे और उनके साथ खाने के भी मजे लेते थे। उसके लिए कभी उन्हें पूछना नहीं पड़ा।
रात की बासी रोटी का स्वाद किस किसको याद है? इस पीढ़ी को फिट एन्ड हेल्दी रहने के लिए कभी विटामिन्स या सप्प्लिमेंट्स लेने पड़े थे क्या ? इनके पास कभी भी महंगी ड्रेसें और खिलोने थे क्या? इनके अधिकतर खेल तो पत्थर, गेंद, रस्सी, पुराना टायर जैसी वेस्ट चीजों से ही पूरे हो जाते थे और फिर अपने दादा दादी, नाना नानी का लाड दुलार , अच्छे अच्छे किस्से कहानियां और देखभाल ? वो तो अनमोल थी इनके लिए लेकिन कितने दुर्लभ आज की पीड़ी के लिए? सब भाई बहन एक जैसे कपड़े शौक से पहनते थे, बड़े के कपडे छोटे को और फिर उससे छोटे को कितने आनंद के साथ तब तक पहने जाते थे जब तक की पोंछे का कपडा ना बन जाएँ, इनके पास तब सारी दुनिया, सारा आकाश था नापने को, लेकिन आज की पीढ़ी ? अपनी हथेली में समाये हुए है अपना जहां, दुनिया भर से कटा हुआ, खुद में सिमटा, विपदाओं को झेल पाने में अक्षम, छोटे छोटे तनाव का समाधान ढूंढ पाने में नाकाम, समय से पहले ही बुढाता और झुंझलाता, प्रेशर तले दम तोड़ता।
यह स्पेशल नहीं हैं, लेकिन रियल हैं, और लिमिटेड एडिशन भी और इसलिए भी ये सब आज इस विपदा को भी पूरी मस्ती के साथ एन्जॉय करते हुए ना सिर्फ नित नए आयाम गढ़ रहे हैं, बल्कि सीख रहे हैं खुद के लिए भी और सिखा भी रहे हैं अपने आसपास वालों, परिजनों, नई पीढ़ी को।
लेकिन आज की आर्थिक, राजनैतिक और प्राकृतिक परिस्थितियों ने, आम आदमी को युद्ध क्षेत्र से बाहर, दर्शक दीर्घा में, ना सिर्फ अपने अपने घरों में बिठा दिया है बल्कि सत्ता पहली बार हाथ जोड़ जोड़ कर सबसे निवेदन कर रही है, कि आप तो कुछ मत करो, बस घर बैठो, हम आपको घर बैठे रोटी खिलाएंगे, अगर आप सृष्टि के सबसे बड़े निकम्में और आलसी हैं तो, अगर आप पैदाइशी बोझ हैं टेक्सपेयर्स पर और देश पर तो, अगर आप बहुत ही बेशर्म हैं और किसी भी तरह की सेवा में आपका कोई सार्थक योगदान नहीं है तो, हम आपके घर तक डॉक्टर, राशन भी पहुंचाएंगे और यहाँ तक कि अगर आपका सामाजिक ठप्पा कुछ ज्यादा ही जमातिया टाइप है, तो पुलिस वाले भी आपके घर तक भेजें जाएंगे, हाथ जोड़ने, पैर पड़ने, और अगर आप किसी के यहाँ किराए से रह रहे हैं तो आपको उसे किराया भी नहीं देना है, भले ही वो इसी के सहारे अपनी आजीविका चला रहा हो, अगर आप किसी के यहाँ काम करते हैं तो डंके की चोट पर बिना काम आपको तनख्वाह दिलवाई जायेगी भले ही फिर उसके शरीर का कतरा कतरा तक क्यों ना बिक जाए, आप तो बस बिना काम धाम पलंग तोड़िये, खा खा कर और देश की बेगैरत, निकर्मण्य भीड़ को पैदा करते जाइये, जिसे आप खुद की कमाई से तो आज तक नहीं पाल पाए लेकिन पांच परसेंट टेक्सपेयर्स जिन्हे, पिछले सत्तर सालों से वोट बैंक तुष्टिकरण की कुत्सित राजनीति के चलते आज तक तो पाल ही रहे हैं, आगे भी पालेंगे ही, क्योंकि सरकार के लिए आप माईबाप हैं और टेक्सपेयर्स बंधुआ मजदूर, और तो और अगर खाने पीने, पलंग तोड़ने से फुर्सत मिल जाए तो आपके मनोरंजन के लिए बहुत सारे सीरियल्स, फ़िल्में भी आपको टीवी पर घर बैठे दिखाएँगे, आप तो बस वहीँ से खेल देखिये और तालियां बजाइये और हाँ अगली बार भोट भी हमको ही देना।
और आज इन्ही लुटेरे नेताओं, कालाबाजारियों, सत्ता से बलगाहियाँ करते, फर्जी आंकड़ों, फर्जी परचों के सहारे गरीबों का पैसा, चंदा लूटते, पैसे लेकर MOU साइन करके मरीजों को ठीक करने का ढोंग करते, वाहवाही लूटते, सार्स के समय से लतियाये जाते डॉक्टरी ठेकेदारों को देखकर, धर्मवीर भारतीजी बहुत याद आ रहे हैं,
हम सब के माथे पर दाग,
हम सबकी आत्मा में झूठ,
हम सब सैनिक अपराजेय
हाथों में सिर्फ तलवार की मूठ।
और चलते चलते, सौ करोड़ मूर्खों की नपुंसकता की पराकाष्ठा पर बलि चढ़े, नासिक के दो बुजुर्ग संत और उनके ड्राइवर की, पुलिस की मौजूदगी में, ढाई तीन सो विधर्मियों की भीड़ द्वारा बेरहमी से मार मार कर की गई हत्या की ना सिर्फ कड़े शब्दों में निंदा, बल्कि उन पुलिसकर्मियों को भी लानत मलानत, जिनके रहते ये दुर्दांत औरंग़ज़ेबाई घटना पुनर्घटित हुई, तब गुरु और गुरु पुत्र बलि चढ़ाये गए थे और देश का बधियाकरण हुआ था, आज फिर वही सब घट रहा है, पर देश वैसे ही सो रहा है।
चलते चलते, पर आज नहीं कहूंगा, आज मन बहुत अशांत है।