योगी सरकार की मुहिम से गौशालाओं से निकलेगा रोजगार के नए अवसर

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संदीप मित्र।
लखनऊ : 23 अक्टूबर। गाय का गोबर सिर्फ उपले, खाद या बॉयो गैस बनाने के ही काम नहीं आता, बल्कि ये कमाई का जरिया भी बन सकता है। इसी गोबर से रोज़मर्रा के लिए उपयोगी कई कमाल की चीजें भी बन सकती हैं।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की योजना के तहत गौशालाओं को आत्मनिर्भर बनाने एवम रोज़गार सृजन की कडी़ में तेजी से अग्रसर है। मुख्यमंत्री की गौ संरक्षण अभियान के चलते अब तक प्रदेश के 11.84 लाख निराश्रित गोवंशों में से अब तक 5 लाख 21 हज़ार गोवंशों को संरक्षित किया गया है। सरकार द्वारा 4500 अस्थायी निराश्रित गोवंश आश्रय स्थल संचालित हैं। ग्रामीण इलाकों में 187 बृहद गौ-संरक्षण केंद्र बनाए गए हैं। शहरी इलाकों में कान्हा गोशाला तथा कान्हा उपवन के नाम से 400 गौ-संरक्षण केंद्र स्थापित किए गए हैं ।
इसी योजना के तहत यूपी के प्रयागराज जिले स्थित कौड़िहार ब्लॉक के श्रींगवेरपुर के बायोवेद कृषि प्रौद्योगिकी एवं विज्ञान शोध संस्थान में गोबर से बने उत्पादों को बनाने का प्रशिक्षण दिया जाता है। उत्तर प्रदेश समेत अन्य प्रदेशों के के कई लोग इसका प्रशिक्षण प्राप्त कर चुके हैं। संस्थान में गोबर की लकड़ी भी बनाई जाती है, जिसे गोकाष्ठ कहते हैं। इसमें लैकमड मिलाया गया है, इससे ये ज्यादा समय तक जलती है।
लकड़ी की जगह अब गो-काष्ठ का इस्तेमाल
जनपद आगरा की जिला जेल में बंद कैदी अन्य जनपदों के कैदियों के लिए उदाहरण बने हुए हैं। ये कैदी जेल के अंदर ही गाय के गोबर से बनी लकड़ी यानि गोकाष्ठ बनाते है जिसे दाह संस्कार में उपयोग किया जाता है। फ़िरोज़ाबाद के स्वर्ग आश्रम में भी इसी गोकाष्ठ का प्रयोग हो रहा है। लोगों की माने तो इस काष्ठ के प्रयोग से जहां दाह संस्कार में खर्च कम होता है वहीं पेड़ों को कटना भी नहीं पड़ता। इस गोकाष्ठ को लकड़ीके बुरादे, बेकार हो चुका भूसा और गाय के गोबर से तैयार किया जाता है।
जनपद उन्नाव के कल्याणी मोहल्ला निवासी किसान व पर्यावरण प्रेमी रमाकांत दुबे ने भी इस ओर पहल की है । रमाकांत दूबे का 75 हजार से एक लाख रुपये लागत वाला प्लांट रोज दो क्विंटल गो-काष्ठ तैयार करता है। इसके लिए गौ आश्रय स्थलों से गोबर खरीदा जाता है, इस आमदनी से गौ आश्रय स्थलों में गौ-सेवा सम्भव होगी।
राजस्थान से मिली प्रेरणा
राजस्थान यात्रा के दौरान रमाकांत जी ने गो-काष्ठ मशीन देखी और लोगों को गो-काष्ठ इस्तेमाल करते देखा, तो उन्हें अपने जनपद में प्लांट लगाने की प्रेरणा मिली। चार मशीनें लगाने के लिए उन्होंने प्रधानमंत्री रोजगार योजना के तहत आवेदन किया और उनका गोकाष्ठ का प्लान प्रशासन के सामने रखा, प्रशासन को उनका प्लान अच्छा लगा जिसे त्वरित मंजूरी भी मिल गई।

लकड़ी से बेहतर, पर्यावरण हितैषी भी
लकड़ी में 15 फीसदी तक नमी होती है, जबकि गो-काष्ठ में मात्र डेढ़ से दो फीसदी ही नमी रहती है। लकड़ी जलाने में 5 से 15 किलो देसी घी या फिर रार का उपयोग होता है, जबकि गो-काष्ठ जलाने में एक किलो देसी घी ही पर्याप्त होगा। लकड़ी के धुएं से कार्बन डाईआक्साइड गैस निकलती है जो पर्यावरण व इंसानों के लिए नुकसानदेह है, जबकि गो-काष्ठ जलाने से 40 फीसदी आक्सीजन निकलती है जो पर्यावरण संरक्षण में मददगार होगी।
लकड़ी से पांच गुना कम खर्च
एक अंत्येष्टि में लगभग 7 से 11 मन यानि पौने तीन से साढ़े चार क्विंटल लकड़ी लगती है। वातावरण की शुद्धता के लिए 200 कंडे भी लगाए जाते हैं। लकड़ी की कीमत तीन से साढ़े चार हजार रुपये होती है, वहीं गोकाष्ठ की कीमत अधिकतम चार रुपये किलो तक होगी। जो एक किलो लकड़ी की कीमत से करीब 60 फीसदी सस्ता है। एक अंत्येष्टि में यह डेढ़ से दो क्विंटल लगेगी तो 600 से 800 रुपये में अंत्येष्टि हो सकेगी। 60 किलो गोबर से 15 किलो गो-काष्ठ बनेगा।
गोबर से मूल्यवर्धित वस्तुओं के निर्माण से अर्थोपार्जन
गोकाष्ठ के बाद अब गोबर से बना गमला भी काफी लोकप्रिय हो रहा है। गोबर से गमला बनाने के बाद उसके ऊपर लाख की कोटिंग की जाती है। इस गमले में मिट्टी भरकर पौधा लगाइए और जब भी पौधे को जमीन में लगाना हो तो इस गमले को ही ज़मीन में गाड़ दीजिए। इससे पौधा नष्ट नहीं होगा और पौधे को गमले के रूप में गोबर की खाद भी मिल जाएगी।
बायोवेद शोध संस्थान कई तरह के मूल्यवर्धित वस्तुओं के निर्माण का प्रशिक्षण देकर कई परिवारों को रोजगार के साथ अतिरिक्त आय का साधन उपलब्ध करा रहा है। जानवरों के गोबर, मूत्र में लाख के प्रयोग से कई मूल्यवर्धित वस्तुएं बनाई जा रही हैं। गोबर का गमला, लक्ष्मी-गणेशकी मूर्ति, कलमदान, कूड़ादान, मच्छर भगाने वाली अगरबत्ती, जैव रसायनों का निर्माण, मोमबत्ती एवं अगरबत्ती स्टैण्ड आदि शामिल हैं।


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