धोबी समाज के उत्थान को समर्पित वर्धा विश्वविद्यालय के शिक्षक,लांड्री की दुकान खोल कर रहे जागरूक

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  विवेक रंजन सिंह।
विवेक रंजन सिंह।

क्या कभी आपने किसी पी एच डी किये हुए या विश्वविद्यालय के शिक्षक को कोई ऐसा कार्य करते देखा है जो आज के समय मे आश्चर्यजनक हो। देखा होगा तो अच्छी बात है क्योंकि ऐसे दृश्य आज के समय मे आम है। कारण सरकारी नीतियां,नौकरी में छंटनी व बेरोजगारी।और अगर नही मिले हैं तो मिलवाते हैं आपको महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी वश्वविद्यालय,वर्धा के शिक्षक नरेंद्र दिवाकर से।

विश्वविद्यालय परिसर में समाज कार्य के शिक्षक रह चुके नरेंद्र दिवाकर इन दिनों समाज की प्रेरणा बने हुए हैं। धोबी समाज से आने वाले नरेंद्र जी इन दिनों प्रयागराज के झलवा में अपने परिवार के साथ रहते हैं। पत्नी ममता दिवाकर व दो बेटे तेजस व श्रेयस हैं। पिताजी व माताजी गांव में रहते हैं।

नरेंद्र दिवाकर वर्धा विश्वविद्यालय के इलाहाबाद केंद्र में भी समाज कार्य पढ़ाते रहे हैं। फिलहाल पिछले वर्ष से कोरोना महामारी के चलते उनकी कक्षाएं ऑनलाइन शुरू हुई तो उन्होंने परिवार के जीविकोपार्जन के लिए एक लांड्री ‘धोBजी’ नाम से खोली। दुकान खोलने को लेकर उन्होंने बिल्कुल परवाह नही की कि लोग क्या कहेंगे। एक केंद्रीय विश्वविद्यालय का शिक्षक आख़िर कपड़ा धोने की दुकान कैसे खोल सकता है।

सम्पूर्ण माया ने जब बात की तो उनका कहना है कि अपने समाज से जुड़े कार्यों को करने में लोगों को शर्म आने लगी है। जातीय उन्माद में समाज का ढांचा बिगड़ता जा रहा है। आपसी तालमेल खत्म होते जा रहे हैं। समाज से जुड़ने का इससे बेहतर माध्यम क्या हो सकता है कि लोग दुकान पर आते हैं, कपड़ा देते हैं और समाज की बातें करते है। कुछ प्रेरित भी होते हैं। कोई काम बड़ा या छोटा नही होता है। अपने जातीय कार्यों को करना बुराई नही,बुराई ये है कि किसी को किसी की जाति के दायरे में बांधकर सोचना। उसका उपहास उड़ाना। जातीय उत्थान करने के ऐसे भी माध्यम हो सकते है।

नरेंद्र दिवाकर की पत्नी भी उनका इस कार्य मे भरपूर साथ देती हैं। समाज के हर तबके से जुड़े लोगों के लिए नरेंद्र दिवाकर इस समय प्रेरणा बनते जा रहे हैं।

शुरुआती दिनों में लोगों की स्वीकार्यता थोड़ी कम जरूर थी पर धीरे धीरे लोग आते हैं बैठते हैं और गांधी-आम्बेडकर की बाते करते हैं।

नरेंद्र दिवाकर अधिवक्ता भी हैं। कानून की जानकारी रखते हैं और समय समय पर समाज मे जाकर लोगों को जागरूक भी करते हैं। तेरही जैसे आयोजनों को बंद करने की मुहिम में काफी जनता उनके साथ आ रही है।

बकौल नरेंद्र दिवाकर लोग किसी के जीते जी उनसे इलाज के लिए पैसे की व्यवस्था नही करते। दवाई इत्यादि में खर्च नही करते जब वो मर जाता है तो भोज के नाम पर अन्न व धन दोनों की बर्बादी करते है। यह रिवाज समाज मे अंधविश्वास को दिखाता है कि लोग अब भी रूढ़ियों में जकड़े हुए हैं।

नरेंद्र दिवाकर का पूरा परिवार उनके इस कार्य मे सहयोग करता है। एक समय मे जिस शिक्षक के हाथ मे कलम व बगल में बैग होता था आज उस शिक्षक के हाथों में ‘कपड़ा व प्रेस’ है। वर्धा विश्वविद्यालय में अभी वो स्थाई नही हुए है,पर अपने इस कार्य से वो सन्तुष्ट है व परिवार के साथ खुशी का जीवन बिता रहे है ।

छात्रों के साथ उनके व्यवहार मित्रों जैसे हैं। किसी भी छात्र की मदद की बात होती है तो अपनी दुकान की कमाई से मदद करते हैं। समय समय पर कई ऐसे आयोजनों में शिरकत करते हैं जो समाज के लिए उपयोगी होते हैं। वहां वो आर्थिक रूप से भी मदद करते हैं।

उनके बेटों में भी गांधी,आम्बेडकर,गाडगे बाबा व चाकली ऐलम्मा जैसे समाज सुधारकों का प्रभाव देखने को मिलता है। नरेंद्र दिवाकर ने अपनी धोबीजी नाम की दुकान में आम्बेडकर,सन्त गाडगे बाबा,चाकली ऐलम्मा की तसवीरें लगाई हैं। जो ग्राहक दुकान पर आते है वो तस्वीरों को देखकर उसपर चर्चा करते हैं। इस बहाने वो हमारे अतीत के समाजसुधारकों को भी प्रासंगिक कर रहे हैं।

नरेंद्र दिवाकर मूल रूप से कौशाम्बी के चायल तहसील के सुधवर गांव के रहने वाले हैं। उनका शोध कार्य वर्धा विश्वविद्यालय से हुआ है और वहीं पर बतौर शिक्षक उन्होंने समाज कार्य की शिक्षा भी दी है।

धोबी समाज के उत्थान व उसकी प्रतिष्ठा के लिए वो समाज के लोगों को जागरूक करने में लगे हैं। घूमघूमकर वो इतिहास में धोबी समाज के योगदान को लोगों के बीच जाकर बताते हैं व उसपर चर्चा करते हैं। अपने छात्रों के साथ समय समय पर मीटिंग करते हैं और समाज मे चल रही समस्याओं पर बात करते हैं।

एक सवाल के ‘आज बहुत से लोग जातीय पेशों पर शर्मिंदगी महसूस करते हैं’ पर कहा कि – किसी मेहनत और ईमानदारी वाले काम को करने में शर्म कैसी? जो व्यवसाय आपका भरण-पोषण करे, वह इतना अधम हो ही नहीं सकता, जिसे करने में आपको शर्मिंदगी महसूस हो।”

उन्होंने जोर देते हुए कहा कि अब जरुरत है कि पुनः शिक्षा और तमाम अवसरों के साथ-साथ उनकी रुचि के अनुरूप अपनी घरेलू कार्यशालाओं (प्रयोगशालाओं) में बच्चों को तराशा जाए और उन्हें अपने ही (सदियों तक पर्यावर्णानुकूल रहने वाले) पेशे में अन्वेषण करने की न केवल पूर्ण स्वतंत्रता और व्यवस्था/सुविधा दी जाए अपितु प्रेरित भी किया जाए जिससे हमारे बच्चे अपने पेशे में नई खोज कर कोरोना काल के कारण उपजी नई वैश्विक आर्थिक नीति से मुकाबला करने में सक्षम, प्रयोगधर्मी और सामजिक बन सकें।


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