पर्यावरण से हम हैं, हमसे पर्यावरण नहीं

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जयती भट्टाचार्या ।
पर्यावरण शब्द से आज कोई भी अंजान नहीं है। हम लोग अपना विकास करने के लिए पर्यावरण का दोहन कर रहे हैं। यह कभी नहीं सोचते कि हम पर्यावरण से हैं, पर्यावरण हम से नहीं। जिस तरह से हम अपने लाभ के लिए पर्यावरण का उपयोग कर रहे हैं उससे एक दिन पर्यावरण हमसे बदला अवश्य लेगी लेकिन हम पर्यावरण से बदला नहीं ले सकते। देखा जाए तो पर्यावरण ने हमसे बदला लेना शुरू कर दिया है परंतु अभी तक ऐसा बड़े पैमाने पर नहीं हुआ है। जिस दिन ऐसा होगा उस दिन हम भी नहीं रहेंगे। यह साधारण सी बात हमारी समझ में क्यों नहीं आती। हम पर्यावरण के प्रति कब जागरूक होंगे। आइए देखते हैं कुछ प्वाइंट, अगर हममें इन पर जागरूकता आ जाती है तो आधी समस्या अपने आप हल हो जाएगी और हम एक स्वस्थ्य पर्यावरण में सांस लेंगे तथा आने वाली पीढ़ी के लिए यह सबसे बड़ा तोहफा होगा।

प्रदूषण
जल, वायु और मृदा का प्रदूषण विषाक्त पदार्थ जैसे प्लास्टिक, भारी धातु और नाइट्रेट की वजह से हो रहा है। अब सवाल है कि यह विषाक्त पदार्थ कहां से आ रहे हैं ? यह विषाक्त पदार्थ और गैस फैक्ट्रियों से निकलते हैं, जीवाष्म ईंधन के जलने से होता है, अम्ल वर्षा, तेल का रिसाव और औद्योगिक अपशिष्ट या कूड़ा से पर्यावरण में फैलता है।

ग्लोबल वार्मिंग
मानव द्वारा किए गए कार्यों की वजह से ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन हो रहा है जिसके फलस्वरूप हम सबको ग्लोबल वार्मिंग का सामना करना पड़ रहा है। ग्लोबल वार्मिंग की वजह से समुद्र का जल स्तर बड़ रहा है जिसके कारण कहा जा रहा है कि एक दिन मुंबई, चेन्नई, कराची इत्यादी पोर्ट सिटी मानचित्र से मिट जाएंगे। इसके अलावा ग्लेशियरों का गलना, अचानक आई बाढ़़ यानि फ्लैश फ्लड एवं मरूस्थलीकरण भी हो रहा है पर मनुष्य फिर भी नहीं सुधर रहे हैं।

अधिक आबादी
विशेषकर विकासशील देशों में बढ़ते हुए वैश्विक जनसंख्या को बनाए रखने के लिए यह देश आज भोजन, पानी और ईंधन जैसे संसाधनों की कमी से जूझ रहे हैं। इन समस्याओं का समाधान करने के लिए रासायनिक उर्वरक और कीटनाशकों के छिड़काव से अधिक फसल उगाने की जो कोशिश होती है उससे फायदे की जगह नुकसान अधिक होता है।

कूड़ा निस्तारण
भारी मात्रा में कूड़ा समुद्रों में डाल दिया जाता है। इसमें परमाणु अपशिष्ट विशेष रूप से हानिकारक होता है। इसके अलावा प्लास्टिक और इलेक्ट्रानिक अपशिष्ट भी समुद्र में डाल दिया जाता है जिससे जल पर्यावरण में वृद्धि होती है।

समुद्र का अम्लीकरण
मनुष्यों द्वारा कार्बन डाईअक्साइड के अधिक उत्पादन के कारण समुद्रों के अम्लीय स्तर में बढ़ोत्तरी हो रही है। इसका बुरा प्रभाव समुद्री जीवों पर हो रहा है।

जैव विविधता में कमी
मानव के क्रिया कलापों की वजह से जानवरों की कुछ नस्ल और उनके प्राकृतिक आवास खत्म होने की कगार पर हैं और कुछ का तो अस्तित्व ही मिट गया है। इससे परागण जैसे प्राकृतिक प्रक्रिया असंतुलित हो जाती है यह इको सिस्टम के लिए खतरे की घंटी है। विशेष रूप से मूंगा चट्टानों की तबाही हुई है।

वनोन्मूलन
रिहायशी इलाकों में बढ़ोत्तरी तथा उद्योगों एवं व्यवसायिक परियोजनाओं के लिए वनों की बेहिसाब कटाई होती है। पेड़ों के कटने का असर है आॅक्सीजन बनने में कमी, तापमान और वर्षा पर असर। वनों की कटाई से ही तो जानवरों के प्राकृतिक आवास नष्ट हो रहे हैं और प्रायः जानवर शहरों के मार्गाें पर निकल आते हैं। वे भी कहां जाएं।

ओजोन लेयर में कमी
क्लोरोफ्लूओरोकार्बन की वजह से जो प्रदूषण फैलता है वह ओजोन परत में छेद कर देता है। ओजोन परत सूर्य की किरणों से हमारी रक्षा करता है। यह वह परत है जो धरती और सूर्य के बीच में है और इसकी वजह से ही हम पर सूर्य की किरणें सीधी नहीं पड़ती।

अम्लीय वर्षा
सल्फर डाईआॅॅक्साईड और नाइट्रोजन आॅक्साईड जैसे प्रदूषकों की वजह से अम्ल वर्षा होती है। अम्ल वर्षा का बहुत ही बुरा असर इंसान, जीव – जन्तु, पक्षी, समुद्री जीवों सभी पर होता है।

सार्वजनिक चिकित्सा प्रणाली
आम जनता के लिए साफ पीने का पानी आज की सबसे बड़ी पर्यावरण संबंधी समस्या है। वायु प्रदूषण से सांस संबंधी और हृदय संबंधी रोग बढ़ते जा रहे हैं।

परंतु क्या प्रदूषित पर्यावरण के लिए केवल आम जनता ही दोषी है। आम जनता यदि पर्यावरण के प्रति जागरूक हो जाए तो क्या अगली पीढ़ी को सवच्छ पर्यावरण का तोहफा दे पाएंगे। नहीं, इसके लिए नीति निर्धारक अधिक दोषी हैं। सरकार भी कहीं न कहीं इसके लिए दोषी है। प्रयागराज में हर साल कुम्भ मेला या माघ मेला के समय गंगा का पानी साफ हो जाता है। वरना दूर से दर्शन करना ही ठीक रहता है। क्यों सरकारी आदेश से गंगा का पानी बारह महीने साफ नहीं रह सकता। कुम्भ या माघ मेले के पहले या उत्तर प्रदेश में  हाल में हुए विधान सभा चुनाव से पहले पन्नी पर पूरी तरह से रोक लगा दिया गया था। दुकानदारों में डर था क्योंकि प्रायः अधिकारी दौरा कर रहे थे। चुनाव खत्म सब कुछ खत्म अब धड़ल्ले से पन्नी का प्रयोग होता है। कभी छापा नहीं पड़ता।
नीति निर्धारक अपने फायदे के लिए अपने ही बनाए नियमों को टाल देते हैं। राज्य सरकारें भी अपने फायदे के लिए सख्ती नहीं करती और पर्यावरण को प्रदूषित करने का ठीकरा आम जनता पर फोड़ती है। क्या यह उचित है ? आप ही तय करें असली दोषी कौन है लाचार जनता या कोई और।


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