एक कहानी : हमारी 🤝 आपकी बचपन, स्कूल और शिक्षक

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संतोष श्रीवास्तव ।

बचपन में स्कूल के दिनों में क्लास के दौरान शिक्षक द्वारा पेन माँगते ही हम बच्चों के बीच रौकेट गति से गिरते पड़ते सबसे पहले उनकी टेबल तक पहुँच कर पेन देने की अघोषित प्रतियोगिता होती थी।

जब कभी मैम किसी बच्चे को क्लास में कापी वितरण में अपनी मदद करने पास बुला ले, तो मैडम की सहायता करने वाला बच्चा अकड़ के साथ “अजीमो शाह शहंशाह” बना क्लास में घूम-घूम कर कापियाँ बाँटता और बाकी के बच्चे मुँह उतारे गरीब प्रजा की तरह अपनी बेंच से न हिलने की बाध्यता लिए बैठे रहते। शिक्षक की उपस्थिति में क्लास के भीतर चहल कदमी की अनुमति कामयाबी की तरफ पहला कदम माना जाता था।

उस मासूम सी उम्र में उपलब्धियों के मायने कितने अलग होते थे
A) शिक्षक ने क्लास में सभी बच्चों के बीच अगर हमें हमारे नाम से पुकार लिया …..
😎 शिक्षक ने अपना रजिस्टर स्टाफ रूम में रखकर आने बोल दिया तो समझो कैबिनेट मिनिस्टरी में चयन का गर्व होता था।

आज भी याद है जब बहुत छोटे थे तब बाज़ार या किसी समारोह में हमारी शिक्षक दिख जाए तो भीड़ की आड़ ले छिप जाते थे। जाने क्यों, किसी भी सार्वजनिक जगह पर टीचर को देख हम छिप जाते थे?

कैसे भूल सकते है, अपने उन गणित के टीचर को जिनके खौफ से 13, 17 और 19 का पहाड़ा याद कर पाए थे।

कैसे भूल सकते है उन हिंदी के शिक्षक को जिनके आवेदन पत्रों से ये गूढ़ ज्ञान मिला कि बुखार नही ज्वर पीड़ित होने के साथ विनम्र निवेदन कहने के बाद ही तीन दिन का अवकाश मिल सकता था।

वो शिक्षक तो आपको भी बहुत अच्छे से याद होंगे जिन्होंने आपकी क्लास को स्कूल की सबसे शैतान क्लास की उपाधि से नवाज़ा था।

उन शिक्षक को तो कतई नही भुलाया जा सकता जो होमवर्क कॉपी भूलने पर ये कहकर कि … *“कभी खाना खाना भूलते हो?” … बेइज़्ज़त करने वाले तकियाकलाम से हमें शर्मिंदा करते थे।

शिक्षक के महज़ इतना कहते ही कि “एक कोरा पेज़ देना” पूरी कक्षा में फड़फड़ाते 50 पन्ने फट जाते थे।

शिक्षक के टेबल के पास खड़े रहकर कॉपी चेक कराने के बदले यदि सौ दफा सूली पर लटकना पड़े तो वो ज्यादा आसान लगता था।

क्लास में शिक्षक के प्रश्न पूछने पर उत्तर याद न आने पर कुछ लड़के/ लडकियों के हाव भाव ऐसे होते थे कि उत्तर तो जुबान पर रखा है बस जरा सा छोर हाथ नहीं आ रहा। ये ड्रामेबाज छात्र उत्तर की तलाश में कभी छत ताकते, कभी आँखे तरेरते, कभी हाथ झटकते। देर तक आडम्बर झेलते-झेलते आखिर शिक्षक के सब्र का बांध टूट जाता — you, yes you, get out from my class ….।

सुबह की प्रार्थना में जब हम दौड़ते भागते देर से पहुँचते तो हमारे शिक्षकों को रत्तीभर भी अंदाजा न होता था कि हम शातिर छात्रों का ध्यान प्रार्थना में कम और आज के सौभाग्य से कौन-कौन सी शिक्षक अनुपस्थित है, के मुआयने में ज्यादा रहता था।

आपको भी वो शिक्षक याद है न, जिन्होंने ज्यादा बात करने वाले दोस्तों की जगह बदल उनकी दोस्ती कमजोर करने की साजिश की थी।

मैं आज भी दावा कर सकता हूँ, कि एक या दो शिक्षक शर्तिया ऐसे होते है जिनके शिर के पीछे की तरफ़ अदृश्य नेत्र का वरदान मिलता है, ये शिक्षक ब्लैक बोर्ड में लिखने में व्यस्त रहकर भी चीते की फुर्ती से पलटकर कौन बात कर रहा है का सटीक अंदाज़ लगाते थे।

वो शिक्षक याद आये या नहीं जो चाक का उपयोग लिखने में कम और बात करते बच्चों पर भाला फेंक शैली में ज्यादा लाते ।

हर क्लास में एक ना एक बच्चा होता ही था, जिसे अपनी बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन करने में विशेष महारत होती थी और ये प्रश्नपत्र थामे एक अदा से खड़े होते थे… मैम आई हैव आ डाउट इन क्वैशच्यन नम्बर 11 ….हमें डेफिनेशन के साथ उदाहरण भी देना है क्या? उस इंटेलिजेंट की शक्ल देख खून खौलता।

परीक्षा के बाद जाँची हुई कापियों का बंडल थामे कॉपी बाँटने क्लास की तरफ आते शिक्षक साक्षात सुनामी लगते थे।

ये वो दिन थे, जब कागज़ के एक पन्ने को छूकर खाई ‘विद्या कसम’ के साथ बोली गयी बात, संसार का अकाट्य सत्य, हुआ करता था।

मेरे लिए आज तक एक रहस्य अनसुलझा ही है कि खेल के पीरियड का 40 मिनिट छोटा और इतिहास का पीरियड वही 40 मिनिट लम्बा कैसे हो जाता था ??

सामने की सीट पर बैठने के नुकसान थे तो कुछ फायदे भी थे। मसलन चाक खत्म हुई तो मैम के इतना कहते ही कि “कोई भी जाओ बाजू वाली क्लास से चाक ले आना” सामने की सीट में बैठा बच्चा लपक कर क्लास के बाहर, दूसरी क्लास में ” मे आई कम इन” कह सिंघम एंट्री करते।

“सरप्राइज़ चेकिंग” पर हम पर कापियाँ जमा करने की बिजली भी गिरती थी, सभी बच्चों को चेकिंग के लिए कॉपी टेबल पर ले जाकर रखना अनिवार्य होता था। टेबल पर रखे जा रहे कॉपियों के ऊँचे ढेर में अपनी कॉपी सबसे नीचे दबा आने पर तूफ़ान को जरा देर के लिए टाल आने की तसल्ली मिलती थी।

वो निर्दयी शिक्षक जो पीरियड खत्म होने के बाद का भी पाँच मिनिट पढ़ाकर हमारे लंच ब्रेक को छोटा कर देते थे। चंद होशियार बच्चे हर क्लास में होते हैं जो मैम के क्लास में घुसते ही याद दिलाने का सेक्रेटरी वाला काम करते थे “मैम कल आपने होमवर्क दिया था।” जी में आता था इस आइंस्टीन की औलाद को डंडों से धुन के धर दो।

तमाम शरारतों के बावजूद ये बात सौ आने सही हैं कि बरसों बाद उन शिक्षक के प्रति स्नेह और सम्मान बढ़ जाता है, अब वो किसी मोड़ पर अचानक मिल जाएं तो बचपन की तरह अब हम छिपेंगे तो कतई नहीं।

आज भी जब मैं अपने विद्यालय या महाविद्यालय की बिल्डिंग के सामने से गुजरता हूँ तो लगता है कि एक दिन था जब ये बिल्डिंग मेरे जीवन का अभिन्न हिस्सा थी। अब उस बिल्डिंग में न मेरे दोस्त हैं, न हमको पढ़ाने वाले वो शिक्षक। बच्चों को लेट एंट्री से रोकने गेट बंद करते स्टाफ भी नहीं दिखते जिन्हें देखते ही हम दूर से चिल्लाते थे “गेट बंद मत करो भैय्या प्लीज़” वो बूढ़े से बाबा भी नहीं हैं जो मैम से हस्ताक्षर लेने जब जब लाल रजिस्टर के साथ हमारी क्लास में घुसते, तो बच्चों में ख़ुशी की लहर छा जाती “कल छुट्टी है”

अब विद्यालय के सामने से निकलने से एक टीस सी उठती है जैसे मेरी कोई बहुत अजीज चीज़ छिन गयी हो। आज भी जब उस इमारत के सामने से निकलता हूँ, तो पुरानी यादों में खो जाता हूं।

स्कूल/कालेज की शिक्षा पूरी होते ही व्यवहारिकता के कठोर धरातल में, अपने उत्तरदाइत्वों को निभाते, दूसरे शहरों में रोजगार का पीछा करते, दुनियादारी से दो चार होते, जिम्मेदारियों को ढोते हमारा संपर्क उन सबसे टूट जाता है, जिनसे मिले मार्गदर्शन, स्नेह, अनुशासन, ज्ञान, ईमानदारी, परिश्रम की सीख और लगाव की असंख्य कोहिनूरी यादें किताब में दबे मोरपंख सी साथ होती है, जब चाहा खोल कर उस मखमली अहसास को छू लिया।

लेखक, जय हिन्द नेशनल पार्टी के प्रवक्ता है।


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