कोरोना पैकेजः डिजिटल सिस्टम और अफसरी फांस

कोरोना संकट से निबटने के लिए देशवासी मुक्त हस्त से दान कर रहे हैं। यह दान पीएम केयर फंड और राज्य के मुख्यमंत्री सहायता कोष में दिया जा रहा है। हृदय को प्रफुल्लित करने वाले दृश्य भी इस दौरान देखने को मिल रहे हैं। बच्चे अपनी गुल्लक तोड़कर इस फंड के लिए धन दे रहे हैं। कोई अपने प्रिय परिजनों की तेरहवीं के धन को दान कर रहा है। वर पक्ष के लोग विवाह में दिए जाने वाले दहेज़ को पीएम केयर में देने की सलाह वधु पक्ष को दे रहे हैं। कश्मीर में एक महिला ने हज जाने के लिए रखी 5 लाख की राशि संघ के सेवाभावी स्वयंसेवकों को दान कर दी। इनके अलावा लाखों लोग भोजन, राशन, दवा, परिवहन के सेवा प्रकल्प में स्वप्रेरित भाव से संलग्न हैं।
सुकूनभरी इन तस्वीरों का दूसरा पक्ष सरकारी सिस्टम की जड़ता और दुरूह कार्यप्रणाली का भी खड़ा हो रहा है। केंद्र सरकार ने 1.70 लाख करोड़ के राहत पैकेज की घोषणा की है। किसान, मजदूर, महिला, दिव्यांग वर्ग के लिए जो प्रावधान किए हैं, उन्हें अफसरशाही और बाबूशाही की अजगर फांस से बचाना प्रशासन तन्त्र का सबसे चमत्कारिक घटनाक्रम होगा। मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने घोषणा की है कि राज्य में बगैर राशन कार्ड वाले जरूरतमंदों को भी सरकारी दुकानों से मुफ्त राशन दिया जाएगा। इस बीच प्रदेश में करीब दो लाख परिवार ऐसे हैं जो खाद्य सुरक्षा गारन्टी के दायरे से बाहर हैं। इन परिवारों के पास राशन कार्ड तो है लेकिन इनके नाम नई बायोमेट्रिक मशीनों में दर्ज नहीं हैं।इसलिए इन्हें राशन नहीं मिल पा रहा है।
लॉकडाउन के बीच हर कलेक्टर दफ्तर में ऐसे लोग फरियाद लेकर खड़े हैं। सरकारी मुलाजिम नियमों का हवाला देकर चुप हैं। किसान कल्याण निधि के सरकारी पोर्टल पर 96073451 किसान पंजीकृत हैं लेकिन 11 फरवरी को केंद्र सरकार ने लोकसभा में दिए जवाब में बताया कि इनमें से 84472629 किसान इस योजना में लाभान्वित हो रहे हैं। शेष 1 करोड़ 16 लाख से अधिक किसान तकनीकी कारणों से योजना का लाभ नहीं ले पा रहे हैं। ऐसा बैंक खाते, आधार नम्बर दुरस्त न होने के कारण है। इस बीच केंद्र सरकार ने कोरोना पैकेज में भी 8.6 करोड़ किसानों को ही इस दायरे में लिया है। जाहिर है ये 1 करोड़ 16 लाख किसान परिवार 2 हजार की मदद से भी वंचित रहेंगे।
सरकार ने श्रमिकों के खातों में एक हजार रुपए डालने की निर्णय लिया है। लेकिन मप्र में ही केवल 8.6 लाख मजदूर इसके दायरे में हैं। शेष इसलिए वंचित हो गए क्योंकि सरकार ने जिस श्रम शक्ति एप के जरिये इनका पंजीयन किया था, उसमें तकनीकी कारणों से करीब एक करोड़ वास्तविक मजदूर रजिस्ट्रेशन नहीं करा पाए। केंद्र सरकार के सुगम्य भारत योजना में दिव्यांगजनों के लिए यूनिक आइडेंटिटी कार्ड बनाने का काम पिछले दो वर्षों से चल रहा है, इस एप्प बेस्ड डेटा में अभी आधे ही दिव्यांग रजिस्टर हो सके हैं। ऐसे में सभी लोगों तक केंद्रीय मदद कैसे सुनिश्चित होगी? असल में भारत की प्रशासनिक मशीनरी यथास्थितिवाद और जड़ता पर अकाट्य रूप से अवलंबित है। मानवीय संवेदना अफसरशाही के दिल और दिमाग में कभी सरकारी जड़ता से ऊपर स्थान नहीं ले पाती है। यही कारण है कि लोककल्याण से जुड़ी अधिकतर योजनाएं परिणामोन्मुखी नहीं हो पाती हैं।कोरोना जैसी आपदा अभूतपूर्व है लेकिन सरकारी तंत्र इस संकट को भी परम्परागत तौर-तरीकों से निबटने में लगा है। बेहतर होता मुख्यमंत्री राहत कोष को जिला स्तर पर संचालित किया जाता क्योंकि इस कोष में लोग इस भावना से दान देते हैं कि जरूरतमंद तक त्वरित सहायता पहुंचे लेकिन जिस खाते में यह धनराशि जाती है उसकी व्यय प्रक्रिया इतनी दुरूह और जटिल है कि आपदा के बाद उसका कोई वास्तविक महत्व ही नहीं रह जाता है। मसलन चादर या पलँग खरीदे जाने हैं तो पहले कलेक्टर अस्पताल से मांग पत्र लेंगे फिर कलेक्टर इस आशय के पत्र शासन को भेजेंगे, शासन धनखर्ची के लिए मार्गदर्शी नियम बनाएगा। वित्त विभाग स्वीकृति देगा। जिलों को धन जारी होगा, फिर भंडार क्रय नियमों के अनुरूप टेंडर/जेम पोर्टल प्रक्रिया होगी। वेंडर सप्लाई करेगा। कलेक्टर सबन्धित विभाग को मदद के लिए नोडल निर्धारित करेगा। इस पूरी प्रक्रिया को कागज, नोटशीट, ऑर्डर पर ही दौड़ना पड़ता है। बाढ़, भूकम्प या अन्य आपदा में सहायता का यही मेकेनिज्म है। हां इससे पहले सर्वे भी होता है कि कौन पात्र और कौन अपात्र है।बेहतर होगा कि मुख्यमंत्री सहायता कोष जिलावार निर्धारित कर इस जटिल प्रक्रिया का सरलीकरण किया जाए।
जिस जिले में इस मदद के लिये राशि न मिले उसमें सरकार राशि डाले। इसी तरह पीएम फंड भी राज्यवार दानियों के हिसाब से निर्धारित किया जा सकता है, उसके व्यय की अधिकारिता को मुख्य सचिव और केंद्रीय गृह सचिव के साथ सयुंक्त किया जा सकता है। ऐसा करने से आपदा के समय सरकारी मदद को समयानुकूल और त्वरित बनाया जा सकता है। अन्यथा यह सरकारी सिस्टम के मकड़जाल में फंसी ही रहेगी। जो स्थानीय दानी हैं, उन्हें भी यह सन्तोष होगा कि उनकी राशि का उनकी नजरों के सामने ही उपयोग किया जा रहा है।सरकारी सिस्टम की कार्यप्रणाली में किस हद तक यथास्थितिवाद है इसकी नजीर एमपी एमएलए फंड के साथ समझी जा सकती है। लगभग सभी सांसद व विधायक कोरोना मदद के नाम पर लाखों करोड़ों की राशि स्थानीय अस्पतालों को मास्क, सेनिटाइजर, वेंटिलेटर और दूसरी एसेसरीज के लिए जारी कर चुके हैं लेकिन आजतक किसी कलेक्टर ने इस राशि के कार्यादेश जारी नहीं किये हैं। जबकि आबंटन पत्रों में साफ लिखा है कि राशि किस मद में व्यय की जानी है। जाहिर है सरकारी सिस्टम की दुरूह कार्य संचालन प्रक्रिया में यह त्वरित गति से संभव ही नहीं है। जब इस राशि का उपयोग होगा तब शायद इन वस्तुओं की सामयिक उपयोगिता एक चौथाई भी न रहे। वस्तुतः हमारे प्रशासन तन्त्र की कार्यविधि में जनोन्मुखी तत्व 70 साल बाद भी सुनिश्चित नहीं हो पाया है। ऐसा इसलिए कि चुनी हुई सरकारें सिर्फ अफसरशाही के दिमाग से चलती हैं और अफसरशाही का मूल चरित्र ही जड़ता, विलंब और फिजूल कागजी पत्राचार रहता है।डिजिटल इंडिया के लक्ष्य पर जिस अंधाधुंध तरीके से काम हो रहा है उसने कुछ व्यावहारिक दिक्कतें भी निर्मित की हैं। इनके परिक्षालन का यह सबसे अच्छा अनुभव है। सरकार को चाहिए कि इस संकट की घड़ी में डिजिटल प्लेटफार्म को पात्रता का मापदंड निर्धारित करने की परिपाटी को शिथिल कर दे क्योंकि आंकड़े गवाही दे रहे हैं कि करोड़ों वास्तविक लोग इसके चलते लाभ से वंचित हो रहे हैं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)