कोरोना काल के युग में चुनौतियों

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देवदत्त दुबे

यह चुनौतियों का युग है। बुद्धिमान हृदय वान और जागृत अंतः करण के व्यक्तियों को काल की चुनौती है। इस समय ऐसे लोग कसौटी पर हैं कि वह इस महामारी का प्रतिकार कैसे करेंगे या फिर निष्क्रिय बनकर दोनों हाथ जोड़कर भाग्य को कोसते हुए दया के लिए चेहरा लटका कर चमड़ी बचाकर कायर बनकर बैठे रहेंगे संवेदनशील व्यक्ति व्यथित हुए हैं। अति भेजना का अनुभव भी कर रहे हैं यही वेदना प्रसव वेदना बनेगी।

दरअसल 21वीं सदी के यंत्र युग में यंत्र के साथ रहकर मानव यंत्र वत बन गया वह यंत्र की तरह जड़ भाव शून्य उत्पादक पसंद स्वार्थ परायण और अवसरवादी बन गया है। पद पैसा प्रतिष्ठा के अतिरिक्त और किसी विषय में उसकी रुचि ही नहीं रही यहां तक कि बुद्धिमान व्यक्ति के लोकोपयोगी कार्यों के निर्णय पर भी स्वार्थ की छाया दिखाई पड़ने लगी है। नीति, धर्म, संस्कृति, ईश्वर, प्रेम, सब पीछे छूटते गये भौतिक समृद्धि में ही राष्ट्र की उन्नति मानने वाला यह मानव के पास जाता है तो या तो वोट के लिए या नोट के लिए। या फिर आटा पाने के लिए समाज में असमानता है और इससे कोई भी वर्ग अछूता नहीं है।

मसलन परिवार में भाव की अपेक्षा, भोग, धर्म की अपेक्षा, धन, स्नेह की अपेक्षा, स्वार्थ, कर्तव्य की अपेक्षा, अधिकार, प्रेम की अपेक्षा, बैर और विश्वास की अपेक्षा, ईर्ष्या बढ़ गई है, जिससे त्याग तप स्नेह और सहयोग की नीव पर स्थित पारिवारिक जीवन की इमारत आज हिलने लगी है। समाज जीवन की धुरी कुटुंब संस्था को इस प्रकार टूटता, बिखरता, देखकर किसी को भी अच्छा नहीं लगता, परिवार के बाद मानव को संस्कार और शिक्षा देने के लिए विद्यालयों, महाविद्यालय पर दृष्टि डालें तो शिक्षक और शिष्य के संबंध ही व्यापारी और ग्राहक के संबंध बनते जा रहे हैं। गुरुकुल शिक्षा पद्धति वाले देश में शिक्षा, व्यापार बन गई इसी तरह धर्म मंदिर भी केवल मूर्ति पूजा के तंत्र बन गए प्रभु को भोग रखने उनको वस्त्रों से अलंकृत करने और ऊंची आवाज में स्तुति पाठ करके पूजन करने में ही मोदी पूजा की इतिश्री हो गई है ।

वास्तव में मूर्ति पूजा अलौकिक विचार है, यह चित्र शुद्धि के लिए अति आवश्यक है। जीवन में दृढ़ता, चित्, एकाग्रता और ईश्वर के प्रति भाव और प्रेम बढ़ाने के लिए मूर्ति पूजा महत्वपूर्ण है, संशय और अंधश्रद्धा का पोषण करने वाली धर्म भावना की जगह वास्तविक धर्म का भाव जगाने की जरूरत है। इसी तरह समाज सेवा करने वाले समाज सुधारक लोग, समाज का धन एकत्र करके ट्रस्ट बनाकर स्वयं ट्रस्टी बनकर मन मन प्रतिष्ठा आने का माध्यम बना रहे है, समाज के साधन हीन-दीन पीड़ित पतित की सेवा की सेवा बहुत कम समाजसेवी कर पा रहे ऐसे ही जननेता बनने की बजाएं पदो के नेता बन गए है, जिनका कुर्सी पाने और संपत्ति अर्जित करने में ही जीवन का आनंद निहित है। ऐसे नेता क्या जनता में आत्म गौरव और अस्मिता का निर्माण कर सकते हैं, समाज का चरित्र गण देना उनका क्या योगदान है। इस तरह के शासन से लोगों को घुटन पैदा होने लगी है।

कुल मिलाकर समाज के जिस कोने में दृष्टि जाती है, वही भ्रष्टाचार, अनाचार, अद्यतन जड़ता, स्वार्थ, भोग, वाद और भाव शून्यता की व्यवस्था दिखाई देती है, ऐसे में एक ही पुकार है क्या इसका कोई उपाय नहीं है पूरी दुनिया के रोम रोम में व्याप्त कोरोना महामारी नाशक किसी दवा का अब तक शोध क्यों नहीं हो सका है ? पूरी दुनिया उन्नति और अविष्कार के अहंकार में जी रही थी, लेकिन एक वाइरस ने बता दिया यह सब अशांति ही दे सकती है, यदि हमें शांत जीवन जीना है तो इन सभी अनिष्ट के निवारण का श्रेष्ठ उपाय बुद्धि परिवर्तन ही है। यह काम कठिन अवश्य लेकिन किया जा सकता है।सबसे पहले हम बीते जीवन पर विचार करें और जो भी गलतियां हमने प्रकृति और समाज को पहुंचाने के लिए की है, वे आगे से ना की जाए तो चुनौतियों के युग में हम काल को भी चुनौती देने में सफल होंगे। जरूरत है समाज को स्वस्थ बनाने के लिए विचार प्रवाह बदलने की आवश्यकता है क्या आपको ऐसा नहीं लगता ?

तो आइए सभी संवेदनशील हम सब एक साथ मिलकर विचार करके विचार प्रवाह को योग्य मार्ग में लगाने और प्रभु प्रेम को हृदय में रखकर समय की चुनौती को स्वीकारें विचार प्रवाह बदलकर पूरे समाज का नवनिर्माण करें और सबका जीवन सफल बनाएं।


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