चीन की पीआर कम्पनी बना डब्लूएचओ?

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डॉ. अजय खेमरिया

अफ्रीका के जीका जंगल से फैला वायरस जीका कहलाया, इबोला नदी से पैदा हुआ वायरस इबोला वायरस के नाम से जाना गया क्योंकि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने यही नामकरण किए थे इन वायरस के। चीन के वुहान प्रान्त से निकला वायरस “चीनी या वुहान वायरस” क्यों नहीं कहलाया? उसे नया नाम दिया गया ‘कोविड 19’। यह नामकरण असल में चीन की करतूतों पर पर्देदारी का प्रयास ही था। अब दुनियाभर के देशों के दबाव में इस संगठन की कोरोना पर भूमिका की जांच का निर्णय हो चुका है। सवाल यह है कि चीन के आगे एक तरह से सरेंडर कर चुके डब्ल्यूएचओ चीफ क्या वुहान के इस पाप की वास्तविक तथाकथा पता करने का साहस जुटा पायेंगे? और चीन क्या वाकई दुनिया के दबाव में अपने यहां विकसित इस जैविक हथियार की अंतर्कथा सामने आने देगा? वैश्विक परिदृश्य में चीन की बढ़ती स्वेच्छाचारिता और अमानवीयता के मद्देनजर यह असंभव ही लगता है।असल में विश्व स्वास्थ्य संगठन 2017 से ही चीन की तरफ़दारी में जुटा है क्योंकि उसके डीजी ट्रेडोस घ्रेबेयसस जिनपिंग के रहमोकरम पर ही इस पद को पा सके थे। कोरोना संकट की स्पष्ट पदचाप के बीच इस साल जनवरी में डब्लूएचओ महानिदेशक ट्रेडोस घेब्रेयसस चीनी राष्ट्रपति जिनपिंग से मिलने बीजिंग जाते हैं, चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की तारीफ में कसीदे गढ़ते है। वुहान में फैली बीमारी से निबटने के लिए चीन को निपुणता का प्रमाणपत्र भी जारी करते हैं। 11 फरबरी को डब्लूएचओ ने इसे कोविड -19 का नाम दिया तब तक 44 देश इसके संक्रमण की चपेट में आ चुके थे। इस दौरान अधिकृत रूप से डब्लूएचओ ने यह भी कहा कि कोविड आदमी से आदमी में नहीं फैलता है। न कोई एडवाइजरी जारी की गई कि लोग वुहान आने में एहतियात बरतें। पूरे 57 दिनोंं तक चीनी वायरस ने दुनिया के 79 देशों में चार हजार से ज्यादा लोगों की जान ले ली तब जाकर डब्लूएचओ ने 11 मार्च को इसे वैश्विक महामारी घोषित किया। आज कोविड 19 से संक्रमित संख्या 50 लाख और मरने वालों का आंकड़ा 3 लाख को पार कर गया है। तो क्या इन आरोपों को सच माना जाना चाहिये जो अमेरिका, जर्मनी, इंग्लैंड, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया सहित अन्य देशों ने डब्लूएचओ की भूमिका को लेकर लगाए है।सवाल यह भी है कि चीन को लेकर डब्लूएचओ की भूमिका विश्व बिरादरी के नजरिये में संदिग्ध क्यों हो गई? अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने तो डब्लूएचओ की फंडिंग रोकने के साथ चीन की करतूतों को छिपाने तक के आरोप लगाए हैं। ऑस्ट्रेलिया ने कोविड से हुए आर्थिक नुकसान को वसूलने की बात कही। अमेरिकी सीनेट में तो बकायदा प्रस्ताव आ चुका है जो चीन को इस त्रासदी के लिए जिम्मेदार ठहराने के साथ डब्लूएचओ की भूमिका को भी कटघरे में खड़ा करता है। ऐसे में जब पूरी दुनिया चीन के गैर जिम्मेदाराना रवैये के विरुद्ध लामबंद हो रही है, भारत में एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो इस मामले पर चीन की भूमिका पर बात ही नहीं करना चाहता। एकेडेमिक्स और मीडिया का एक धड़ा चीन के बचाव में भी खड़ा हुआ है। असल में कोरोना संकट पर जो वैश्विक परिदृश्य है उसपर भारत में कोई विमर्श नहीं करना चाहता है, सिवाय राजनीतिक आरोपों के। हकीकत यह भी है कि इस मामले में सबसे बड़ा अपराध तो चीन के साथ डब्लूएचओ ने भी किया है। भारत भी इस संगठन का प्रमुख सदस्य है तो क्या इस मुद्दे पर हमारे बौद्धिक जगत में चिंतन नहीं होना चाहिए?तथ्य है कि चीन की बढ़ती पूंजीवादी ताकत के आगे 72 साल पुराना यह संगठन बंधक-सा बनकर रह गया। अपने मूल दायित्वों को दरकिनार कर डब्ल्यूएचओ चीन की पीआर एजेंसी की तरह काम कर रहा है। सर्वप्रथम वायरस के नामकरण में यह दबाव दिखा, फिर वुहान में टीम के आवजर्वेशन को सार्वजनिक नहीं किया। जनवरी में ही चीन उन लोगों के विरुद्ध जेल की कार्रवाई कर रहा था जो वुहान वायरस की सार्वजनिक चर्चा भर कर रहे थे। इसी दौरान डॉ.ली की रहस्यमयी मौत इस संक्रमण से हुई लेकिन डब्लूएचओ ने अपने अधिकृत बयान में यह घोषित किया कि वुहान में मानव से मानव में कोरोना संक्रमण के कोई प्रमाण नहीं मिले हैं। जबकि तथ्य यह था कि शुरुआती 41 संक्रमित लोगों में से 13 तो कभी भी प्रचारित सी फूड बाजार में गए ही नहीं थे। यानी सी फूड और चमगादड़ों के कोरोना फैलने की थ्योरी प्रमाणिक न होकर सुस्थापित ही थी। यह निष्कर्ष जिनपिंग के निजी दबाब में ही जारी किए गए। यहाँ सबसे अहम बात जो चीन के दबाव को प्रमाणिकता से पुष्ट करता है, वह ताइवान का मामला है। ताइवान ने 31 दिसम्बर 2018 को वुहान वायरस के बायलोजिकल हथियार होने का एक इशारा डब्लूएचओ को किया था। इस आशय का एक लिखित पत्र भी भेजा जिसमें यह कहा गया था कि यह बीमारी आदमी से आदमी में फैलती है और उसके पास इसके पुख्ता सबूत हैं। ताइवान ने इस बीमारी पर विजय भी तत्काल पा ली।लेकिन डब्ल्यूएचओ ने ताईवान के इस आगाह पत्र को कोई तवज्जो नहीं दी क्योंकि वह चीन को नाराज नहीं कर सकता है।

ताइवान पर चीन ने अवैध रूप से कब्जा कर रखा है। 1971 में चीन यूएन का सदस्य बना लेकिन उसने ताइवान की सदस्यता नहीं होने दी क्योंकि इस देश को वह अपना ही हिस्सा मानता है। यही वजह थी कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने ताइवान को लेकर कोई प्रतिक्रिया तक नहीं दी। उल्टे उसके अनुभव और दावों को धता बताकर चीनी छवि निर्माण की एडवाइजरी जारी की। दुनिया के तमाम वैज्ञानिक यह मानकर चल रहे हैं कि वुहान प्रयोगशाला में ही कोविड 19 को जन्म दिया गया है। अमेरिकी खुफिया रिपोर्ट भी ऐसा ही दावा करती है लेकिन डब्ल्यूएचओ इसपर बिलकुल चुप है।क्या यह संगठन वाकई चीन के ओक्टोपेशी शिंकजे में है? तब जबकि अमेरिका, इंग्लैंड, जापान, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस इस संगठन के परिचालन का 60 फीसदी धन उपलब्ध कराते हैं। 2019 में इसका बजट 45 हजार करोड़ था जिसमें अकेले अमरीका का योगदान 4150 करोड़ था। चीन ने 2019 में 8.6 करोड़ डॉलर का चंदा दिया जो उसके पिछले दान से करीब 52 फीसदी अधिक है। हालांकि अमेरिका के बाद इंग्लैंड, जर्मनी, जापान बड़े दानदाता हैं लेकिन चीन भी अपना चंदा जिस तेज अनुपात में बढ़ा रहा है उसने डब्ल्यूएचओ पर उसकी पकड़ मजबूत की है। मौजूदा महानिदेशक टेड्रोस तो विशुद्ध रूप से जिनपिंग की मदद से ही इस पद पर आए हैं। इथोपिआई नागरिक डॉ. टेड्रोस के लिए चीन ने अपने निर्णायक मताधिकार के अलावा अन्य देशों से भी सहयोग दिलाया। जाहिर है डॉ. ट्रेडोस महानिदेशक के समानांतर जिनपिंग के अहसान चुकाने के लिए संगठन को ही दांव पर लगा चुके हैं।पहली बार हुआ है जब इस संगठन की विश्वसनीयता पर इतने प्रमुख राष्ट्रों ने सीधी आपत्ति दर्ज की है। अमेरिकी सीनेट में प्रस्तुत प्रस्ताव में तो यहां तक कहा गया है कि संगठन के अधिकारी कर्मचारियों को चीन ने खरीदने का समानान्तर प्रयास किया है। वेतन के अतिरिक्त बाहरी स्रोतों से आये धन की जांच का विषय बहुत ही गंभीर है। जनवरी में जो टीम चीन गई थी उसे लेकर दुनिया भर में खड़े किए जा रहे आरोपों पर आजतक डब्ल्यूएचओ का स्पष्टीकरण न आना बहुत ही चिंताजनक है।इस संगठन के सर्वोच्च निकाय डब्ल्यूएचए की सालाना बैठक में इन प्रश्नों को लेकर जो तल्खी चीन और डब्ल्यूएचओ को लेकर सदस्य देशों ने दिखाई वह परिणामोन्मुखी होगी, इसकी बहुत आशा नहीं की जानी चाहिये। हकीकत तो यह है कि हांगकांग और अपने यहां चल रहे दमन चक्र को नष्ट करने के लिए ही वुहान वायरस को निर्मित किया गया था। इसकी स्वतंत्र जांच चीन के चरित्र को देखते हुए संभव नहीं है। क्या 2030 तक विश्व के सभी नागरिकों को आरोग्य का संकल्प ड्रैगन की वकालत के ऐसे कारनामों से हासिल कर पायेगा डब्लूएचओ? यह भी विचारणीय पहलू है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)


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