दुर्गा पूजा का बदलता चेहरा

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तपती भट्टाचार्या ।
हिन्दुओ का सबसे बड़े त्योहारों में से एक है दुर्गा पूजा। पहले के जमाने में, खासकर यह पूजा बंगाली समुदाय का था। परंतु अब सभी हिन्दु हर्षोल्लास के साथ यह त्यौहार मनाते हैं। समय के साथ- साथ दुर्गा पूजा का स्वरूप बिल्कुल बदल गया। पहले जमाने का दुर्गा पूजा कैसा होता था यह आज की युवा पीढी जानती भी नहीं है। आइए, आपको पुराने जमाने के दुर्गा पूजा से परिचित कराते हैं। सबसे पहले मैं आपको अपने पिताजी के बचपन की दुर्गा पूजा के बारे में बताती हूं, जिसकी कहानी मैंने पिताजी से ही सुनी है। इसके लिए हमें अविभाजित भारत के पूर्वी बंगाल में जाना पड़ेगा। पूर्वी बंगाल को विभाजन के बाद ईस्ट पाकिस्तान और आज स्वतंत्र देश के रूप में जाना जाता है जिसे बांगलादेश कहते हैं।

पूर्वी बंगाल में कोई सार्वजनिन दुर्गा पूजा नहीं होती थी। गांव के संपन्न लोग एवं जमींदारों के यहां घर पर दुर्गा पूजा होती थी। लगभग सौ साल पहले मेरे पिताजी के बचपन में पाबना जिला स्थित उनके घर में भी दुर्गा पूजा होती थी। उस समय पूजा का मतलब सिर्फ पूजा ही था। घर में पूजा होने की वजह से लाइट से सजावट, पंडाल की सजावट यह सब कुछ नहीं होता था। मूर्तिकार घर पर आकर प्रतिमा बनाते थे। विभिन्न रस्मों के साथ पूजा होती थी जिनमें से कुछ रस्म अब समाप्त ही हो गए हैं। घर और मुहल्ले की महिलाएं मिलकर पूजा का सारा काम निपटाती थीं। गांव की प्रजा जिसमें हिन्दू – मुसलमान दोनों होते थे, समान रूप से पूजा में भाग लेते थे। परंतु मुसलमान जानते थे कि पूजा की सामग्री उन्हें नहीं छूना है और इसे लेकर उनके मन में कोई विकार भी नहीं था। वह हिन्दुओं के साथ मिलकर आनंद मनाते थे। इस पूजा में बकरे की बलि दी जाती थी लेकिन बलि का मांस बिना प्याज, लहसुन के बनता था जिसे महाप्रसाद कहते थे।

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पूर्वी बंगाल के ढ़ाका शहर से थोड़ी दूर पर मीरपुर में मेरा ससुराल था। हालंकि वहां पर जाने का सौभाग्य मुझे नहीं मिला। पिताजी का घर भी मैनें कभी नहीं देखा। मेरे ससूरजी ने बताया था कि उनके पिता मीरपुर के बड़े जमींदार थे और उनके घर पर काफी धूम धाम से दुर्गा पूजा होती थी। लेकिन उस समय के धूम धाम का मतलब था अच्छा प्रसाद और भोग, ज्यादा से ज्यादा लोगों को खिलाना, गरीबों में वस्त्र वितरण करना इत्यादि। यहां भी बकरे की बलि होती थी। सप्तमी के दिन सात बकरा, अष्टमी के दिन आठ बकरा और नवमी के दिन नौ बकरे की बलि चढ़ती थी। मैं हमेशा ही यह सुनती आई हूं लेकिन दिल से इसका समर्थन कभी नहीं कर पाई।

बकरों की बलि

उस जमाने में पश्चिम बंगाल में भी ऐसे ही पूजा होती थी जिसमें से कुछ तो आज तक चला आ रहा है। परंतु कल्कत्ता और आज का कोलकाता में बहुत पहले से ही सार्वजनिन दुर्गा पूजा प्रारंभ हो चुकी थी। पहले इनकी संख्या गिनी चुनी थी और आज जैसा आडम्बर भी तब नहीं था, सार्वजनिन पूजा में भी घर के पूजा जैसा माहौल होता था।

विभाजन के बाद पूर्वी बंगाल नहीं रहा, पूर्वी पाकिस्तान हो गया। पूर्वी बंगाल के अधिकांश बंगाली हिन्दू परिवार अपना सब कुछ खोकर सिर्फ जान बचाकर भारत आ गए और भारत के विभिन्न शहरों में बस गए। अब कोई परिवार संपन्न, जमींदार या गरीब नहीं था। सभी रिफ्यूजी हो गए थे। अब अपने घर पर दुर्गा पूजा की बात सोचना भी नामुमकिन था। इसलिए सबने मिल जुलकर सार्वजनिन दुर्गा पूजा प्रारंभ किया। भारत के सभी शहरों में सार्वजनिन दुर्गा पूजा होने लगा।

दुर्गा पूजा पंडालों के अंदर

विभाजन की बाद की भारत में दुर्गा पूजा

सभी शहरों में दुर्गा पूजा की संख्या बढ़ने लगी। परंतु उस समय के दुर्गा पूजा का माहौल अलग था। मुझे याद है अपने बचपन की दुर्गा पूजा। उस समय पूजा में तड़क भड़क नहीं था।  पंडाल और प्रतिमा की सजावट मुहल्ले के लड़के ही करते थे। पंडाल के नाम पर सिर्फ शामियाना लगता था और जहां प्रतिमा स्थापित होती थी वहां पर टिन का अस्थाई शेड बनाया जाता था। रंगीन कागज, रंग – बिरंगी साड़ियों से सजावट होती थी जो मुहल्ले की महिलाओं से ही ली जाती थी। पूजा का फूल, माला बाजार से नहीं खरीदा जाता था। रोज भोर में छोटी लड़कियां और लड़के मुहल्ले के जिन घरों में बगीचा होता था वहां से फूल चुनते थे खासकर पारिजात के फूल। जो लोग फूल देने से मना करते थे उनके बगीचे से फूल चोरी भी किया जाता था। कभी कभी माली दौड़ा भी लेता था। आप लोग सोच रहे हैं कि मैं फूल चुनने का इतना विस्तृत ब्यौरा कैसे दे रही हूं ? मैं भी फूल चुनने जाती थी और कई बार माली ने दौड़ाया भी है। घर आकर हम लोग माला बनाते थे और वही माला प्रतिमा को पहनाया जाता था।

सुबह सुबह मुहल्ले के अधिकांश पुरूष, महिलाएं, किशोर – किशोरियां नहा धोकर नए वस्त्र पहनकर पंडाल में पहुंच जाते थे और अपनी आयु के अनुसार कुछ सुबह के पूजा और प्रसाद की तैयारी करते थे तो कुछ दोपहर के भोग की। आजकल की तरह उन दिनों रोज पंडाल में भोग नहीं खिलाया जाता था। दोपहर को घर से बर्तन लाकर थोड़ा सा भोग घर ले जाते थे और प्रसाद की तरह थोड़ा थोड़ा सभी घरवाले खाते थे। रात को मुहल्ले के बच्चे और युवक – युवतियां मिलकर सांस्कृतिक कार्यक्रम, नाटक वगैरह करते थे। अपने मुहल्ले की पूजा में ही सभी शामिल होकर घर के पूजा जैसा आनंद उठाते थे। पूजा के दौरान दूसरे मुहल्ले में घूमने जाने का न किसी के पास समय होता था न मन। मेरा बचपन पटना (बिहार) में गुजरा। शादी के बाद मैं इलाहाबाद आज का प्रयागराज (उत्तर प्रदेश) में आ गई। तब यहां के दुर्गा पूजा का स्वरूप भी मुझे बचपन पटना के पूजा जैसा ही लगा। मेरी बेटी के बचपन में दुर्गा पूजा ऐसा ही था। वह भी  बचपन से ही दुर्गा पूजा के काम करती आई है। लेकिन जैसे जैसे वह बड़ी होती गई दुर्गा पूजा का स्वरूप भी बदलता गया और अब भी हर साल बदल ही रहा है अर्थात हर साल कुछ नया।

आज दुर्गा पूजा में करोड़ों रुपए खर्च किए जाते हैं ।

आज की दुर्गा पूजा

अब आज के दुर्गा पूजा की बात करते हैं। दुर्गा पूजा में बदलाव आज के युग की मांग है जिसे कोई भी बारवारी नकार नहीं पा रही है। हर शहर के हर पूजा में पंडाल बनने और सजावट के लिए कारीगर आते हैं। अधिकांश शहरों में कोलकाता से कारीगर आते हैं, लेकिन कोलकाता में कारीगर कहां से आए ? वहां भी दूसरी जगह से कारीगर बुलाना जरूरी होता जा रहा है। कुछ साल पहले कोलकाता के एक बारवारी ने पाकिस्तान के कराची से कारीगर बुलाए थे जिन्होंने पाकिस्तान की एक खास कला से पंडाल को सजाया था।

पूजा की रस्में सभी जगह पर परंपरा के अनुसार ही होता है। परंतु प्रतिमा और पंडाल की सजावट और लाईट डेकोरेशन का खर्च छोटे शहरों में कई कई लाख तक पहुच चुका है और बड़े शहरों में कई कई करोड़ तक और यह हर साल बढ़ता ही जा रहा है। बारवारियों में सजावट, पंडाल और प्रतिमा की प्रतियोगिता होती है। इस प्रतियोगिता में जीतने के लिए बारवारियां पानी की तरह पैसा बहाती हैं। यह पैसा कहां से आता है। स्पांसरशिप और मुहल्ले के लोगों से चंदा इकट्ठा करके। महानगरों में तो डरा धमकाकर ज्यादा चंदा वसूल करते हैं। आज की पीढ़ी इसी पूजा से खुश हो जाते हैं क्योंकि उन्हें पहले की दुर्गा पूजा का स्वाद ही नहीं हो पता। मेरी बेटी भी आजकल के दुर्गा पूजा में वह आनंद नहीं पाती जो उसे बचपन में मिलता था। इसका एक बड़ा कारण है आज की पूजा में लोगों की व्यक्तिगत भागीदारी कम हो जाना।

ज्यादातर कामों के लिए आडॅर दे दिए जाते हैं। यहां तक कि दिया जलाने के लिए बाती भी अब खरीदी जाती है। आजकल अधिकांश महिलाएं एवं पुरूष सज धजकर सुबह से पंडाल में आकर कुर्सी पर बैठकर गप शप में दिन बिता देते हैं। दोपहर में भोग खाने के बाद सब घर जाते हैं। शाम को भी यही होता है। खाना पंडाल में लगे स्टाॅल से खरीदकर खाते हैं। तर्क यह है कि पूजा के कई दिन महिलाओं को किचन में न जाना पड़े।

महिलाओं को भी यह अच्छा लगता है। लेकिन इससे त्यौहार के दिनों में परिवार को अपने हाथ से बना अच्छा खाना खिलाने की खुशी से वह वंचित रह जाती है।

मैं यह नहीं कह रही हूं कि आज की पूजा से पहले जमाने की सादगी वाली पूजा अच्छी थी। शायद हम बुजुर्गों की यह कमी है इस पूजा के माहौल के साथ अपने को जोड़ नहीं पाते। मेरा उद्देश्य आज की दुर्गा पूजा और पहले की दुर्गा पूजा की तुलना करना नहीं है। मैं आज की पीढ़ी को पहले की दुर्गा पूजा की संस्कृति से परिचित कराना चाहती हूं। लेकिन न चाहते हुए भी कभी कभी मन में तुलना आ ही जाती है। मेरे मुहल्ले का पूजा पंडाल मेरे घर से बहुत पास है और यह लेख लिखते समय मेरे कानों में पूजा पंडाल से एक गाने की आवाज आ रही है। गाना है – प्यार दिवाना होता है, मस्ताना होता है।


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