भारत की लूट से ब्रिटेन का हुआ आर्थिक विकास
ऋग्वेद की एक ऋचा है- ‘विश्व पुष्टं ग्रामीण आसमिन अनातुरम’ अर्थात मेरे गांव से ही मुझे विश्व के होने की पुष्टि होती है। मसलन खुशहाली और समृद्धि से परिपूर्ण ऐसे गांव हों, जहां से विश्व के उत्थान और संपन्नता का रास्ता खुलता हो। एक समय हमारे गांव वास्तव में समृद्धि के स्रोत थे इसीलिए देश सोने की चिड़िया कहलाता था। इस लिहाज से जरूरी है कि 15 लाख गांवों को कृषि और कृषि आधारित उन लघु-कुटीर उद्योगों की श्रृंखला से जोड़ा जाए, जिनके चलते देश अतीत में सोने की चिड़िया कहलाता था।भारत के गांव कितने समृद्धिशाली थे, इस तथ्य की पड़ताल यदि अतीत से करें तो पता चलता है कि ब्रिटेन का औद्योगिक साम्राज्य हमारे गांवों से लूटी गई धन-संपदा की नींव पर खड़ा हुआ था। अंग्रेजों की इस लूट का हैरतअंगेज खुलासा अंग्रेज लेखकों की पुस्तकों से हुआ है। ब्रुक्स एडम्स ने अपनी पुस्तक ‘द लाॅ ऑफ सिविलाइजेशन एंड डीके’ में लिखा है- ‘शायद दुनिया के शुरू होने से अबतक कभी भी, किसी भी पूंजी से इतना लाभ किसी भी व्यवसाय में नहीं हुआ है, जितना भारतवर्ष की लूट से अंग्रेजों को हुआ। क्योंकि यहां करीब 50 साल तक इंगलिस्तान से कोई मुकाबला करने वाला नहीं था। इस लूटे गए धन का उपयोग 1760 से 1815 के बीच अंग्रेजों ने अपने देश के औद्योगिक विकास में लगाया।’ वाकई ब्रिटेन का यही वह समय था, जब वहां आश्चर्यजनक उन्नति हुई। अकेले मुर्शिदाबाद की लूट का हवाला देते हुए अंग्रेज इतिहासकार ऑर्म ने अपनी किताब ‘हिस्ट्री ऑफ हिंदुस्तान’ में लिखा है- 6 जुलाई 1757 तक कलकत्ते की अंग्रेज कमेटी के पास चांदी के सिक्कों के रूप में 72 लाख 71 हजार 666 रुपए पहुंच गए थे। यह खजाना 100 संदूकों में भरकर 100 किश्तियों के जरिए नदिया पहुंचाया गया। वहां से अंग्रेजी जंगी जहाजों के मार्फत फिरंगी झंडे फहराते व विजय का डंका पीटते हुए इस धन को ब्रिटेन ले गए। इससे पहले अंग्रेज कौम को एक साथ इतना अधिक नगद धन कहीं से नहीं मिला था।’ विलियम डिग्बे ने लिखा है- ‘प्लासी से वाटर लू तक यानी 1757 से 1815 के बीच करीब एक हजार मिलियन पौंड यानी 15 अरब रूपए भारत से लूटकर इंगलिस्तान भेजे गए। मसलन इन 58 वर्षों में 25 करोड़ रुपए सालाना कंपनी के अधिकारी भारतीयों को लूटकर ब्रिटेन भेजते रहे। महमूद गजनवी व मोहम्मद गौरी की लूटों से इस लूट की तुलना करना, पहाड़ की राई से तुलना जैसी है।इन बानगियों से स्पष्ट होता है कि भारत के गांवों में न केवल खेती-किसानी उन्नत थी बल्कि लघु व कुटीर उद्योग भी गुणवत्तापूर्ण उत्पादकता के चरम पर थे। उस समय तक न तो हमारे यहां उद्योगों का यांत्रिकीकरण हुआ था और न ही हम वस्तुओं का आयात दूसरे देशों से करते थे। बावजूद ज्ञान परंपरा के बूते आत्मनिर्भर थे। भारत वर्तमान में जिस आर्थिक दर्शन को लेकर औद्योगिक विकास में लगा है, वह अभारतीय अर्थशास्त्री एडम स्मिथ की देन है। ‘वेल्थ ऑफ नेशन’ नामक पुस्तक के लेखक स्मिथ को 18वीं सदी के आधुनिक अर्थशास्त्र का पिता माना जाता है। इसी विचार ने मनुष्य को आर्थिक मानव अर्थात संसाधन माना। इसके विपरीत भारतीय चिंतक गांधी, आंबेडकर व रवींद्रनाथ टैगोर ने सनातन भारतीय चिंतन परंपरा से ज्ञान अर्जित कर मनुष्य समेत संसार के सभी प्राणियों के कल्याण की सीख ली। इनका तत्व चिंतन व्यक्तिगत, जातिगत, समुदायगत और राष्ट्र व राज्य की सीमाओं तक सीमित न रहते हुए विश्व कल्याण के लिए था। परिणामतः इनके चिंतन में पोषण के उपायों को तलाशने के विधि-विधान अंतनिर्हित हैं। दरअसल, ये दूरदृष्टा भलिभांति जानते थे कि जो लाचार परिवार शहर में दो वक्त की रोटी का प्रबंध करने आया है, वह किसी कारखाने या धनाढ्य परिवार में काम भले पीढ़ी-दर-पीढ़ी करता रहा हो, उसका पोषण भी खूब हुआ लेकिन उसे अपनाया नहीं गया। पूंजीपतियों ने इसी कार्य संस्कृति को मानव संसाधन माना है।पूंजीवादी पोषण के लिए समूची दुनिया की प्रकृति को संकट में डाल दिया गया है। कोरोना का भयावह संकट इसी दोहन से सह-उत्पाद के रूप में उपजा घातक विषाणु है। लिहाजा अब जरूरी है कि मानव को संसाधन बनाने वाले इस दर्शन से मुक्ति पाने के क्रमबद्ध नीतिगत उपाय किए जाएं। ग्राम, कृषि और लघु उद्योग आधारित अर्थव्यवस्था को बढ़ावा दिया जाए। स्वावलंबन के यही उपाय भारत को पलायनवादी उपायों से तो छुटकारा दिलाएंगे ही, भारत को प्रदूषण मुक्त समृद्धशाली देश बनाने का भी काम करेंगे।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)