23 अप्रैल : बाबू कुंवर सिंह विजयोत्सव

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बाबू कुंवर सिंह का जन्म एक क्षत्रिय परिवार में हुआ था (13 नवंबर 1777 – 26 अप्रैल 1858)। बाबू कुंवर सिंह सन 1857 के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सिपाही और महानायक थे। अन्याय विरोधी व स्वतंत्रता प्रेमी बाबू कुंवर सिंह कुशल सेना नायक थे। इनको 80 वर्ष की उम्र में भी लड़ने तथा विजय हासिल करने के लिए जाना जाता है। वीर कुंवर सिंह का जन्म 13 नवम्बर 1777 को बिहार के भोजपुर जिले के जगदीशपुर गांव के एक क्षत्रिय जमीन्दार परिवार में हुआ था। इनके पिता बाबू साहबजादा सिंह प्रसिद्ध परमार राजपूत शासक राजा भोज के वंशजों में से थे। उनके माताजी का नाम पंचरत्न कुंवर था। उनके छोटे भाई अमर सिंह, दयालु सिंह और राजपति सिंह एवं इसी खानदान के बाबू उदवंत सिंह, उमराव सिंह तथा गजराज सिंह नामी जागीरदार रहे तथा अपनी आजादी कायम रखने के खातिर सदा लड़ते रहे। 1857 में अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए हिंदू और मुसलमानों ने मिलकर कदम बढ़ाया। मंगल पांडेय की बहादुरी ने सारे देश में विप्लव मचा दिया। बिहार की दानापुर रेजिमेंट, बंगाल के बैरकपुर और रामगढ़ के सिपाहियों ने बगावत कर दी। मेरठ, कानपुर, लखनऊ, इलाहाबाद, झांसी और दिल्ली में भी आग भड़क उठी। ऐसे हालात में बाबू कुंवर सिंह एवं उनके सेनापति मैकु सिंह ने भारतीय सैनिकों का नेतृत्व किया।

27 अप्रैल 1857 को दानापुर के सिपाहियों, भोजपुरी जवानों और अन्य साथियों के साथ आरा नगर पर बाबू वीर कुंवर सिंह ने कब्जा कर लिया। अंग्रेजों की लाख कोशिशों के बाद भी भोजपुर लंबे समय तक स्वतंत्र रहा। जब अंग्रेजी फौज ने आरा पर हमला करने की कोशिश की तो बीबीगंज और बिहिया के जंगलों में घमासान लड़ाई हुई। बहादुर स्वतंत्रता सेनानी जगदीशपुर की ओर बढ़ गए। आरा पर फिर से कब्जा जमाने के बाद अंग्रेजों ने जगदीशपुर पर आक्रमण कर दिया। बाबू कुंवर सिंह और अमर सिंह को जन्म भूमि छोड़नी पड़ी। अमर सिंह अंग्रेजों से छापामार लड़ाई लड़ते रहे और बाबू कुंवर सिंह रामगढ़ के बहादुर सिपाहियों के साथ बांदा, रीवां, आजमगढ़, बनारस, बलिया, गाजीपुर एवं गोरखपुर में विप्लव के नगाड़े बजाते रहे।

अंग्रेजी हुकूमत को इनसे जंग में कई बार मुंह की खानी पड़ी। 1857 विद्रोह के महानायक बाबू वीर कुंवर सिंह ने अंग्रेजों के खिलाफ कई लड़ाई लड़ी थीं। 80 साल के बुजुर्ग के जोश के आगे अंग्रेजों को कई बार मुंह की खानी पड़ी। कहा जाता है कि भारत में शायद ही अंग्रेजों को इतनी बार हार का सामना करना पड़ा हो। प्रसिद्ध इतिहासकार पंडित सुंदर लाल ने उनके बारे में लिखा है कि जगदीशपुर का राजा कुंवर सिंह आसपास के इलाके में अत्यंत सर्वप्रिय थे। विप्लव के वक्त बाबू कुंवर सिंह की आयु 80 साल से ऊपर थी। फिर भी कुंवर सिंह बिहार के क्रांतिकारियों के प्रमुख नेता और 57 के सबसे ज्वलंत व्यक्तियों में से एक थे।

जुलाई, 1857 में पटना में क्रांतिकारियों के नेता पीर अली को अंग्रेजों ने फांसी दे दी। पीर अली की मृत्यु के बाद 25 जुलाई को दानापुर के देशी पलटनों ने स्वाधीनता का ऐलान कर दिया। ये पलटनें जगदीशपुर भोजपुर की ओर बढ़ीं। कुंवर सिंह ने तुरंत अपने महल से निकल कर शस्त्र उठा कर इस सेना का नेतृत्व किया। कुंवर सिंह इस सेना के साथ आरा पहुंचे। आरा स्थित अंग्रेजी खजाने पर कब्जा कर लिया गया। जेल से कैदियों को रिहा कर दिया गया। अंग्रेजी दफ्तरों को गिरा दिया गया। इस विद्रोही जमात ने आरा के किले को घेर लिया। किले के अंदर थोड़े से अंग्रेज और सिख सिपाही थे। आरा के निकट एक आम का बाग था। कुंवर सिंह ने अपने कुछ आदमी आम के वृक्षों की टहनियों में छिपा रखे थे।

दानापुर छावनी के कप्तान डनवर के नेतृत्व में करीब 300 अंग्रेज और करीब सौ सिख सिपाही जब आम के बाग में पहुंचे तो ऊपर से गोलियां बरसनी शुरू हो गईं। इसमें डनवर मारा गया। साथ ही इस युद्ध में उसके 415 में से मात्र 50 अंग्रेज-सिख सिपाही जीवित बचे। इसके बाद मेजर आयर एक बड़ी सेना लेकर आरा किले में घिरे अंग्रेज सिपाहियों की सहायता के लिए बढ़ा।

दो अगस्त, 1857 को आरा शहर से सटे बीबीगंज के निकट कुंवर सिंह की सेना और मेजर आयर की सेना में संग्राम हुआ। इस युद्ध में अंग्रेज जीत गये। अंग्रेजों ने जगदीशपुर पर भी कब्जा कर लिया। कुंवर सिंह अपने महल की महिलाओं के साथ वहां से निकल गये। उसके बाद आजमगढ़ के पास अतरोलिया में कुंवर सिंह ने डेरा डाला। 22 मार्च 1858 को अंग्रेजों ने मिलमैन के नेतृत्व में कुंवर सिंह पर हमला कर दिया।

इस संग्राम में पहले तो कुंवर सिंह ने मैदान छोड़ दिया। पर थोड़ी ही देर के बाद हमला कर कुंवर सिंह ने अंग्रेजों को हरा कर भगा दिया। उनके माल असबाब भी कुंवर सिंह के हाथ लगे। इस शर्मनाक घटना के बाद कर्नल डेम्स के अधीन बड़ी संख्या में अंग्रेज सैनिक कुंवर सिंह से लड़ने पहुंचे। एक बार फिर मुकाबला हुआ और पराजित होकर डेम्स ने आजमगढ़ में शरण ली। कुंवर सिंह भी आजमगढ़ पहुंचे और उन्होंने आजमगढ़ पर कब्जा कर लिया।

इतिहास लेखक मालेसन ने लिखा कि यह खबर सुन कर लार्ड केनिंग घबरा गया। इस बीच लखनऊ से भागे अनेक क्रांतिकारी कुंवर सिंह की सेना में शामिल हो गये। छह अप्रैल को लार्ड मार्कर और कुंवर सिंह की सेनाओं के बीच संग्राम हुआ। किसी ने लिखा है कि 81 साल का बूढ़ा कुंवर सिंह अपने सफेद घोड़े पर सवार युद्धस्थल के बीच बिजली की तरह इधर -उधर लपकता हुआ दिखाई दे रहा था। लार्ड मार्कर हार गया। वह आजमगढ़ की ओर भाग गया। कुंवर सिंह ने उनका पीछा किया।

वीर कुंवर सिंह का लुगार्ड के नेतृत्व वाली अंग्रेज सेना से फिर युद्ध हुआ। कुंवर सिंह फिर जीते। उसके बाद वह गंगा नदी की ओर बढ़ गए। इस बीच डगलस के नेतृत्व वाली सेना से युद्ध हुआ। पराजित डगलस को पीछे हटना पड़ा और शिवपुर में गंगा पार करते समय कुंवर सिंह की बांह में गोली लग गई। कुंवर सिंह ने अपने बायें हाथ से तलवार खींच कर अपने घायल दाहिने हाथ को कुहनी पर से एक ही वार में काट कर उसे गंगा में फेंक दिया। यानी गंगा मां को समर्पित कर दिया। घाव पर कपड़ा लपेट कर उन्होंने गंगा पार किया।

जगदीशपुर पर कर लिया पुनः कब्जा

जगदीशपुर पर एक बार फिर से कुंवर सिंह ने 22 अप्रैल को कब्जा कर लिया। अंग्रेजों ने लीग्रेड के नेतत्व में सेना जगदीशपुर भेजीं और कठिन लड़ाई हुई। मैदान कुंवर सिंह के हाथों रही। यह 23 अप्रैल की बात है। पर घायल कुंवर सिंह 26 अप्रैल 1958 को चल बसे। पर जब वे मरे तो जगदीश पुर के किले पर स्वाधानीता का उनका झंडा फहरा रहा था। इसी जीत के बाद जगदीशपुर में हर साल 23 अप्रैल को विजयोत्सव मनाया जाता है।

अंग्रेजी सल्तनत की हिल गयी चूलें

23 अप्रैल, 1958 को आजादी के लिए लड़ रही कुंवर सिंह की सेना की वीरता का जो दृश्य एक अंग्रेज अफसर ने देखा था, उसे इन शब्दों में वर्णन किया था – ‘वास्तव में इसके बाद जो कुछ हुआ, उसे लिखते हुए मुझे अत्यंत लज्जा आती है। लड़ाई का मैदान छोड़कर हमने जंगल में भागना शुरू किया। शत्रु हमें बराबर पीछे से पीटता रहा। हमारे सिपाही प्यास से मर रहे थे। चारों ओर आहों, चीखों व रोने के सिवा कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। कुछ बीच रास्ते में गिर कर मर गये। बाकी को कुंवर सिंह के सैनिकों ने काट डाला। हमारे कहार डोलियां रख-रख कर भाग गये। जनरल लीग्रैंड की छाती में गोली लगी। वह मर गया। अंग्रेजी सेना के ही सिख सैनिकों ने हमसे हाथी छीन लिये। वे उन पर सवार होकर भाग गये। अंग्रेज सैनिकों का कोई साथ देने वाला नहीं था।’

ब्रिटिश इतिहासकार होम्स ने उनके बारे में लिखा है, ‘उस बूढ़े राजपूत ने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध अद्भुत वीरअता और आन-बान के साथ लड़ाई लड़ी। यह गनीमत थी कि युद्ध के समय कुंवर सिंह की उम्र अस्सी के करीब थी। अगर वह जवान होते तो शायद अंग्रेजों को 1857 में भारत छोड़ कर भागना पड़ता !

वीर कुंवर सिंह की वीरता और अपनी लगातार हार से बौखलाए अंग्रेजों ने 1857 की लगभग सफल क्रांति से भयभीत होकर ही हिन्दू और मुसलमानों में फूट डालने की साजिश रची जो अभी तक बदस्तूर जारी है। अंग्रेजों की रची साजिश ने भारत के इतिहास के साथ-साथ भूगोल को भी बदल डाला। अंग्रेज भोजपुरिया जवानों के अस्त्र लाठी से सबसे ज्यादा घबराते थे। काश आज अगर कुंवर सिंह जैसे योद्धा शासक मौजूद होते तो भारत की यह दुर्दशा नहीं होती !

23 अप्रैल विजयोत्सव दिवस के अवसर पर महान सेनानी वीर कुवंर सिंह जी को कोटि कोटि नमन !

✍️ डॉ अजय ओझा
संपादक & ब्यूरोचीफ (झारखंड) – संपूर्ण माया & sampurnamaya.in
चेयरमैन – इंडियन मीडिया वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन, झारखंड
चेयरमैन – भोजपुरी फाउंडेशन
महासचिव – मगध फाउंडेशन


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