अपनों की उपेक्षा से ही हो रही हिंदी की दुर्गति

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हिंदुस्तान में झोलाछाप डॉक्टर की पर्ची से लेकर संसद में बैठे हुक्मरानों का भाषण तक अधिकतर अंग्रेजी में ही होता है।
अपने देश में अमूमन मातृभाषा हिंदी के विषय मैं पूरे साल बात नहीं होती मगर हिंदी दिवस के मौके पर फेसबुक और टि्वटर का टाइमलाइन हिंदी के शानदार और धारदार संदेशों से खचाखच भरा रहता है।
2014 में जब पहली बार दक्षिणपंथी नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने थे उसी समय से हिंदी भाषा को लेकर किए जा रहे सरकारी दावों की की गति दोगुनी हो गई थी। एक से बढ़कर एक दावे ऐसा लगा कि महज कुछ दिनों में ही दफ्तरों से लेकर बाजारों तक हिंदी की बल्ले-बल्ले हो जाएगी। हिंदी भाषी क्षेत्र से ताल्लुकात होने के कारण हिंदी के उत्थान कि महज कल्पना ही हमें असीम ऊर्जा से भर देती है। अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस किसी हाईटेक शहर में किसी को हिंदी में बात करते हुए सुनता हूं तो उसे अनायास ही अपने परिवार का मान बैठता हूं। हमारी तरह ही धरती पर मौजूद करोड़ों जीवो की श्रद्धा हिंदी की तरफ ऐसी ही है, और होना भी चाहिए। मगर अभी तक का परिणाम यह है कि हिंदी के उत्थान की जिम्मेदारी जिन हाथों में दी गई उन हाथों ने ही मानो हिंदी का गला घोंटा। ऐसा होना कतई आश्चर्यजनक इसलिए नहीं लगता क्योंकि इन तथाकथित जिम्मेदार हाथों का हिंदी से दूर दूर तक का कोई लेना देना नहीं है।ये तो महज हिंदी के नाम पर मिलने वाली सरकारी मलाई को चाटने की जुगत में है।
हाल ही में यूपी बोर्ड की 10वीं और 12वीं की परीक्षा के जारी रिजल्ट में ऐसे बच्चों की संख्या 10 लाख के करीब पहुंच गई है जो केवल हिंदी भाषा में फेल हुए हैं। और तो और ढाई लाख के करीब छात्रों ने हिंदी भाषा के पेपर को ही छोड़ दिया था। इससे अंदाजा साफ लगाया जा सकता है कि एक हिंदी भाषी प्रदेश में हिंदी को कितनी बड़ी संख्या में छात्रों द्वारा नजरअंदाज किया जा रहा है, जिसके परिणाम भविष्य में अत्यंत कष्टप्रद होंगे। यह परिणाम उस ओर भी इशारा करता है कि एक हिंदी भाषी क्षेत्रों में छात्रों के भीतर यह धारणा क्यों गहरे पैठ गई है कि भविष्य में हिंदी भाषा का न तो कोई रोल है, न तो अध्ययन करना आवश्यक है। यह बात हद तक सही भी है।
हमें आज तक इतना भी अधिकार नहीं है कि हम अपनी मातृभाषा में उच्च शिक्षा ग्रहण कर सकें। आज जितनी भी देश विकसित है उसका सबसे बड़ा कारण उनकी भाषा है। इसके पीछे का कारण मनोवैज्ञानिक है कि इंसान की सोच उसकी मातृभाषा में ही विकसित होती है।जिस देश के शैक्षिक कार्यक्रमों में उस देश की भाषा ना हो वह देश वास्तव में शैक्षिक विकलांगता का शिकार है।
महात्मा गांधी अंग्रेजी भाषा के अच्छे जानकार थे। उन्होंने पढ़ाई विदेश में की थी मगर वह अंग्रेजी बहुत कम बोलते थे।गांधी भी मानती थी कि कोई भी बात अपनी भाषा में जितनी अच्छी और सटीक तरीके से कही जा सकती है दूसरी भाषा में संभव नहीं है।भारत में अंग्रेजी जानने वालों के साथ यही समस्या थी जो गांधी को बिल्कुल पसंद नहीं था।
आज हिंदी की तरह ही अन्य भारतीय भाषाएं भी वेंटिलेटर पर ही हैं। सरकारी कार्यालयों में भारतीय भाषा में राजकाज के लिए अब आंदोलन की जरूरत है। कार्यालयों में अंग्रेजी को आगे बढ़ाने के लिए सरकारे भी खूब तत्परता दिखा रही हैं इसके पीछे कारपोरेट जगत सीधे काम कर रहा है। हिंदी की प्रासंगिकता और उपयोगिता भाषा ,व्याकरण से लेकर कला एवं संगीत तक अतुल्य है। बावजूद इन सबके हिंदी की दुर्गति निरंतर हो रही है। अंग्रेजी बोलने वाले को ज्यादा ज्ञानी और बुद्धिजीवी समझने की धारणा हिंदी भाषियों को हीन भावना ग्रसित करती है। देश में तकनीकी और आर्थिक विकास में हिंदी की वास्तविक महत्ता को दरकिनार किया है। जबकि किसी देश के लोगों में एकता और वैचारिक सुदृढ़ता का महत्वपूर्ण आधार उसकी मातृभाषा होती है। स्वतंत्रता प्राप्त की बात से हिंदी के उत्थान की दिशा में अनेक प्रयास हुए हैं मगर सभी आंशिक रूप से ही सफल हो पाए।
हिंदी भाषी जनसंख्या की अधिकता भारत के साथ-साथ नेपाल ,मारीशस ,सूरीनाम ,दक्षिण अफ्रीका फिजी जैसे देशों में भी है जो हिंदी की विश्व व्यापकता पर मुहर लगाती है।।
आज जब हमारी राजभाषा हिंदी को अमेरिका ,जापान एवं रूस जैसे आधुनिक वैज्ञानिक मिश्रित शक्तिशाली समाज द्वारा तीव्रता से ग्रहित किया जा रहा है वही अपने ही देश में हिंन्दी अस्तित्व की भीख मांग रही है। अपनी जन्मभूमि में आज हिंदी की वही दशा है जो किसी वृद्ध मां की अपनी आधुनिक , भौतिकवादी परिवार में होती है जिसकी मजबूती उस मां की त्याग ,अर्पण एवं समर्पण का परिणाम होती है।
आज जब सात समंदर पार के हिंदी भाषी देश इसकी गुणवत्ता का परीक्षण कर हिंदी की तरफ उन्मुख हो रहे है वहीं हिंदी अपने ही घर बेगाना महसूस कर रही है।

अपनी ही राष्ट्र में हिंदी की दुर्दशा देखकर एक दशक पहले भारत के राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने कहा था कि यदि विदेश से आयातित तकनीकी ,विज्ञान को हम हिंदी में समझें तो विज्ञान प्रयोगशालाओं से लेकर एक अनपढ़ मां की रसोई तक पहुंच सकता है परिणाम स्वरूप हम चीन, जापान ,अमेरिका से सीधे प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं।
यहां तक कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 में भारत की राजभाषा के रूप में हिंदी का उल्लेख तो है परंतु सरकारी से लेकर निजी संस्थानों में इसके कम प्रयोग इसके अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह उठाते हैं।
आज हकीकत की जमीन पर न्यायालय ,चिकित्सा वैज्ञानिक ,शोध सहित राष्ट्र के अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्र के हिंदी को नकार रहे हैं जो हमारी राष्ट्र एवं समाज हेतु अशुभ संकेत है।
सरकार के दावों के विपरीत विडंबना यह है कि देश के हुक्मरान व समाज के उत्तरदाई वर्ग द्वारा हिंदी के प्रति उपेक्षा इसे अपने अंतिम दिन गिनने ‌को मजबूर कर देता है। जो हिंदी संपूर्ण जगत की भौतिक सामाजिक आध्यात्मिक गूढ़ रहस्यों का उत्तर समाहित किए हुई है उसी हिंदी दिवस के अवसर पर कथित बुद्धिजीवियों द्वारा अंग्रेजी में विमर्श किया जाता है। आज हिंदी भाषी क्षेत्र से ताल्लुक रखने वाले व्यक्ति अधिकांश सार्वजनिक मंच पर अपने विचार रख सकने के अनुकूल नहीं होते हैं कारण साफ है उन्हे हेय दृष्टि से देखा जाता है।

आज हम रोजमर्रा के जीवन में भी ज्यादातर अंग्रेजी शब्दों का ही प्रयोग करते हैं जो यह इंगित करता है कि हमारी अस्मिता के प्राण पखेरू अब कुछ ही क्षण के मेहमान हैं।
हिंदी की यह वृद्ध दशा देखकर जितनी पीड़ा होती है उससे ज्यादा घृणा होती है कि समाज के कथित नुमाइंदों के प्रति जिनके निकम्मेपन की बदौलत हिंदी श्मशान की तरफ निहार रही है।
आदि काल से लेकर आधुनिक काल तक हिंदी के तमाम संतो विद्वानों ,लेखकों एवं हिंदी प्रेमियों ने अपनी शानदार रचनाओं से हिंदी को समृद्ध किया है।अब जब हिंदी की दुर्गति हो रही है तो हमारा भी यह कर्तव्य है कि हम अपने विचार ,भाव एवं संवाद के जरिए हिंदी की समृद्धि में अपना यथासंभव योगदान दें।
नीलेश समर्पित(स्वतंत्र पत्रकार)

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं,और विभिन्न राष्ट्रीय मुद्दों पर लिखते रहते हैं ‌


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