शरणार्थियों और घुसपैठियों में फर्क जरूरी
सियाराम पांडेय ‘शांत’
केंद्रीय मंत्रिमंडल ने नागरिकता संशोधन बिल को मंजूरी दे दी है। उम्मीद है कि जल्द ही उसे संसद से भी स्वीकृति मिल जाएगी। हालांकि केंद्र सरकार के इस रुख से विपक्षी दल खुश नहीं हैं। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के कुछ सहयोगी दलों ने भी इस पर आपत्ति जाहिर की है। विपक्ष सरकार के इस प्रस्ताव को असंवैधानिक और भारत की धर्मनिरपेक्ष अवधारणा
का उल्लंघन बता रहा है। जबकि भाजपा का कहना है कि घुसपैठियों के जरिये विपक्ष अपने वोट बैंक बचाने की संकीर्ण कोशिश कर रहा है। कुछ विशेष धर्म के लोगों को नागरिकता देकर केंद्र सरकार पड़ोसी देशों में उनका उत्पीड़न रोकना चाहती है। उन्हें वहां हो रहे दुर्व्यवहार और ज्यादती से बचाना चाहती है।
कांग्रेस सांसद शशि थरूर की इस बात में दम है कि नागरिकता का आधार धर्म नहीं हो सकता। नागरिकता का आधार धर्म होना भी नहीं चाहिए लेकिन शरणार्थी और घुसपैठी का फर्क तो समझा ही जाना चाहिए। किसी भी व्यक्ति को नागरिकता देना आसान है लेकिन यह सुनिश्चित करना कि इससे भारत की सुरक्षा को खतरा नहीं होगा, बेहद कठिन है। कांग्रेस
का तर्क है कि धर्म से राष्ट्रीयता तय करना पाकिस्तान की अवधारणा हो सकती है लेकिन भारत में नागरिकता की अवधारणा तो सर्वधर्म समभाव की है। महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आजाद, डॉ. भीमराव अम्बेडकर कहा करते थे कि धर्म राष्ट्रीयता तय नहीं कर सकता। कांग्रेस के अलावा तृणमूल कांग्रेस, माकपा और कुछ अन्य राजनीतिक
दल भी विधेयक का विरोध कर रहे हैं और कह रहे हैं कि धर्म के आधार पर नागरिकता नहीं दी जा सकती।
असम के पूर्व मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने तो विधेयक को असंवैधानिक और विभेदकारी बताते हुए सर्वोच्च न्यायालय जाने तक की चेतावनी दे दी है। माकपा नेता सीताराम येचुरी को लगता है कि नागरिकता संशोधन विधेयक का उद्देश्य भारत के आधार को नष्ट करना है। अभी कुछ समय पूर्व जब केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर बनाने की पहल की थी तब
भी विपक्ष ने उस पर धार्मिक भेदभाव का आरोप लगाया था। असम और पश्चिम बंगाल में तो जरूरत से कहीं अधिक ही इसका विरोध हुआ था। पूर्वोत्तर में एनआरसी विवाद अभी पूरी तरह थमा भी नहीं है कि केंद्र सरकार ने नागरिक संशोधन बिल को कैबिनेट से पास कराकर विपक्ष के विरोध के पटाखे में पलीता सुलगा दिया है। नागरिकता संशोधन बिल अगर
संसद से पास हो जाता है, तो भारत में बसने वाले शरणार्थियों को मिलने वाली नागरिकता के कई नियम बदल जाएंगे। विपक्ष का विरोध इस बात को लेकर है। मोदी सरकार नागरिकता अधिनियम 1955 में परिवर्तन करना चाहती है। इसके तहत बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान समेत आसपास के देशों से भारत में आने वाले हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी
और ईसाई धर्म वाले लोगों को नागरिकता दी जाएगी। इसके लिए उन्हें भारत में 6 साल रहना होगा। पहले 11 साल से अधिक समय तक भारत में रहने पर नागरिकता मिलती थी। विपक्ष का आरोप है कि इस विधेयक में उक्त देशों से आने वाले मुस्लिमों की उपेक्षा हुई है।
यह सच है कि देश में बड़ी तादाद में मुस्लिम घुसपैठिये रह रहे हैं। वे वोटर भी बन चुके हैं और भारत में नागरिक सुविधाएं प्राप्त कर रहे हैं। यही नहीं वे यहां की कानून-व्यवस्था के लिए चुनौती भी बने हुए हैं। इसलिए वैसे लोगों की पहचान कर निकालने में बुराई क्या है? विपक्ष को समझना पड़ेगा कि पहले देश जरूरी है न कि वोट जरूरी है। नए नागरिकता
संशोधन विधेयक में मुस्लिमों को छोड़कर अन्य धर्मों के लोगों को आसानी से नागरिकता देने पर फैसला किया जा रहा है। विपक्ष इसी बात को धर्म के आधार पर बांटने वाला बता रहा है। असम गण परिषद ने इस विधेयक का विरोध किया है और कहा है कि इस मुद्दे पर सहयोगियों से सरकार के स्तर पर बात नहीं की गई।
गौरतलब है कि असम और पश्चिम बंगाल में शरणार्थी समस्या हमेशा से चिंता का सबब रही है। असम में विधानसभा चुनाव या देश में लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा ने एनआरसी का मुद्दा जोर-शोर से उठाया था, कुछ हद तक उसे इसका राजनीतिक लाभ भी मिला था। अब जब पश्चिम बंगाल में चुनाव संभावित हैं तो भाजपा ने अपने तरकश से फिर
नागरिकता संशोधन विधायक का बेताल निकाल दिया है। यह विधेयक यूं तो 2016 में लोकसभा में पेश किया गया था, जिसके बाद इसे संसदीय कमेटी के हवाले कर दिया गया था। वर्ष 2019 में जनवरी के पूर्वार्ध में यह विधेयक लोकसभा में पास भी हो गया था लेकिन राज्यसभा में अटक गया था। लोकसभा का कार्यकाल समाप्त होने के साथ ही यह विधेयक
भी अस्तित्वहीन हो गया था। इसलिए इसे दोबारा लाने की जरूरत पड़ी है।
गृह मंत्री अमित शाह ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में इसे लागू करने की बात कही है। उनका मानना है कि इन सताए हुए आव्रजकों का बोझ पूरे देश द्वारा उठाया जाएगा। सरकार का तर्क है कि भारत धर्म निरपेक्ष राष्ट्र है और इन आव्रजक शरणार्थियों के लिए भारत के अलावा और कहीं जाने का कोई विकल्प भी नहीं है। सरकार की योजना विधेयक
पास कराकर बांग्लादेश, अफगानिस्तान और पाकिस्तान से आने वाले गैर मुस्लिम आव्रजकों को गुजरात, राजस्थान, दिल्ली, मध्य प्रदेश और अन्य राज्यों में बसाने की है।
तृणमूल कांग्रेस पहले से ही इसे विभाजनकारी और असम सहित पूर्वोत्तर के लिए आग-लगाऊ विधेयक करार देती रही है। माकपा इसमें नई समस्या के पैदा होने की गुंजाइश देखती है। उसका तर्क है कि धर्म और भाषा के आधार पर नागरिकता नहीं दी जानी चाहिए। एआईएमआईएम के असदुद्दीन ओवैसी को लगता है कि इस विधेयक को लागू किया गया तो
भारत इजराइल बन जाएगा। राष्ट्रीय जनता दल को भी कमोवेश ऐसा ही लगता है। लेकिन घुसपैठ और शरणार्थी समस्या से पूर्वोत्तर में आबादी का बिगड़ता संतुलन देखने को विपक्ष जरा भी तैयार नहीं है। पाकिस्तान और बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न से दोनों देशों में अल्पसंख्यक नाम मात्र के रह गए हैं। इसमें संदेह नहीं कि आजादी के दिन से ही इस
मुद्दे पर राजनीति हो रही है। पूर्वोत्तर में जनसंख्या का अनुपात जिस तरह बिगड़ा है, वह देश के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने के खिलाफ है।
विपक्ष इस बार भी इस बिल को अटकाने का प्रयास करेगा लेकिन मोदी सरकार को विश्वास है कि वह तीन तलाक बिल, अनुच्छेद-370 की तरह इसे भी पास करा ले जाएगी।