कलेक्टरः नाम नहीं मानसिकता बदलने की जरूरत
डॉ. अजय खेमरियामध्य प्रदेश में सरकार कलेक्टर का नाम बदलने जा रही है। अंग्रेजी हुकूमत के लिए राजस्व वसूलने यानी कलेक्ट करने के लिए ईजाद किये गए कलेक्टर के पद में अभी भी औपनिवेशिक प्रतिध्वनि होती है। हालांकि मप्र के आईएएस अफसर इस नाम को बदलने के लिये राजी नहीं हैं। मप्र आईएएस एसोसिएशन के अध्यक्ष आईसीपी केसरी की अध्यक्षता में बनाई गई पांच सदस्यीय कमेटी के समक्ष राज्य के आईएएस अफसरों के अलावा राज्य प्रशासनिक सेवा और तहसीलदार संघ ने भी सरकार के इस प्रस्ताव का विरोध किया है। अब यह कमेटी राज्य के सांसद, विधायक, और अन्य मैदानी जनप्रतिनिधियों से परामर्श कर मुख्यमंत्री कमलनाथ को रिपोर्ट प्रस्तुत करेगी। राज्य के सामान्य प्रशासन मंत्री डॉ. गोविंद सिंह स्पष्ट कर चुके हैं कि कलेक्टर का नाम बदला जाएगा। मप्र सरकार मैदानी प्रशासन तंत्र में भी नीतिगत रूप से बदलाव कर रही है, अब जिलों में जिला सरकार काम करेगी। यानी जिला प्रशासन की जगह अब सरकार लेगी जो प्रशासन की तुलना में सरकार के समावेशी स्वरूप का अहसास कराता है।कलेक्टर अभी जिले का सबसे बड़ा अफसर होता है और उसकी प्रशासनिक ताकत समय के साथ असीमित रूप से बढ़ती जा रही है। आलम यह है कि कलेक्टर के आगे विधायक, सांसद जैसे जनता के चुने प्रतिनिधि भी लाचार नजर आते हैं।मप्र में छतरपुर के मौजूदा कलेक्टर तो स्थानीय विधायकों को मिलने के लिये घन्टो इंतजार कराकर सुर्खियों में रह चुके हैं। सरकार के तमाम मंत्री अनदेखी की शिकायत करते रहते हैं।असल में मौजूदा राजव्यवस्था का स्वरूप स्वतः कलेक्टर के पद को अपरिमित ताकत देता है। लोककल्याणकारी राज के चलते सरकारें लगातार जनजीवन में अपना सकारात्मक दखल बढ़ाती जा रही हैं। प्रशासन का ढांचा विशालकाय हो गया है। व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु तक सरकार की भागीदारी सुनिश्चित है। ऐसे में कलेक्टर लोककल्याणकारी योजनाओं से लेकर आधारभूत ढांचा विकास और कानून-व्यवस्था के अंतहीन दायित्व कलेक्टर के पास आ गए हैं। इन परिस्थितियों में कलेक्टर की व्यस्तता तो बढ़ी ही है, समानान्तर ताकत और अधिकारों के साथ आनेवाली बुराइयों ने भी इस पद को कब्जे में ले लिया है। सरकार की समस्त मैदानी प्रयोगशाला आज जिला इकाई है। कलेक्टर एक ऐसे परीक्षक बन गए हैं, जहां से हर समीकरण निर्धारित होता है। कलेक्टर के पद से जुड़ी असीम ताकत ने निर्वाचित तंत्र को आज लाचार-सा बना दिया है। आज भी आम आदमी कलेक्टर को लेकर कतई सहज नहीं है। इसी व्यवस्थागत विवशता को समझते हुए मप्र की कमलनाथ सरकार ने बुनियादी परिवर्तन का मन बना लिया है।जिला सरकार का प्रयोग वस्तुतः मैदानी प्रशासन तंत्र में जनभागीदारी को प्रधानता देना ही है। इस जिला सरकार में प्रभारी/पालक मंत्री अध्यक्ष होंगे और कलेक्टर सचिव। चार सदस्य जनता की ओर से मनोनीत होंगे। कलेक्टर का पदनाम बदला जाना भी इस अंग्रेजी राज व्यवस्था पर मनोवैज्ञानिक रूप से प्रधानता हासिल करने का प्रतीक है। बेहतर होगा कलेक्टर भी अपने व्यवहार में परिवर्तन लाकर आम नागरिकों के साथ, उनकी अपेक्षाओं व आकांक्षाओं के साथ समेकन का प्रयास करें। नहीं तो पदनाम बदले जाने का कोई औचित्य नहीं रह जायेगा। वैसे, देश में कलेक्टर हर राज्य में नहीं हैं। पंजाब में यह डीसी, यूपी में डीएम, बिहार में समाहर्ता के नाम से जाने जाते हैं। जनप्रतिनिधियों को भी चाहिये कि वे भी लोकव्यवहार में पारदर्शिता का आवलंबन करें, तभी औपनिवेशिक राजव्यवस्था से जनता को मुक्ति मिल सकेगी।अफसरशाही को लेकर आम धारणा है कि वह एक अनावश्यक आवरण खड़ा करके रहती है। लोकसेवक के रूप में उसकी आवश्यकता के साथ आज भी भारत की नौकरशाही न्याय नहीं कर पाई है। त्रासदी यह है कि 70 साल बाद भी मानसिकता के स्तर पर हमारे समाज से निकली जमात ने खुद को आईसीएस के मनोविज्ञान को त्यागा नहीं है। कलेक्टर की व्यवस्था असल में आज भी देशभर में लोगों को सुशासन का अहसास कराने में नाकाम रही है। नाम बदलकर जिला अधिकारी, जिला प्रमुख, जिलाधीश करने से उस बुनियादी लक्ष्य की ओर उन्मुख होना संभव नहीं है, जिसे लेकर कमलनाथ सरकार यह कदम उठा रही है।(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)